मैं अपनी बात मेरी ही दो पंक्तियों के साथ शुरू करना चाहती हूं।
हम भारत के लोग
अब हम भारत के लोग नहीं
हिन्दू-मुसलमान हो रहे हैं।
गणतंत्र दिवस यानी कि 26 जनवरी 1950, यह वही दिन था जब प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इरविन स्टेडियम में राष्ट्रीय ध्वज फहराकर संविधान को सम्पूर्ण भारत में लागू किया था लेकिन मेरा मुद्दा है कि हम इन 70 सालों में संविधान की आत्मा को कितना बचा पाए?
क्या हम उस संविधान का मूल भाव बचा पाए हैं या बचा पा रहे हैं। चलिए संविधान को छोड़िए क्या हम अपने धर्म का मूल भाव बचा पाए हैं?
यूं तो साल दर साल हम कुछ बेहतर कोई नया बदलाव चाहते हैं लेकिन इस गणतंत्र मैं एक ऐसा भारत चाहती हूं, जहा बोलने की आज़ादी हो।
मैं पिछले 25 सालों से इसी समाज और इन्हीं लोगों के बीच रह रही हूं लेकिन अब तस्वीर बदल गई है। ब्राह्मण, दलित, मुस्लिम, जैन, सिख और पारसी जैसे खांचों में हमने समाज को बांट दिया है लेकिन दुविधा यह है कि अब इन खांचों ने हमें बांट लिया है। हम समय के साथ आगे बढ़ने की जगह पीछे की ओर चलने लगे हैं। जैसे हम आज़ादी के 70 साल के पहले जहां खड़े थे, आज भी वहीं खड़े हैं।
भगत सिंह ने राजगुरु को एक बार कहा था, “यदि आज़ादी हमें ऐसे ही मिलनी है फिर इस आज़ादी का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।” यह बात 70 सालों के इतिहास में अब भी ठीक बैठती है। हम कहीं भी नहीं पहुंचे और आज तो लगता है कि जैसे और पीछे लौटने को तैयार हैं।
जाति वर्ग विशेष एक ऐसा कोढ़ है, जो धीरे-धीरे सब खत्म कर देता है और आज यह कोढ़ बढ़ता जा रहा है, जो हमें नष्ट करने की कगार तक ले आया है, फिर वह चाहे कोई भी वर्ण व्यवस्था क्यों ना हो।
यह कोई किताबी बात नहीं, बल्कि मेरा स्वयं का अनुभव रहा है। वर्ण व्यवस्था का दंश काफी तेज़ी से युवाओं की नस-नस में भर रहा है। मैं लेखन के साथ-साथ शिक्षक की भी थोड़ी बहुत भूमिका निभाती हूं, जहां मैंने बहुत नज़दीक से इसे आने वाली पीढ़ी में महसूस किया है।
जब एक छः साल के बच्चे (हिन्दू धर्म से) को मैंने पूछा कि असलम उसकी ही कक्षा का छात्र उसका मित्र क्यों नहीं हो सकता? तो उसका कहना था, “वह मुसलमान है। मुस्लिमों से नहीं बोलना है, वे बुरे होते हैं हमने यही सुना है।” वहीं जब मुस्लिम बच्चों से इस तरह के सवाल किए, तो उनका भी वही कहना था।
हालात कुछ यूं है कि आप किसी हिन्दू की मौत पर मातम मना लीजिए तो आपको कई हज़ार मुस्लिमों के मरने की कहानियां सुना दी जाएंगी और यही हाल हर वर्ण के साथ है। हम आज भी उस समाज में रहते हैं, जहां हमारा किसी के घर जाना या कहिए हमारे घर किसी के आने पर उसके बैठने और खाने-पीने का निर्धारण उसका वर्ण करता है।
क्या धार्मिकता का वीणा उठाने वाले लोग अपने धर्मों का मुट्ठी भर ज्ञान भी रखते हैं? यदि रखते हैं, तो क्या उसका अनुसरण कर पाए हैं? यदि नहीं, फिर हमें ऐसे धर्मों की क्या ज़रूरत है?
मैं एक ऐसा भारत चाहती हूं, जो मेरे हाथ पर बंधे कलावे (रक्षा सूत्र) से मुझे जज ना करे। यदि ऐसा है, तो मैं सब रक्षा सूत्र तोड़ देना बेहतर समझूंगी। मैं एक ऐसा भारत चाहती हूं, जंहा मेरी श्रेष्ठता मेरे पद से आंकी जाए मेरे वर्ण से नहीं।
मैं एक हिन्दू हूं और यदि कभी किसी समुदाय विशेष का पक्ष लेती हूं, तो मुझे गद्दार हिन्दू विरोधी कह दिया जाता है और नसीहत दी जाती है कि वे अच्छे नहीं है और निश्चित है कि उनको भी ऐसी ही नसीहतें हमारे लिए मिलती होंगी।
क्या हम संविधान की मूल भावना, संविधान की आत्मा के साथ नहीं जी सकते? क्या गणतंत्र दिवस सिर्फ राष्ट्र ध्वज फहराने की औपचारिकता भर है? इस गणतंत्र दिवस मैं एक ऐसा भारत चाहती हूं, जो हमें वह आज़ादी लौटा पाए, जिसे हम जीना चाहते हैं।
किसी राष्ट्र, किसी समाज, किसी समुदाय में ज़िंदा बने रहने के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी बेहद ज़रूरी है और यूं लगता है कि जैसे हम अभिव्यक्ति के खतरे उठाने से बच रहे हैं और जो प्रश्न करने का यह जोखिम उठा रहे हैं, उन्हें राष्ट्रद्रोह, धर्म विरोधी, होने का तमगा पहना दिया जाता है।
जामिया मिल्लिया इस्लामिया और जेएनयू की घटनाएं हम सभी ने देखी हैं। जब शिक्षा के मंदिर को धर्म से जोड़ दिया जाए, तो धर्म और देश दोनों का पतन शुरू होने लगता है, जिसका उदाहरण यह है कि हाल ही में डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत को 13 साल की सबसे खराब रैंकिंग मिली है।
जामिया और जेएनयू जैसी घटनाएं इस मुद्दे को और भी ज्वलंत बनाती हैं। लोकतंत्र पर ही जब खतरा मंडराने लगेगा, तो गणतंत्र कैसे बचाया जाएगा सोचने का विषय है।
नोट: सृष्टि तिवारी Youth Ki Awaaz इंटर्नशिप प्रोग्राम जनवरी-मार्च 2020 का हिस्सा हैं।