सविनय अवज्ञा आंदोलन के पश्चात ‘पूर्ण स्वराज’ की मांग भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के लाहौर अधिवेशन में 31 दिसंबर, 1929 को उठी, जिसका नेतृत्व ‘नेहरू’ कर रहे थे। तय हुआ कि 26 जनवरी, 1930 का दिन ‘पूर्ण स्वराज’ अर्थात दमनकारी सत्ता से मुक्ति के दिवस के रूप में मनाया जाएगा।
स्वतंत्रता पश्चात भारत का संविधान बनकर तैयार हुआ, जिसे 26 नवम्बर, 1949 को स्वीकार किया गया। इस प्रकार, यह तारीख अपने आप में ऐतिहासिक थी, जिसे ‘गणतंत्र दिवस’ के रूप में मनाया जाना तय हुआ।
‘गणतंत्र’ अर्थात एक ऐसा राष्ट्र जिसकी सत्ता जनसाधारण में समाहित हो। इस तरह यह दिन प्रचलित शासन पद्धति व व्यवस्था के आकलन के पश्चात उसको सेलिब्रेट करने का दिन है। वह दिन है, जहां संविधान निर्माताओं की दूरदर्शिता और भारत भूमि में निहित विश्वास की परीक्षा के परिणामों को आकलन के पश्चात स्वीकार करें व आने वाले दिनों के लिए उद्देश्य तय कर उन्हें प्राप्त करें, जिससे राष्ट्र निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर रहे।
हालांकि हालात कुछ और ही बयान करते हैं, जिसे बाबा नागार्जुन की पंक्तियों से समझा जा सकता है-
‘मार-पीट है, लूट-पाट है, तहस-नहस बरबादी है
ज़ोर-ज़ुल्म है,जेल-सेल है, वाह ख़ूब आज़ादी है।
वर्तमान के हालात ऐसे ही हैं। गरीबी और भुखमरी के आंकड़े तमाम सरकारी दावों को खारिज़ कर देते हैं और अमीर-गरीब के बीच का फासला लगातार बढ़ता जा रहा है। CAA जैसे कानून सीधे तौर पर संविधान की मूल भावना के खिलाफ हैं। इसके विरोध में लगभग पूरे देश में छात्र और आम नागरिक सड़क पर हैं।
जेएनयू में महीनों से पढ़ाई ठप है और सरकार में बैठे लोग अपनी बात को लेकर एक खास तरह की प्रतिबद्धता प्रस्तुत कर रहे हैं। महिला सुरक्षा की दृष्टि में तमाम कदम उठाए जाने के बावजूद भी कोई व्यापक बदलाव देखने को नहीं मिल रहा है।
घरेलू हिंसा, मैरिटल रेप या मोलेस्टेशन की घटनाओं से पता चलता है कि अपराध लगातार बढ़े हैं। एक तरफ स्टूडेंट्स बेरोज़गार है, तो दूसरी ओर निजीकरण के कारण लोगों की नौकरियां चली गई हैं। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों की फीस इतनी बढ़ चुकी है कि एक गरीब के लिए वहां अपने बच्चों को पढ़ा पाना मुश्किल जान पड़ता है।
सरकारी सम्पत्तियों का बड़े पैमाने पर निजीकरण अमीर-गरीब के फासले को और बढ़ा रहा है। इस गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि ब्राज़ील के राष्ट्रपति ‘ज़ेयर बोल्सोनरो’ हैं, जो पूंजीवादी, महिला व पर्यावरण विरोधी रवैये के लिए कुख्यात हैं।
हाल ही में अमेज़न के जंगलों में लगी भीषण आग में उनके खिलाफ पूरे विश्व के बुद्धिजीवियों ने आलोचना की। ऐसे में भारत सरकार द्वारा उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में बुलाने का उद्देश्य क्या मिश्रित अर्थव्यवस्था से पूंजीवादी तंत्र की ओर संक्रमण समझा जाए? क्या यह कदम उन सारे प्रयासों पर प्रश्न चिह्न नहीं लगाते जिनकी दुहाई सत्ता दल बार-बार या तो संसद में या रैलियों में देता है?
अर्थव्यवस्था की हालत लगातार खस्ताहाल चल रही है। किसान खेतों में परेशान हैं और आत्महत्या कर रहे हैं। मध्यम वर्ग भी ज़रूरी चीज़ों की बढ़ी कीमतों से परेशान है।बुनियादी सवाल यह है कि क्या इस देश में धार्मिक कट्टरता व उससे उपजी बहसें नागरिकों के जीवन की बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने से अधिक महत्वपूर्ण हैं?
साथ ही नागरिकों के रूप में हम सब पर भी प्रकृति,समाज व स्वयं के प्रति कुछ ज़िम्मेदारियां आती हैं। क्या हम इन जिम्मेदारियों का ईमानदारी से निर्वाह कर रहे हैं? क्या हम सोचते हैं कि हमारी स्वतंत्रता वहीं खत्म हो जाती है, जहां दूसरे की नाक शुरू होती है?
- क्या हमें आभास है कि हम विविधता से भरे देश में रहते हैं तथा यह राष्ट्र पंथ-निरपेक्ष हैं।
- मॉब लिंचिंग जैसे विचार मानसिक हिंसा की उपज हैं। सिविल सोसाइटी में रहने के बावजूद भी क्या हम जंगलीपन को छोड़ पाए हैं?
- क्या गाँधी के देश में धार्मिक उन्माद सामाजिक सौहार्द को खा जाएगा?
- प्रकृति से संसाधनों को लगातार निकालते और मोटरों से धुआं उड़ाते वक्त आने वाली पीढ़ियों की सांस में ज़हर घोलने का हक हमें किसने दिया? हमने कभी इस पर सोचने की ज़हमत उठाई है?
राष्ट्र ‘भावनात्मक’ इकाई है। इस देश में रहने वाला प्रत्येक नागरिक अपने-अपने तरीके से देश से प्रेम करता है। हमें कोई अधिकार नहीं कि हम किसी की देशभक्ति के पैमाने का आकलन करें। अल्पसंख्यको और पिछड़ों ने लंबे समय तक शोषण सहा है।
बहुसंख्यक व सशक्त तबके को इतना उदार बनना होगा कि वह उनकी अभिव्यक्ति को स्वीकार कर, उन्हें बराबरी से अपनाए। तभी यह देश संविधान निर्माताओं की इच्छाओं पर खरा उतर पाएगा। इन्हीं बातों के साथ लेख को समाप्त करना चाहूंगी कि मेरे लिए गणतंत्र उसी दिन सार्थक होगा या सही मायने में उसी रोज़ गणतंत्र दिवस मनाऊंगी, जब यह समाज भेदभाव मुक्त हो जाएगा।