वैश्विक स्तर पर कई उलझने व समस्याएं हैं पर अगर कार्बन उत्सर्जन की समस्या को अग्रणी ना माना जाए तो इस धरती के साथ बेईमानी होगी। गाड़ी में लगा दर्पण हमें याद दिलाता है कि हम एक काला धुआं आने वाली नस्लों के लिए छोड़ते जा रहे हैं। यह अमिट कलंक हमारे ऊपर ही लगेगा।
जलवायु परिवर्तन का मानव स्वास्थ्य से बड़ा ही जटिल संबंध है
कार्बन उत्सर्जन और दूसरे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है। इससे एक और जहां UHI (Urban Heat Island) प्रभाव बढ़ा है, वहीं दूसरी ओर बाढ़ व सूखे से हमको दो-चार होना पड़ रहा है। जंज़ीरों की कड़ियों की तरह यह गुत्थी गाहे-बगाहे शारीरिक व मानसिक संरचना में उलझती रहती हैं।
विडम्बना यह है कि कार्बन जैसे-जैसे बढ़ता है, वैसे-वैसे सांस, फेफड़ें, ह्रदय, गुर्दे व उदर संबंधी दिक्कतें शुरू हो जाती हैं। हर समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता इस संकट पर दोधारी तलवार की तरह होती है।
शारीरिक तनाव व्यक्ति को अंदर से तोड़ देता है, जिससे दुश्चिंता,अवसाद,आत्महत्या, उत्तरजीवी अपराधबोध, विकराल आघात, थकान, मेजर डिप्रेसिव डिसऑर्डर व पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर जैसी मानसिक समस्याएं बढ़ रही हैं।
तापमान वृद्धि का आक्रामक व्यवहार से सीधा संबंध
गर्मियों में जहां एक ओर अपराध दर बढ़ जाती है, वहीं आत्महत्या के मामलों में भी गुणात्मक वृद्धि देखी गई है। चूंकि वैश्विक तापमान लगातार बढ़ ही रहा है, इस तरह की दुर्घटनाओं में इज़ाफा ही होगा। आज भी समाज के कई हल्कों में मनोवैज्ञानिक समस्याओं को हेय दृष्टि से देखा जाता है। यह भी वजह है कि कार्बन की वजह से इसके असर का मूल्यांकन करना चिकित्सीय विज्ञान के लिए टेढ़ी खीर साबित होता है।
ग्रीष्म तरंगों के बढ़ने का भी सीधा असर मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है, जो कि ह्रदय-वक्ष व गुर्दे से संबंधित समस्याओं के कारण उत्पन्न होता है।
यहां तक कि अगर कामकाजी माहौल में भी तापमान सामान्य से अधिक है तो कर्मचारी की कार्यदक्षता पर नकारात्मक असर पड़ता है, इसमें सहकर्मियों से दुर्व्यवहार, काम में मन ना लगना, उत्पादन में कमी व डिमेंशिया जैसी बीमारियां तक शामिल हैं।
तापमान में बदलाव का किसानों के मानसिक स्वास्थ्य पर असर
इन सबसे इतर भारत जैसे विकासशील देशों में सूखे के कारण किसानों की आत्महत्या एक भयावह सच है। सभी सरकारें अपनी रोटियां सेंकने के लिए लोक लुभावन वादें तो करती हैं पर सत्ता में आते ही उससे मुकर जाती हैं।
वर्षा ऋतु में बदलाव, नदियों में पानी की कमी या अधिकता, औद्योगीकरण, अनाप-शनाप इमारतों का बेतरतीब ढंग से निर्माण, जल के रख रखाव में उपेक्षित रवैया आदि का मूल कारक जलवायु परिवर्तन ही है। इन सबका कुप्रभाव समाज पर पड़ता ही है।
बशीर बद्र जी के शे’र की एक पंक्ति है,
कहीं बरकतों की हैं बारिशें, कहीं तिश्नगी बे-हिसाब है।
एक किसान की मेहनत या तो सूखे की मार झेलती है या अतिवर्षा की भेंट चढ़ जाती है। फलतः उसके सामने अपने आश्रितों का खाद्यान संकट उत्पन्न हो जाता है। बड़े परिवेश में देखें तो दैनिक सामग्री की कीमत बढ़ने लगती है। यह तो एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई वाली स्थिति है।
थोड़ा गहराई से विश्लेषण करने पर लंबे सूखे की वजह से विस्थापन की कहानी पता लगती है, यह आगे फिर से आत्महत्या की वजह बनती है।
सूखा, बाढ़, बढ़ता समुद्र स्तर, तापमान वृद्धि व जलवायु परिवर्तन के अन्य कारकों की वजह से होने वाला नुकसान मनोवैज्ञानिक तौर पर इंसान को कमज़ोर बनाता जा रहा है। अगर समय रहते हम नहीं चेते तो, अंत निश्चित ही है।
अपने इरादों का आंकलन ज़रूरी है
अभी तक मानव सभ्यता ने जितने भी कारनामे किए हैं, उनसे कमोबेश जीवन पद्धति में सुधार ही हुआ है। विकास एक सतत प्रक्रिया है, जिसके मूल में ऊपर उठने व आगे बढ़ने की बुनियादी संभावनाएं छिपी रहती हैं।
चूंकि समस्त ब्रह्मांड में सिर्फ पृथ्वी (अभी तक ज्ञात) में ही जीवन संभव है इसलिए मनुष्य ने प्रगति करने के सारे हथकंडे अपनाए हैं। चाहे वह निर्माण क्षेत्र हो, अंतरिक्ष में कदम हो, वाहनों का विकास हो, डिजिटलीकरण हो या मशीनीकरण। इन सबके बीच हमें अपने इरादों का आंकलन भी करते रहना होगा।