माहवारी, जिसे आज भी देश के कई लोग महिलाओं को होने वाली बीमारी के नाम से जानते हैं, जो हर महीने आ जाती है। वैसे तो यह महिलाओं के शरीर की एक सामान्य सी प्रक्रिया है। किंतु इसके विषय में अधूरा ज्ञान स्वास्थ के लिए हानिकारक भी सिद्ध हो सकता है।
माहवारी को लेकर अलग-अलग क्षेत्रों में अलग अलग मान्यताएं व्याप्त हैं, जिनके पीछे का कारण कहीं कुरीतियां, तो कहीं साफ-सफाई के नाम पर चली आ रही प्रथाएं शामिल हैं। किंतु कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जहां पर इसे एक परेशानी के रूप में देखा जाता है। इसका कारण और नहीं बल्कि इस विषय में पर्याप्त ज्ञान का ना होना होता है।
इन दिनों आचार इत्यादि छूने से उनका खराब हो जाना, पूजास्थल,रसोईघर में जाने से इनका अशुद्ध हो जाना ऐसी ही कुछ मान्यताओं का प्रमाण है। मुझे आज तक यह समझ नहीं आता कि क्या हमारे पास कोई सुपर पावर है जिससे छूने भर से ही हम एक आचार को खराब कर दें। वह भी तब जब हम उसे रोज़ छू रहे हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों की हालत बुरी
ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं पैड इत्यादि के इस्तेमाल को पैसों की बर्बादी समझती हैं, जिस कारण वे स्वयं के साथ बेटियों को भी कपड़ा इस्तेमाल करने की सलाह देती हैं। एक ही कपडे के कई बार इस्तेमाल से कई प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो जाती है, शिक्षा के अभाव के कारण बीमारियों का कारण तक ऐसे लोग समझ नहीं पाते हैं और एक बड़ी समस्या उत्पन्न हो जाती है।
इसके अलावा माहवारी के समय होने वाले असहनीय दर्द और दाग के डर से महिलाओं के काम तथा बेटियों की शिक्षा पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। ये सभी कारण इन दिनों क्या करना है क्या नहीं इन सभी बातों के अभाव के कारण होता है।
सबसे बड़ी समस्या ग्रामीण क्षेत्रों में कचरे को फेंकने की होती है। ऐसे में या तो महिलाएं अगली बार के लिए उन कपड़ों को संभाल कर रखती हैं या जला देती हैं। नतीजा संक्रमण से होने वाली बीमारियों के तौर पर भुगतना पड़ता है।
पहली बार होने वाली माहवारी से जानकारी के अभाव में बच्चियों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उन्हें अचानक हुए इस बदलाव से शर्म का सामना करना पड़ता है। इससे ये लड़कियां पढ़ाई में भी पिछड़ती रहती हैं और इनका मानिसक स्वास्थ भी बुरी तरह प्रभावित होता है।
छत्तीसगढ़ के स्कूल की लड़कियां की स्थिति
शहरों में इंटरनेट के माध्यम से जानकारियां प्राप्त हैं, किन्तु ऐसे ग्रामीण क्षेत्र या पिछड़े क्षेत्रों से आने वाले लोग इसकी जानकारी से अज्ञात होने के कारण बीमारियों के शिकार होते हैं।
मेरी एक दोस्त हैं, जिन्हें मैं अपनी बड़ी बहन मानती हूं। उनका नाम नज़रा खान है। नज़रा दीदी, छत्तीसगढ़ के कोटमीकला बिलासपुर के रेशासकीय उच्चतर माध्यामिक विद्यालय में शिक्षिका के रूप में कार्यरत हैं। मैंने जब उनसे उनके स्कूल के बारे में पूछा तो उन्होंने स्कूल की कई समस्याओं के बारे में बात की लेकिन सबसे दिल दुखाने वाली बात थी, पीरियड्स के दौरान लड़कियों की स्थिति की।
उन्होंने बताया कि वहां लड़कियां पैड्स का इस्तेमाल नहीं करतीं। क्योंकि
- एक तो वे बहुत ज़्यादा मंहगे होते हैं,
- दूसरा उनके घरवाले पैड्स को फिज़ूल खर्च के रूप में देखते हैं।
- तीसरा यदि सरकार द्वारा कम दामों में मिलने वाले पैड को खरीदा भी जाय तो वे इतने अच्छे नहीं होते जिससे लड़कियों की समस्या सुलझ सके।
ये सारी समस्याएं वास्तव में केवल किसी एक गाँव की नहीं बल्कि लगभग सभी ग्रामीण क्षेत्रों की हैं। शिक्षकों की भी यही चिंता रहती है कि लड़कियों की इस समस्या से आखिर वे किस तरह निजात पा सकते हैं।
स्कूल में लड़कियां गंदे पैड्स वापस बैग में रख लेती हैं
दीदी ने बताया कि उनके स्कूल में हालात इतने बुरे हैं कि कूड़ेदान होने के बावजूद भी लड़कियां उनका प्रयोग नहीं करतीं हैं। कूड़ेदान का इस्तेमाल ना करने की वजह शर्म है। स्कूल में लड़कों की शर्म से लड़कियां इन कूड़ेदानों का प्रयोग नहीं करती हैं। ऐसी हालत में लड़कियां उन गंदे पैड्स को वापस अपने बैग में रख लेती हैं या फिर स्कूल से छुट्टी होने के बाद रास्ते पर फेंकते हुए जाती हैं।
एक समस्या जो अपने ग्रामीण क्षेत्रों के अलावा कई छोटे शहरों पर भी लागू होती है, वह यह कि लड़कियों को ज़्यादातर समस्या इस बात से होती है कि दाग कोई लड़का या आदमी ना देख ले।
लड़कियों के स्कूल में अगर किसी लड़की को दाग लग भी गया, तो वे उसे सामान्य तरीके से लेती हैं, लेकिन किसी ऐसे स्कूल जहां पर लड़के लड़कियां साथ पढ़ते हैं, वहां दाग लगने पर लड़कियो को अपमानित होना पड़ता है। क्योंकि लड़के इस बात की गहराई से अंजान होने के कारण उन लड़कियों का मज़ाक उड़ाना शुरू कर देते हैं।
पहले तो स्थिति बहुत ही ज़्यादा बुरी थी, जिसमें टॉयलेट की सुविधा ना होने के कारण काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता था। किन्तु अब हर घर में टॉयलेट की सुविधा होने के कारण इस बात से बहुत राहत मिली है। फिर भी सफर में जाते समय बस इत्यादि में अब भी ऐसी समस्याएं देखने को मिलती हैं। जहां लड़कियां ज़रूरत पड़ने पर मजबूरी में खुले मैदानों का प्रयोग करती देखी जाती है। इसके पीछे कारण हर स्टॉप पर पब्लिक टॉयलेट का ना होना होता है।
ऐसे निपटा जा सकता है माहवारी से जुड़ी समस्याओं से
यदि इन सभी बातों पर गौर किया जाए तो वर्तमान में ज़रूरत महिलाओं व लड़कियों में जागरूकता लाने की है। आंगनवाड़ी केंद्रों के माध्यम से यूं तो कई अभियान चलाने व स्कूलों में शिक्षकों को अवगत कराने के प्रयास किये जा रहे हैं। किंतु उनका सही ढंग से ना होना इन प्रयासों को असफल कर रहा है।
इस मामले में मेरे विचार से,
- सरकार आंगनवाड़ी केंद्रों के माध्यम से जागरूकता अभियान चलाने पर ज़ोर दे, जिसमें लोगों को माहवारी से जुड़े सभी पहलुओं से अवगत कराया जाए,
- हम कैसे बीमारियों से तथा उन दिनों में दर्द से बचकर अपना खयाल रखते हुए काम पर ध्यान दे सकते हैं इस पर कार्यशालाएं कराई जाएं,
- सस्ते दामों में अच्छी क्वालिटी के पैड मुहैया कराये जाने पर ध्यान दें, ताकि गरीब परिवारों की महिलाओं को कम दामों में सुरक्षा प्रदान हो सकती है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में कचरे को किस तरह निस्तारित किया जाना चाहिए और कपड़ा लेने से किस तरह की समस्याएं हो सकती है इस विषय में भी जागरूक कराया जाना चाहिए।
- सभी विद्यालयों में कक्षा 6 में जाते ही सभी बच्चों को इस बारे में बताकर अवगत कराने का काम भी किया जाना चाहिए। ताकि लड़कियां इस बदलाव से पहले ही अवगत हो सकें।
सबसे बड़ी बात, क्योंकि यह एक सामान्य प्रक्रिया है तो इसे पाठ्यक्रम के माध्यम से सभी लड़के और लड़कियों को अवगत कराना चाहिए। और जागरूकता अभियान भी केवल लड़कियों या महिलाओं के लिए ना होकर पुरुषों के लिए भी होना चाहिए। ताकि लड़के भी इसे गंभीरता से समझते हुए लड़कियों के साथ सामान्य व्यवहार करें।
इस विषय में शर्म खत्म होकर खुलकर बात तभी होगी जब लड़कों में भी इस बात की जानकारी सामान्य तरह से होगी। जैसे कि बाकी बातों के बारे में होती है। ताकि लड़कियां बिना शर्म के इसे एक सामान्य प्रक्रिया ही मानते हुए सारे काम आसानी से करने में सक्षम हो सकें और खुद में एक आत्मविश्वास की भावना विकसित कर सकें।