‘हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’ यह वह नज़्म, जिसे कोई भी फैज़ की शायरी के संग्रह में सबसे पहले ढूंढता है। ज़्यादातर लोगों में फैज़ को लेकर जो दिलचस्पी बढ़ती है, वह इसी नज़्म की वजह से बढ़ती है।
कहीं भी छोटा सा विरोध प्रदर्शन होने पर भी यह नज़्म पढ़ी जाती है। युवाओं में यह नज़्म काफी पसंदीदा भी है लेकिन आजकल यह नज़्म किसी और वजह से चर्चा का विषय बनी हुई है।
दरअसल 17 दिसंबर को जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी में स्टूडेंट्स के ऊपर हुई पुलिस बर्बरता के खिलाफ IIT कानपुर में एक प्रदर्शन हुआ था, जिसमें स्टूडेंट्स ने फैज़ की यह इंकलाबी नज़्म पढ़ी थी। इसके खिलाफ IIT के एक टेंपररी फैकल्टी मेंबर वशिमंत शर्मा ने शिकायत की है। उनका कहना है कि यह नज़्म हिंदू-विरोधी है। उनका कहना है कि इस नज़्म में कुछ लाइन्स ऐसी हैं, जिससे हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुंच सकता है।
उन्हें इस नज़्म की जिन पंक्तियों से आपत्ति है वह इस प्रकार है,
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख़्त गिराए जाएंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
किसी कविता का सार पढ़ने वाला अपने हिसाब से अलग-अलग अर्थ निकालता है। हर पाठक की व्याख्याओं में कुछ अंतर होता ही है लेकिन अगर यह पता चले कि कविता कब लिखी गई है, तो इससे कवि के दृष्टिकोण का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि वह क्या कहना चाह रहा है।
फैज़ ने यह कविता तब लिखी थी, जब पाकिस्तान में जनरल ज़िया-उल-हक ने जनता द्वारा चुनी हुई सरकार का तख्ता पलटकर अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी। फैज़ ने उसी दौरान अपनी यह कविता लिखी थी।
फैज़ अपनी नज़्म में कहते हैं, ‘जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से/सब बुत उठवाए जाएंगे’, इसका अर्थ यह नहीं है कि खुदा के काबे (मक्का शहर में स्थित) से सारी मूर्तियां निकाल दी जाएंगी, ना ही अब यह संभव है, क्योंकि वहां से मूर्तियां पैगंबर मुहम्मद के समय ही निकाल दी गई थीं। इसको केवल शायरी में एक संकेत में रूप में लिखा गया है, जैसा कि अमूमन शायरी में इस्तेमाल किया जाता है।
इस पंक्ति के कारण फैज़ को मूर्तिभंजक भी कहा गया है लेकिन इन पंक्तियों में ‘अर्ज़-ए-खुदा के काबे’ को संकीर्ण अर्थों के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया है। यहां ‘अर्ज़-ए-खुदा के काबे…’ पंक्ति का अर्थ है कि यह ज़ालिम तानाशाह झूठ और शक्ति के बल पर अपना राज कायम किए हुए बुत की तरह बैठे हुए हैं और जब यह दुनिया से निकाल दिए जाएंगे या खत्म हो जाएंगे तब हम शोषित, दबे कुचले लोगों का राज होगा। तब यह ज़ालिम अपने तख्त ने नीचे गिर पड़ेंगे और उनके सिर के ताज उछलकर इनके सिर से अलग हो जाएंगे।
‘बस नाम रहेगा अल्लाह का’ लोगों को सबसे ज़्यादा इसी पंक्ति से आपत्ति है लेकिन इसके बाद वाली पंक्ति अगर हम पढ़ेंगे तब ही इस पंक्ति का अर्थ ठीक से समझ आएगा। फैज़ अगली पंक्तियों में कहते हैं, ‘उट्ठेगा अनल-हक का नारा/जो मैं भी हूं और तुम भी हो’। इन पंक्तियों में फैज़ ‘अल्लाह’ का प्रयोग ‘सच’ के लिए कर रहे हैं। फैज़ भला क्यों कहने लगे कि बस नाम रहेगा अल्लाह का जबकि फैज़ नास्तिक थे। वह अल्लाह को मानते तक नहीं थे।
अगली पंक्तियों में जहां पर फैज़ कहते हैं, ‘उट्ठेगा अनल-हक का नारा’ इसे सूफी लोग इस्तेमाल करते थे। यह कट्टर इस्लाम की मूल भावना के ही खिलाफ है। साधारणत: अनल हक का अर्थ है ‘मैं सत्य हूं’। अब यहां पर फैज़ ने दोनों जगह पर ये दो शब्दों को ‘सच’ के लिए इस्तेमाल किया है। अब यह ‘सच’ कौन है? ‘सच’ जनता है, जिसका शोषण हमेशा से ये सत्ताधीश करते आए हैं।
क्या है कविता का इतिहास
अब फिर से इस कविता के इतिहास में चलते हैं। सन् 1985 में जनरल ज़िया-उल-हक ने पाकिस्तान में साड़ी पहनने पर पाबंदी लगा दी, क्योंकि ज़िया-उल-हक एक कट्टर इस्लामिस्ट था। उसके मुताबिक साड़ी हिन्दुओं का पहनावा है। यह एक तरह हिन्दूफोबिया था। इसके खिलाफ पाकिस्तान की मशहूर गज़ल गायिका इकबाल बानो ने ‘काली साड़ी’ पहनकर पचास हज़ार की भीड़ से भरे एक स्टेडियम में ज़िया-उल-हक के खिलाफ प्रतिरोध में इस नज़्म को पढ़ा और स्टेडियम इंकलाब ज़िन्दाबाद की आवाज़ से गूंज उठा था।
फैज़ ने जिस नज़्म को पाकिस्तान के कट्टरपंथियों के खिलाफ लिखा था, इकबाल बानो ने जिस नज़्म को कट्टरपंथियों के खिलाफ गाया, जिस नज़्म से एक वक्त पाकिस्तान के कट्टरपंथियों को परेशानी थी, जिस फैज़ से पाकिस्तान के कट्टरपंथियों को इतना डर था कि उन्हें जेल में डाल दिया गया था, उन्हें देश निकाला की सज़ा भुगतनी पड़ी थी, आज उसी नज़्म से हिन्दुस्तान के कट्टरपंथियों को भी आपत्ति हो रही है।
आखिर में जो लोग फैज़ की इस नज़्म को साम्प्रदायिक रंग देकर फैज़ को कट्टर इस्लामिस्ट घोषित करने की कोशिश कर रहे हैं, उनके लिए फैज़ का ही एक शेर-
वो बात सारे फसाने में जिस का ज़िक्र ना था
वो बात उनको बहुत ना-गवार गुज़री है