किशोरावस्था में बॉलीवुड का एक गाना मेरे मन को खूब लुभाता था, जिसे अक्सर मैं गलियों व सड़कों से गुनगुनाते हुए निकलता था। उस गाने के बोल थे, “तू हां कर या ना कर, तू है मेरी किरण।”
उस समय फिल्म देखकर और गाना सुनकर लगता था कि वाह क्या आशिक है, उफ्फ! क्या मोहब्बत है। उस दौर में फिल्म को देखकर बहुत सारे लड़कों ने इस तरह के आशिक बनने की जैसे कसम ही खा ली थी।
प्यार में रिजेक्शन को स्वीकार करने की ज़रूरत
असल में तब इस बात का इल्म नहीं था कि “किरण” की अनुमति भी ज़रूरी है और उसकी ना का मतलब ना है। सालों बीत गए लेकिन पीछा करने वाले आशिक और “ना में भी हां” वाले गाने लगातार हिंदी सिनेमा में परोसे जाते रहे हैं।
ऐसे फिल्मी हीरो एवं गानों से प्रभावित होकर ना जाने कितने ही युवक प्रतिदिन यौनिक अपराध में लिप्त हो जाते होंगे। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि यौनिक अपराध सिर्फ फिल्मों और गानों की वजह से हो रहे हैं। समाज खुद भी इसके लिए ज़िम्मेदार है।
लड़कियों का पीछा करना, उनके शरीर व कपड़ों पर भद्दी फब्तियां कसना फिर इंकार करने पर लड़कियों को सबक सिखाने की धमकियां देना आम बात है। इन सब घटनाओं से लड़कियों का आमना-सामना इतनी बार हो चुका होता है कि उन्हें ये घटनाएं मानो ज़िंदगी का हिस्सा लगने लगती हैं फिर चाहें लडकियां पढ़ने वाली हों या कामकाजी, कोई ना कोई सरफिरा उनका पीछा करते नज़र आ जाता है।
ना सुनने पर सबक सिखाने का जुनून है छपाक
जब कोई लड़की किसी लड़के को रिजेक्ट करती है, तो लड़का उसे सबक सिखाने की धमकियां देता है फिर ऐसी धमकियों को अंजाम तक पहुंचाने के लिए “एसिड अटैक का रास्ता” अपनाया जाता है।
NCRB आंकड़ो के अनुसार 2014 से 2018 के बीच में 700 से भी ज़्यादा एसिड अटैक की घटनाएं देशभर में घटित हुई हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि अब इन घटनाओं पर नियंत्रण पा लिया गया है। देश के किसी ना किसी कोने से छपाक की घटनाएं हमारे सामने आ ही जाती हैं।
संवेदनशील मुद्दे को उजागर करती छपाक
एसिड अटैक पर बनी फिल्म छपाक जो सच्ची घटना पर आधारित है, जिसने एसिड अटैक सर्वाइवर की ज़िंदगी के दर्द को बयान करके संवेदनशील मुद्दे को उजागर किया है। एसिड अटैक सरवाईवर लक्ष्मी अग्रवाल की ज़िंदगी पर आधारित फिल्म पितृसत्ता के कारण विकसित आपराधिक मानसकिता को दिखाती है।
फिल्म के अंत में जिस तरह से दिखाया गया है कि अभी भी एसिड अटैक बंद नहीं हुए हैं, यह समाज के लिए एक चेतावनी है कि उसे मज़बूत मर्द चाहिए या फिर संवेदनशील पुरूष।
छपाक में दीपिका पादुकोण के अभिनय को देखकर इस बात का एहसास हो जाता है कि वह एक अच्छी अभिनेत्री के साथ-साथ देश की सच्ची, संवेदनशील और जागरूक नागरिक भी हैं। उन्होंने लक्ष्मी अग्रवाल के इस किरदार को निभाकर समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को बहुत शिद्दत से निभाया है।
फिल्म में दीपिका पादुकोण का एक डॉयलॉग, “एसिड बिकता नहीं, तो फेंकता भी नहीं” निश्चित तौर पर एसिड की खुली बिक्री पर रोक लगाने की बात हेतु कानून और समाज को सोचने पर मजबूर करता है। एक सख्त कानून, जिसका पालन ईमानदारी से हो, यह सुनिश्चित करने की भी ज़रूरत है।
मेरी राय में सिर्फ एसिड की खुली बिक्री पर रोक लगाना ही एकमात्र समाधान नहीं है। रिजेक्शन ना झेल पाने वाली पितृसत्ता की कोख से जन्मी मर्दानगी में भी बदलाव करना बहुत ज़रूरी है। पुरुषों को ना या रिजेक्शन से इतना परहेज़ क्यों है? क्यों रिजेक्शन से उनकी मर्दानगी पर ठेस पहुंचती है? किरण हो या अंजली, उसे ना कहने का पूरा हक है।
साथ ही राहुल को भी समझना पड़ेगा कि सहमति भी ज़रूरी है। पितृसत्ता और उससे जन्मी मर्दानगी को जड़ से खत्म करके हमें भावुक और संवेदनशीलता को सामाजिक रूप से स्वीकार करना चाहिए। तभी महिलाओं के प्रति हिंसा के समाप्त होने पर ही सुंदर और बेहतर सामाज का निर्माण संभव है।