जब संकट पूरी दुनिया पर हो तो हमें स्वार्थी बनकर नहीं सोचना चाहिए। बीते कई सालों से दुनिया जिन तकलीफों से गुज़र रही है, उनमें कार्बन उत्सर्जन का योगदान काफी ज़्यादा है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि इंसानों के आशियाने के ख्वाब ने भी दुनिया की नींद उड़ाई है। जी हां, आप या हम जिन घरों में रह रहे हैं, वे भी कार्बन उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार हैं। आइए इसे विस्तार से समझते हैं।
संक्षेप में कुछ बिंदुओं पर एक नज़र-
इमारतों के निर्माण में मुख्यतः 4 सामग्रियां इस्तेमाल होती हैं-
- सीमेंट
- चूना
- इस्पात
- ईंट
पर्यावरण के लिए कितना और कैसे खतरनाक है सीमेंट
पहले एक नज़र सीमेंट के इतिहास पर
ग्रीक व रोमन सभ्यताओं की इमारतों में सीमेंट के इस्तेमाल का सबसे पहले ज़िक्र मिलता है। विश्व प्रसिद्ध Pantheon (रोम ) इसका जीता जागता सबूत है। सदियों पुराना यह गुम्बद अपने वास्तुशिल्प के लिए आज भी वास्तुकला के स्टूडेंट्स में चर्चित है। इसका व्यास और इसकी आंतरिक संरचना की सामान ऊंचाई है, तकरीबन 142 फीट।
सीमेंट निर्माण की प्रक्रिया कार्बन उत्सर्जन की वजह
सीमेंट निर्माण एक जटिल व महंगी प्रक्रिया है, इसलिए इसके प्रभाव को समझना ज़रूरी हो जाता है। तकरीबन 1400 से 2700 डिग्री सेल्सियस पर भट्टी की आंच में इसका निर्माण होता है, जिससे अथाह गैस निकलती है। ज़ाहिर है इतने ऊंचे तापमान पर पारंपरिक तरीकों से ही पहुंचा जा सकता है, जिनमें कोयला प्रमुख है। सीमेंट निर्माण की इस प्रक्रिया में CO2 का अत्यधिक उत्सर्जन होता है।
सीमेंट के निर्माण में सबसे ज़्यादा घातक तत्व को वास्तुकार व अभियंता ‘क्लिंकर’ के नाम से जानते हैं। इसके लिए चूना पत्थर व चिकनी मिट्टी को पीसकर लोहे के साथ मिलाया जाता है।
चूंकि यह मिश्रण सामान्य तापमान पर पकाया नहीं जा सकता है, इसलिए इसे तकरीबन 1500 डिग्री पर गर्म किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में CaO व CO2 निकलती है। असल में सारी समस्या की जड़ यही है, क्योंकि इसके लिए जीवाश्म ईंधन का प्रयोग किया जाता है। इससे दोहरा नुकसान होता है, सीमित जीवाश्म ईंधन की अंधाधुंध खपत तथा बेहिसाब कार्बन उत्सर्जन। यही कारण है कि दुनिया के तमाम बड़े वास्तुकार वैकल्पिक उपायों की तलाश में हैं।
चीन के बाद सबसे ज़्यादा सीमेंट का निर्माण करता है भारत
दुनियाभर में चीन सीमेंट का सबसे अधिक उत्पादन करता है और इस क्रम में दूसरे नंबर पर भारत है। यह दोनों ही देश सीमेंट निर्माण की प्रक्रिया में CO2 उत्सर्जित करने में पहले और दूसरे स्थान पर हैं।
साल 2016 में, वैश्विक सीमेंट उत्पादन में 2.2 अरब टन CO2 का उत्सर्जन हुआ है, जो वैश्चिक स्तर पर उत्सर्जित होने वाली CO2 का 8% है।
अब सवाल उठता है कि इस नुकसान की भरपाई कैसे की जाए?
जवाब हमें तकनीक व इतिहास दोनों से मिल सकता है। पश्चिम में बायो कंक्रीट व नेवल कंक्रीट पर शोध शुरू हो चुके हैं। इस तकनीक में मॉल्ड्स में रेत डाली जाती है और उसमें माइक्रोऑर्गेनिज़्म्स इंजेक्ट किए जाते हैं। यह मूंगा बनाने जैसी प्रक्रिया को शुरू कर देता है। यह बायो कंक्रटी ईंटों के विकास में खरबों बैक्टीरिया का इस्तेमाल करता है, इसका श्रेय बायो मेसन की सीईओ क्रीज डॉज़ियर को जाता है जो पेशे से स्वयं एक वास्तुकार हैं।
मगर ऐसा लगता है कि बिना सरकारी प्रोत्साहन व राजनीतिक इच्छा शक्ति के यह सब करना अभी आम आदमी के बूते के बाहर की बात है। बढ़ती आबादी और उनके स्थायित्व के मद्देनज़र इसी प्रकार की तकनीकों को सोचा जाना चाहिए। पर्यावरण हितैषी योजनाओं व समाधानों के लिए विकल्पों की तलाश जारी रखनी होगी।
कुल मिलाकर यह एक कछुए की चाल है पर याद रखना होगा कि अंत में जीत निरंतर चलने से ही होती है। हमें सभ्यता को बचाने के लिए वापस प्राचीन निर्माण पद्धति पर लौटना होगा, जिनमें बांस, लकड़ी एवं पत्थरों के सहारे ढांचे बनाये जाते थे। हालांकि ये सुझाव कोई क्रांतिकारी परिवर्तन तो नहीं ला सकता लेकिन बूंद-बूंद से ही घड़ा भरना पड़ेगा।