वर्ष 2005 में एसिड अटैक सर्वाइवर लक्ष्मी अग्रवाल पर बनी फिल्म “छपाक” ने एक बार फिर इस संवेदनशील समस्या पर चर्चा करने को विवश कर दिया है। विडम्बना यह है कि ऐसी घटनाएं रोकने के लिए कानून बनने के बावजूद भारत में ऐसे मामलों पर रोक नहीं लग सकी है।
महिला हिंसा के मामले बढ़ते जा रहे हैं
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) की ताज़ा रिपोर्ट से पता चलता है कि ऐसी घटनाएं कम होने की बजाय लगातार बढ़ी है। पश्चिम बंगाल एसिड हमलों के मामले में पूरे देश में पहले स्थान पर है। वर्ष 2016 में भी बंगाल पहले स्थान पर था। उस साल राज्य में ऐसी 83 घटनाएं हुई थीं।
वर्ष 2017 में ऐसे मामलों में कुछ कमी आई और कुल 54 मामले दर्ज हुए। लेकिन इस साल 53 मामलों के साथ बंगाल ने उत्तर प्रदेश को पीछे छोड़ दिया है । उत्तर प्रदेश में ऐसे 43 मामले दर्ज हुए।
भारत में वर्ष 2014 में 203 एसिड अटैक की घटनाएं हुई थीं जो अगले साल यानी 2015 में बढ़ कर 222 तक पहुंच गई। इसी तरह 2016 में ऐसे 283 मामले दर्ज किए गए थे।
एसिड अटैक के मामले भी कम नहीं
वर्ष 2017 में घटकर 252 और 2018 में ऐसे 228 मामले दर्ज हुए हैं। लेकिन एसिड अटैक सर्वाइवर्स के रेहैबिटेशन के लिए काम करने वाले संगठनों का दावा है कि यह आकड़े असली घटनाओं के मुकाबले बहुत कम है।
इन संगठनों का कहना है कि देश में रोज़ाना एसिड अटैक की औसतन एक घटना होती है। जिनमें कई घटनाएं दर्ज नहीं होती हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि लचर कानून व्यवस्था और अभियुक्तों को सज़ा मिलने की दर बेहद कम होना, ऐसे मामलों पर रोक नहीं लगने का मुख्य कारण है।
एनसीआरबी के आंकड़े इन दलीलों की पुष्टि करते हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2016 में दर्ज ऐसे 203 मामलों में से महज़ 11 में ही अभियुक्तों को सज़ा मिली थी।
ह्यूमन राइट्स लॉ में एसिड अटैक्स के खिलाफ काम करने वाली शाहीन मल्लिक कहती हैं,
समस्या कानून में नहीं, बल्कि उसे लागू करने में है। ऐसे मामले फास्ट ट्रैक अदालतों के पास भेजे जाते हैं। लेकिन वहां भी त्वरित गति से सुनवाई और फैसले नहीं होते।
वे कहती हैं कि हजारों मामले विभिन्न वजहों से सामने ही नहीं आते।
पिछले महीने दिसंबर में मुंबई और मुजफ्फरनगर में एसिड अटैक के मामले सामने आए। एक और मामला बंगलौर का है, जहां कुछ असामाजिक तत्वों ने एक महिला बस कंडक्टर पर एसिड फेंक दिया। ये घटनाएं दिखाती हैं कि सुप्रीम कोर्ट और सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद एसिड अटैक की घटनाएं रुक नहीं रही है।
क्या है कानून?
वर्ष 2013 में लक्ष्मी अग्रवाल की जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी घटनाओं को गंभीर अपराध माना था और सरकार, एसिड विक्रेता और एसिड अटैक्स सर्वाइवर्स के लिए दिशानिर्देश जारी किया था।
सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश के अनुसार एसिड सिर्फ उन दुकानों पर ही बिक सकता है, जिनको इसके लिए पंजीकृत किया गया है, लेकिन कोर्ट के आदेश के बाद भी बाज़ार और दुकानों में खुलेआम धड़ल्ले से एसिड बिक रहे हैं।
उस याचिका पर फैसले के बाद सरकार ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में 326 ए और 326 बी धाराएं जोड़ी थी। इन धाराओं के तहत एसिड अटैक को गैर-जमानती अपराध (non bailable offence) मानते हुए इसके लिए न्यूनतम दस साल की सज़ा का प्रावधान रखा गया था।
सरकार ने वर्ष 2016 में दिव्यांग व्यक्ति अधिकार अधिनियम में संशोधन करते हुए उसमें एसिड अटैक्स सर्वाइवर्स को भी शारीरिक दिव्यांग के तौर पर शामिल करने का प्रावधान किया था। इससे शिक्षा और रोज़गार में उनको 3 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई है।
तमाम कानूनी प्रावधानों के बावजूद एसिड अटैक्स की घटनाओं को ना रोक पाने और एसिड अटैक्स में अभियुक्तों को सज़ा ना दिला पाने के लिए भले ही हम सरकार को दोषी ठहरा सकते हैं लेकिन ऐसे अपराधों के लिए समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता (patriarchal mindset) भी ज़िम्मेदार है और एक समाज के तौर पर हम विफल हैं।