सन 2016 में “भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह, इंशाअल्लाह” जैसे नारे लगने की खबरें मीडिया चैनलों द्वारा प्रचारित-प्रसारित की गईं। आखिर बात भी छोटी नहीं थी। हर सच्चे देशभक्त और हिदुस्तानी का खून खौल उठना जायज़ था।
यदि कोई इस मामले में दूसरे कोण की तलाश हेतु कोशिश कर भी रहा था तो पत्रकार उसे छुपा रहे थे। मानो देशभक्ति को बचाने का सारा जिम्मा पत्रकार और सत्ता में बैठे कुछ नताओं के पास ही हो।
पत्रकार ही पारदर्शिता को संवैधानिक तरीके से दर्शा सकते हैं
इस देश में CBI, IB और RAW जैसी संस्थाएं मौजूद हैं, जो देश-विदेश में बैठे आतंकवादियों को पकड़ सकती हैं। तो क्या अपने देश में बैठे आतंकी को नहीं पकड़ सकती? किसी को बिना किसी प्रमाण के देशद्रोही कह देना अच्छी बात नहीं है। यदि कोई आपकी वीडियो रिकॉर्ड करके उसके कुछ अंश एडिट करके देशद्रोही गतिविधियों से लैस कर दे, तो क्या आप देशद्रोही हो जाएंगे? नहीं ना?
फिर भी वीडियो देखने वाले तो यही समझेंगे कि ऐसी गतिविधि आपने ही की है। अतः सत्य बताने हेतु पारदर्शिता का होना अत्यंत आवश्यक है। बस इसी पारदर्शिता को बनाए रखना ज़रूरी है, जिसे केवल पत्रकार ही अहम भूमिका निभाते हुए लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक तरीके से लोगों तक पहुंचा सकते हैं। किन्तु जब ऐसा करने की बारी थी, तब वे पत्रकारिता भूलकर सिर्फ नाटकीय देशभक्ति और अपने अंदर छिपे नाटकबाज़ को दर्शा रहे थे।
वह सब ऐसे परोसा गया कि आम नागरिकों की नज़रों में JNU एक उग्रवादियों के गढ़ के अलावा जैसे कुछ और है ही नहीं! आज तो किसी को यदि कोई कुछ समझाने की कोशिश करे भी तो समझने की जगह वह समझाने वाले को ही देशद्रोही समझ बैठते हैं।
भगत सिंह खुद लेनिन के विचारों से प्रेरित थे
अक्सर सवाल उठता है कि JNU के विद्यार्थी लेनिन, स्टालिन और मार्क्स जैसे व्यक्तियों को क्यों पढ़ते हैं? क्या उन्होंने हमें आज़ादी दिलवाई? अगर मैं बोलूं कि मैं आपसे सहमत हूं कि इन्होंने ही आज़ादी नहीं दिलवाई, तो शायद आप अपने कथन से खुश हो जाएंगे मगर आपको भी मेरी इस बात से सहमत होना होगा कि आज़ादी की लड़ाई में भगत सिंह की अहम भूमिका रही थी।
अब यदि आप ‘भगत सिंह’ को पढ़ेंगे तो खुद समझ जाएंगे कि लेनिन, स्टालिन और मार्क्स जैसे व्यक्तियों को पढ़ना क्यों ज़रूरी है। संक्षेप में कहूंगा कि ये सभी वही क्रांतिकारी थे, जो अपने-अपने देश में सफलतापूर्वक क्रांति लाए थे। भगत सिंह खुद लेनिन के विचारों से प्रेरित थे।
वैसे तो भगत सिंह का जब नाम लिया जाता है, तब अक्सर नज़रों के सामने एक चित्र खुद-बखुद उभर आता है। गर्व से सीना ताने, पगड़ी पहने एक नौजवान जिसकी आंखों की अद्भुत चमक कह उठती है कि यही तो सच्चा देश भक्त है।
लेकिन क्या भगत सिंह ही केवल एक सच्चे देश भक्त थे? यदि आपका जवाब हां है, तो आपने उनको सिर्फ सुना है। असल में उनको जानने के लिए उन्हें पढ़ना होगा और पढ़ने के साथ-साथ उन्हें समझना भी पड़ेगा।
भगत सिंह एक विचारधारा हैं
भगत सिंह सच्चे देश भक्त, क्रांतिकारी होने के साथ-साथ अपने आप में एक विचार थे। यह सत्य है, क्योंकि भगत सिंह वह विचार थे जो असल मायनों में एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न और धर्मनिरपेक्ष भारत देश बनाने की ताकत रखते थे परन्तु अगर यह सोच वाकई इतनी ही प्रभावशाली है, तो क्यों कोई राजनीतिक दल या कोई बड़ी संस्था इनके विचारों पर बात नहीं करती? आखिर क्यों भगत सिंह को केवल एक आदर्शवादी देश भक्त के रूप में दर्शाया जाता है? जवाब स्पष्ट है, खुद की सत्ता के पतन और धर्म के नाम पर चल रही संस्थाओं पर ताले लगने का डर जो है।
भगत सिंह सिख परिवार में पले-बढे़ जिन्होंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता मार्क्स को भी मगर अधिक लेनिन, त्रोत्स्की व अन्य लोगों को पढ़ा। ये सभी नास्तिक थे। भगत सिंह भी बाद में नास्तिकता की ओर बढ़ते चले गए। आखिर बढ़े भी क्यों ना?
उनका मानना था कि यदि सच में इश्वर है तो अंग्रेज़ों के दिमाग में जनता के प्रति क्यों दया भाव उत्पन नहीं कर पाए? क्यों भारत को आज़ादी पहले ही नहीं मिल गई? कोई इश्वर भला क्यों अपने भक्तों को कष्ट पहुंचाएगा?
कृपया यह ना कहें कि सृष्टि का यही नियम है। यदि ईश्वर किसी नियम से बंधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है। वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है। सच तो यह है कि अंग्रेज़ों ने हुकूमत यहां इसलिए की क्योंकि उनके पास ताकत थी और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं थी।
सत्ता से लेकर पत्रकारिता अपना मूल कर्तव्य भूल गई है
धर्म के कारण हम तब भी एकजुट ना हो सके और ना ही आज इकाई बन सके। गरीबों, किसानों और निचले वर्गों का शोषण तब अंग्रेज़ों ने किया और आज सत्तासीन होती सरकारें करती आई हैं। सत्य तो यह है कि सत्ता के नशे में चूर सरकारें अपना मूल कर्तव्य भूलकर विद्यार्थियों से ही प्रश्न करती आई हैं।
शिक्षा, रोज़गार और विकास की बात के अलावा ये लोग धर्म की राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं। ये सभी लोगों में जागरूकता फैलाने की जगह लोगों में अपनी कौम की संख्या के प्रति चिंता जता रहे हैं।
पत्रकार का फर्ज़ है कि वह सरकार की जुमलेबाज़ी को जानता के सामने लाए। अधिकांश पत्रकार पत्रकारिता को छोड़कर सब कुछ कर रहे हैं लेकिन कुछ पत्रकार अभी ज़िंदा हैं जिनकी वजह से संविधान की गरिमा बची हुई है।
असल में इस बीमारी के शिकार सभी धर्म हैं। जैसा कि भगत सिंह ने बताया था, “अल्पसंख्यक होने के कारण मुस्लिमों ने ज़्यादा ज़ोर दिया। उन्होंने अछूतों को मुसलमान बनाकर अपने बराबर अधिकार देने शुरू कर दिए। इससे हिन्दुओं के अहम को चोट पहुंची। स्पर्धा बढ़ी तो फसाद भी हुए।“
भगत सिंह के विचार ‘हम सब इंसान समान हैं’ पर अमल की ज़रूरत
अगर एक आदमी गरीब मेहतर के घर पैदा हो गया है, तो क्या बस इसलिए जीवन भर वह मैला ही साफ करेगा? तो क्या दुनिया में उसे किसी तरह के विकासित हो सकने का कोई हक नहीं? हमारे पूर्वज आर्यों ने इनके साथ कैसा अन्यायपूर्ण व्यवहार किया? किस प्रकार उन्हें नीच कहकर दुत्कार दिया? यही नहीं, उनसे निम्न कोटि के कार्य करवाए जाने लगे। साथ ही आर्यों में यह भी चिन्ता बनी रही कि कहीं ये विद्रोह ना कर दें और तो और तब पुनर्जन्म के दर्शन का प्रचार कर दिया कि उनका आज पूर्व जन्म के पापों का फल है।
ऐसे जुमलों से बचना होगा। बातें एकता की होनी चाहिए, क्योंकि धर्म सभी के श्रेष्ठ हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि हम सब एक इंसान हैं, इससे ज़्यादा और कुछ नहीं। भगत सिंह के विचार लाजवाब हैं, “यदि धर्म को अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।” इन बातों को लेकर हर नागरिक को समर्थन करना चाहिए।
नागरिक में विद्यार्थी भी हैं
विद्यार्थियों की राजनीति को लेकर भगत सिंह का बहुत सकारात्मक विचार है। उनके अनुसार जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें अक्ल से अंधा बनाने की कोशिश की जा रही है। इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें खुद ही समझ लेना चाहिए। यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है। उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए।
लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना इस शिक्षा प्रणाली में शामिल नहीं है? यदि नहीं, तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं। जो सिर्फ क्लर्क बनने के लिए ही हासिल की जाए। ऐसी शिक्षा की ज़रूरत ही क्या है?
हमें समझना होगा कि सत्ता कभी नहीं चाहेगी कि उससे किसी भी किसी तरह के कोई सवाल पूछे। शायद इसी तार्किक शक्ति को कम करने के लिए किसी विद्यार्थी को राजनीति से दूर करने की कोशिश की जा रही है। शिक्षा का स्तर निरंतर गिराया जा रहा है, क्योंकि जितने शिक्षित हम होंगे उतने सवाल करने वाले होंगे।
सवाल उठाया जाएगा तभी बदलाव आएगा
भगत सिंह सिखाते हैं कि विरोधियों द्वारा रखे गए तर्कों का सामना करने योग्य बनने के लिए अध्ययन करो। अपने मत के पक्ष में तर्क देने के लिए सक्षम होने के वास्ते पढ़ो। इससे पुराने विचार व विश्वास में बढ़ोतरी होगी और रोमांस की जगह गंभीर विचार घर करेंगे। तब सवाल यह उठता है कि क्या इसलिए विद्यार्थियों को राजनीति से दूर किया जा रहा है?