20 दिसंबर की शाम दिल्ली में चल रहे विरोध प्रदर्शन में हम भी शामिल हुए। अभी तक सबकुछ कहा सुना ही था, आज पास से, उनके बीच बैठकर देखा, विरोध का तरीका और विरोध।
जामा मस्जिद के पास से हिंसा की खबर आनी शुरू हो चुकी थी, इसलिए वहां पहुंचने के सारे रास्ते बंद करवा दिए गए थे। वहां जाने की कोशिश जब असफल हुई, तो पता चला कि प्रदर्शन के लिए इंडिया गेट पर लोग इकट्ठा होने वाले हैं। इकट्ठा होने वाले लोगों में सबसे ज़्यादा भीड़ कॉलेज के छात्र-छत्राओं की थी, जो हर तरीके से प्रदर्शन में अपना योगदान और अपने साथियों का साथ देने के लिए वहां मौजूद थे।
हम भी खड़े हुए उस भीड़ में। भीड़ अलग-अलग गुटों में बटकर प्रदर्शन कर रही थी। कुछ लोग जहां इंडिया गेट के ठीक पास नीचे गोल बैठकर क्रांतिकारी गाने गा रहे थे, “ऐसे दस्तूर को, सुबह बेनूर को”, “हम देखेंगे”, “ए भगत सिंह तू ज़िन्दा है”, तो कुछ एक अलग गुट में ज़ोर-ज़ोर से “आज़ादी”, “इंकलाब ज़िंदाबाद” के नारे लगा रहे थे।
कुछ लोग अपना एक गुट बनाकर गोदी मीडिया को भगा रहे थे, “गोदी मीडिया वापस जाओ”। गोदी मीडियो फिर भी वहां से जाने की तैयारी में नहीं थे, बल्कि विद्यार्थियों को उकसा रहे थे, जिससे उन्हें फुटेज मिल जाए।
विद्यार्थियों ने भी सटीक तरीका निकाला, सब नीचे बैठ गएं और “सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा हमारा” गाने लगे, “आओ हमारे साथ चलो” के नारे लगाने लगे। जब कुछ नहीं मिला, तो गोदी मीडिया भाग गई और उस छोटी जीत का विद्यार्थियों ने जश्न भी मनाया। दिल्ली की इस ठंड में शरीर की पूरी ताकत लगाकर चिल्लाना, प्रदर्शन करना आसान काम नहीं है।
फिर धीरे-धीरे ये गुट एक होने लगे। सब एक साथ आकर नारेबाज़ी करने लगे। ये सब चल ही रहा था कि बीच में अचानक खलबली मच गई, बहुत सारे कैमरा एक जगह पर जमा होने लगे, पता चला प्रियंका गॉंधी आई हैं। बहुत कम ही लोग थे, जो प्रियंका गॉंधी के पास गए, सब अपनी नारेबाज़ी में मशगूल थे। शरीर की पूरी ताकत लगाकर नारेबाज़ी शुरू थी। वहां कई विद्यार्थियों के पास से हमें सुनने को मिला,
“हम किसी पार्टी के नहीं हैं, उधर नहीं जाना है।”
“ये हमारा आंदोलन है, अब इनके आने से ध्यान भटक जाएगा।”
“ये आकर करेगी भी क्या, बस कैमरा पर आकर बोल देगी हमें खेद है।”
“हमारा प्रदर्शन खराब करने क्यों आ गए, अब हमारे प्रदर्शन को नहीं, इन्हें चैनलों पर जगह मिलेगी।”
कुल मिलाकर वहां विद्यार्थी अपनी आवाज़ पहुंचाने के मकसद से साथ आए थे और उस मकसद से वे जुड़े हुए भी थे। विद्यार्थियों के अलावा शायद उनके कुछ प्रोफेसर्स थे, क्योंकि वे काफी बुज़ुर्ग लग रहे थे, तो ऐसा लगा। समर्थन में कुछ पढ़े-लिखे लोग भी दिखे और फिर कुछ लोग ऐसे भी दिखे, जो बस मस्ती करने आए थे।
अब इस पूरे विरोध में ना तो कहीं ऐसा लगा कि इन्हें किसी पर पत्थर बरसाने का इरादा है, या कहीं आग लगाने का। बड़े होश में रहकर और समझदारी से विरोध चल रहा था। समझदारी इसलिए भी कि भीड़ को बेकाबू ना होने देने की ज़िममेदारी भी वे बखूबी निभा रहे थे।
उस विरोध को देखकर कहीं नहीं लग रहा था कि ये किसी पर पत्थरबाज़ी कर सकते हैं या इतनी हिम्मत जुटा सकते हैं कि किसी बस में आग लगा दी हो। अगर ये लोग ये सब नहीं कर सकते हैं, तो फिर ये सब कर कौन रहा है? जो विद्यार्थी विरोध कर रहे थे अगर कोई गलत नारा देने की कोशिश करता तो उसे भी चुप करवा देते, “हमें अपना विरोध खराब नहीं करना है”।
जब विरोध कर रहे लोग अपने मकसद को किसी तरह से नाकाम नहीं करना चाहते थे फिर ये कौन लोग हैं, जिन्होंने हिंसा भड़काई? क्या ये सही में कॉलेज स्टूडेंट्स थे? जब स्टूडेंट्स साफ हैं कि हम कोई राजकीय पक्ष के नहीं या किसी राजकीय पक्ष से प्रेरित नहीं, फिर कौन हैं जो कह रहे हैं, इन्हें प्रेरित किया जा रहा है?
एक और मुद्दा जो Youth Ki Awaaz Summit में ट्रांसजेंडर कम्युनिटी ने उठाया, वह यह कि थर्ड जेंडर को एक्ट में कहां शामिल किया गया है, उनके हक का क्या? उनके खुद के माता-पिता उन्हें घर आने नहीं देते, तो वे क्या दस्तावेज़ दिखाएंगे?
सवाल कई हैं, जवाब का पता नहीं।