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रेप सर्वाइवर के लिए कानूनी न्याय के साथ सामाजिक न्याय भी ज़रूरी है

फिर सब लोगों में आक्रोश उमड़ा, फिर कुछ मोमबत्तियां जलाई गईं, रैलियां निकाली गईं। फिर सोशल मीडिया की आड़ में लोगों ने खूब खेद जताया। नुक्कड़ों और अन्य जगह बैठे-खड़े लोगों को नया मुद्दा मिल गया। मीडिया को भी मिल गई ब्रेकिंग न्यूज़। फांसी और उससे भी यदि कोई अधिक सज़ा हो सके, तो दी जाने की मांग, सख्त कानून, प्रशासन और सरकार की खामियां भी अब सबको फिर से दिखने लगीं।

मगर कुछ सवाल हैं, जिनके उत्तर की उम्मीद मैं अपने तथाकथित सभ्य समाज से करके शायद बेवकूफी ही कर रही हूं। जब हम सब इतने संवेदनशील हैं तो भी क्यों नहीं थमी ऐसी घटनाएं? जब हम सब इन सबसे इतने आक्रोशित हैं, तो अपराधी आते कहां से हैं? ऐसा कौन सा कानून बनाया जाए कि अपराधी को कड़ी सज़ा ही नहीं हो बल्कि और अपराधों को भी रोका जा सके?

सब अपराध हो जाने के बाद ही क्यों जागते हैं?

फोटो प्रतीकात्मक हैं।

क्या यदि उसको जलाया नहीं जाता, तो भी हमारी प्रतिक्रिया ऐसी ही होती? तब शायद हममें से कुछ उसके कपड़ों, वर्किंग वुमन होने पर, अनजानों से हेल्प लेने को लेकर ज़रूर ही सवाल उठाते, जैसे अभी भी कुछ लोग कह रहे हैं कि उसे पुलिस को कॉल करना था ना कि बहन को।

क्या ऐसी वारदातें घर, मोहल्ले, शैक्षणिक संस्थानों और कार्य स्थलों में नहीं होती हैं? क्या हर व्यक्ति ना का मतलब सिर्फ ना समझता है?  आपको पता है ना कि बलात्कार उस इंसान की उम्मीदों, आत्मविश्वास और कई स्तरों पर हमला करता है। कितनी सर्वाइवर तो आवाज़ भी नहीं उठा पाती हैं।

मैं खुद सेक्सुअल हैरासमेंट की घटना के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा पाई

मेरे साथ खुद सेक्सुअल हैरासमेंट की घटना हुई है। क्लास 8th के दौरान एक टीचर ने मेरे साथ ऐसा किया गया था। इस घटना की बात मैं मन में कहीं अंदर छुपाए हुए हूं। आज से पहले ये सब कहने तक की ताकत नहीं जुटा पाई। उस घटना के बारे में जब-जब याद आता है, घुटन सी होने लगती है। ना जाने मेरे जैसी और कितनी लड़कियां हैं।

खैर, जिनके साथ ये सब होता है, उन्हें न्याय देने की ताकत तो किसी भी कोर्ट में नहीं है, क्योंकि चाहे जितनी भी सज़ा दी जाए, वो सज़ा सब कुछ पहले जैसा तो नहीं कर सकती है। हमारे समाज में तो कई बार दोषी को सज़ा हो जाने के बाद भी सर्वाइवर को बेचारगी और गलत नज़रों से देखा जाता है।

आखिर हम ही तो करते हैं ना यह दोगला व्यवहार? तो क्या हम भी दोषी नहीं है उनके?

फोटो प्रतीकात्मक है।

राम-राज्य की बात करने वाले यह नहीं भूल सकते कि सीता को ही अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी। आखिर क्यों? शायद अच्छा होता यदि भगवान श्री राम ने प्रजा के कहने पर अग्नि परीक्षा से इंकार करके, प्रजा के मुंह अपने विश्वास के दम पर बन्द कराए होते। तो शायद आज भी समाज में दोगले लोग ना होते।

आखिर क्यों समाज में पर्दा प्रथा है, क्यों नज़रों का कायदा नहीं समझते लोग? सिर्फ मैं पुरुषों को दोष नहीं दे रही, वे महिलाएं भी कम दोषी नहीं हैं, जो दोषियों के प्रति सहानुभूति रखती हैं और उन्हें बचाने का प्रयास करती हैं।

हर एक इंसान दोषी है जो अपना कर्तव्य नहीं निभाता, जो अपने आसपास की गतिविधियों पर अपने दोस्तों के विचारों पर सवाल नहीं उठाता।
ऐसे लोग भी सोशल मीडिया पर विचार शेयर कर रहे होंगे, जो अपने आसपास भद्दे कमेंट, ईव टीजिंग को रोक नहीं सकते और हां जो खुद भी ऐसे काम करते हैं।

इस घिनौनी मानसिकता को समझने की ज़रूरत

क्यों लोग सज़ा बढ़ाने के अलावा, ऐसे अपराधियों की विकृत मानसिकता का अध्ययन करने और इसी आधार पर शिक्षा और जागरूकता करने के लिए कुछ नहीं सोचते हैं? कितने परिवारों में अब भी अपने बच्चों को बैठाकर इन सबके बारे बात की गई होगी? क्यों जब शिक्षा और जागरूकता की बात आती है तो ये विषय आवश्यक ना होकर शर्म के विषय जान पड़ते हैं?

किस तरह की फिल्मों का क्या प्रभाव पड़ रहा है ये सब भी क्या जानने की ज़रूरत है, किसी को महसूस नहीं होती? सरकार को क्या खुद बहुत निचले स्तर पर काउंसलिंग के सेंटर नहीं बनाने चाहिए? हमेशा से हमारे ही अधिकारों का क्यों अतिक्रमण होता आया है? घर से बाहर जाने पर हमारा समय ही क्यों निश्चित होता है? गर्ल्स हॉस्टल की ही टाइम क्यों निश्चित की जाती है? हमें ही बस क्यों तथाकथित संस्कारी बनाया जाता है?

इतना ही नहीं अधिकारों का अतिक्रमण हो जाने के बाद फिर हमें नारी सशक्तिकरण के बारे बताकर कुछ नए अधिकार भी थमाए जाते हैं। मतलब कच्ची नींव पर बड़ी इमारत बनाने की सुंदर कल्पना? क्या सुरक्षित रहना है तो हमें अपने अधिकार त्यागने ही होंगे? तो जब अपराधी को सज़ा देने की बात आती है, फिर उनके अधिकार क्यों इतने ज़रूरी हो जाते हैं? अब तो वे लोग भी संविधान को ढाल के रूप में पेश करने से नहीं बचेंगे, जो खुद लोकतंत्र का गला घोट चुके हैं।

क्यों उनको भी इन्हीं मुद्दों पर अपनी महानता दिखानी है? क्या यह मुद्दा धर्म के मुद्दे से बड़ा नहीं है? फिर क्यों लोग हिंदू मुस्लिम के जाल में फंस जाते हैं? मैं यह नहीं कह रही कि सभी लोग बुरे हैं या सभी की परवरिश बुरी हुई है पर मैं बस यह जानना चाहती हूं कि मुझे पता कैसे लगेगा कि कौन असलियत में इंसान है और कौन बहरूपिया?

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