नागरिकता संशोधन विधेयक पर लोगों के मत अलग-अलग हो सकते हैं। लोकतंत्र है, यह होना वाज़िब है। एक वर्ग समर्थन में पटाखे जला सकता है, तो वहीं दूसरी ओर लोग विरोध दर्ज कराते हुए आंदोलन की राह अख्तियार कर सकते हैं।
आंदोलन को मैं कभी गलत नहीं मानता हूं। स्वस्थ लोकतंत्र की रीढ़ है आंदोलन। यदि आप चाहते हैं कि लोकतंत्र जीवित रहे, तो आंदोलन होते रहने चाहिए। आंदोलन समाज की एक नई पटकथा लिखते हैं, यह तो भविष्य तय करता है कि आंदोलन कितना सफल रहा और कितना नहीं।
जामिया विश्वविद्यालय में स्टूडेंट्स के ऊपर लाठीचार्ज
आज हालिया तस्वीर जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की मेरे पास तक पहुंची है। जामिया में हो रहे लाठीचार्ज व दागे गए आंसू गैस के गोलों का मैं समर्थन नहीं कर सकता हूं। मुझे वास्ता इस विषय से बिल्कुल नहीं है कि वे नागरिकता कानून 2019 के विपक्ष में थे या समर्थन में। मुझे इस विषय से भी मतलब नहीं है कि आंदोलन किसके द्वारा प्रायोजित था, मुझे ताल्लुक इस विषय से अवश्य है कि एक विश्वविद्यालय के अंदर आंसू गैस के गोले दागे गए हैं।
हम इस स्तर पर उतर आए हैं कि स्टूडेंट्स के विरोध को दबाने के लिए उन तरीकों को स्वीकारेंगे, जो दंगाइयों के लिए अपनाए जाते हैं। आखिर हम विश्वविद्यालय को किस ओर ले जा रहे हैं।
जब मैं कॉलेज में पढ़ा करता था-
याद है मुझे मैं स्नातक में जब अपने कॉलेज में पढ़ा करता था, तो एक सूक्ष्म विवाद स्टूडेंट्स के मध्य हुआ था। विवाद इस स्तर तक बढ़ा कि भगदड़ की स्थिति उत्पन्न हो सकती थी परन्तु महाविद्यालय प्राचार्य ने स्वयं मोर्चा संभालते हुए पुलिस प्रशासन को कॉलेज के अंदर घुसने की अनुमति नहीं दी।
उनका कहना था कि यह महाविद्यालय हमारा है और ये स्टूडेंट्स हमारे हैं, इनको सही मार्ग पर लाना हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी है। हम इनसे बैठकर चर्चा करेंगे और उसका निवारण कर ही लेंगे परन्तु आपका हस्तक्षेप महाविद्यालय के इतिहास में एक ऐसी कालिख पोत जाएगा, जिस पर आने वाला भविष्य यह कहेगा कि मैं अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन सही तरीके से नहीं कर सका। अंततः दो समुदायों से वार्ता करके निष्कर्ष से प्रशासन को अवगत करा दिया गया।
जामिया में लाठीचार्ज एक काला अध्याय
आज जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में हुए लाठीचार्ज व आंसू गैस के गोलों का दागा जाना भी विश्वविद्यालय के इतिहास में वह काला अध्याय है, जिसे हर कोई भुला देना चाहेगा। स्टूडेंट्स के प्रति ऐसा रवैया अत्यंत घृणित है।
याद है इंदिरा गॉंधी ने भी स्टूडेंट्स के आंदोलन के प्रति ऐसा ही रुख अख्तियार किया था, जिसके परिणाम में जयप्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान करते हुए पूरे भारत में क्रांति की लौ जला दी थी। उस क्रांति से ही निकले थे लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, राम विलास पासवान, मुलायम सिंह जैसे नेता, जिन्होंने भविष्य की राजनीति में अपना लोहा मनवाया है।
लाठियां कभी स्वस्थ लोकतंत्र में किसी सरकार की सफलता का पैमाना नहीं हो सकती हैं। लाठियां या तो सरकार गिरा देती हैं या लंबे वक्त के लिए दफन कर देती हैं। मैं स्टूडेंट्स पर हुए अत्याचार का समर्थन किसी भी स्तर से नहीं कर सकता हूं, भले ही समाज के लोग मुझे गद्दार कहें या देशद्रोही कहें। मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।
मैं जामिया के उन स्टूडेंट्स के हित में आवाज़ उठाऊंगा, जो सरकार के समक्ष अपने विचार रख रहे हैं। यह अलग विषय है कि सरकार उनसे सहमत है या असहमत परन्तु अत्याचार गलत है।
स्टूडेंट्स पर लाठियों की चीखें, संसद की दीवारों पर भी चस्पा होती हैं। वे उन कानों को बहरा कर देने के लिए काफी हैं, जो सत्ता के नशे में मगरूर हैं। स्टूेंड्टस पर लाठियां चले और तालियां पीटी जाएं, अभी मेरा खून पानी नहीं हुआ है। मैं बोलूंगा, आप बोले या नहीं।
तात्कालिक लोगों का विरोध या समर्थन ही आंदोलन को जन्म देता है। आंदोलन को दबाना कोई नई रीति नहीं है, यह एक पुरानी परंपरा रही है। आंदोलन सदैव सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध ही होते हैं, अतः उनको दबाया जाना भी लाज़िमी है।