प्यारे नौजवान साथियों,
आज हमारा प्यारा मुल्क बहुत ही नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है। पूरे देश में अफरा-तफरी का माहौल बना हुआ है। एक चिंगारी से पूरा मुल्क जलने के लिए तैयार बैठा है। देश का बहुसंख्यक हिन्दू, अल्पसंख्यक मुस्लिम को शक की नज़र से देख रहा है।
अल्पसंख्यक मुस्लिम डर के साये में जीने पर मजबूर है। मुल्क के ये हालात सत्ता द्वारा लोगों को धर्म-जाति-क्षेत्र के नाम पर बांटने की नीति अपनाने की वजह से बने हुए हैं। फासीवादी विचारधारा हमारी साझी विरासत को तहस-नहस करने की लिए प्रयासरत है। अनुच्छेद 370 का खात्मा, CAA और NRC जैसे कानून “इसी फुट डालो-राज करो” नीति का हिस्सा है।
सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ प्रगतिशील जनता सड़कों पर धरना-प्रदर्शन कर रही है। देश के स्टूडेंट्स सत्ता के जु़ुल्म सहते हुए ललकार रहे हैं। इसके विपरीत सत्ता द्वारा तैयार की गई अंधभक्तों की एक बड़ी फौज सत्ता के इशारे पर जन विरोधी फैसलों के पक्ष में धरना प्रदर्शन कर रही है।
वहीं, ये फौज उन लोगों पर या प्रदर्शनों पर हमले भी कर रही है, जो सत्ता के खिलाफ बोलने के लिए मुंह खोल रहे हैं। ये अंधी फौज सत्ता के इशारे पर तोड़-फोड़ भी कर रही है।
नफरत फैलाने वाले अंधभक्त
जिन नौजवानों को देश की समस्याओं पर लड़ना चाहिए, मज़दूर की मेहनत, किसान की किसानी, अच्छी और मुफ्त शिक्षा-स्वास्थ्य, रोज़गार के लिए लड़ना चाहिए, हमारे पूर्वजों द्वारा अर्जित की गई सार्वजनिक उपक्रमो व जल-जंगल-ज़मीन-पहाड़ को बचाने के लिए लुटेरी कॉरपोरेट जमात और सत्ता के खिलाफ लड़ना चाहिए, वे इन मुद्दों के खिलाफ सत्ता के लिए अंधभक्तों की फौज में शामिल हैं।
मज़दूरों के लिए संकट का समय
देश का किसान जो लंबे समय से खेती के घाटे में रहने से आत्महत्या कर रहा था, उसकी आत्महत्या की रफ्तार कछुए से खरगोश हो गई है। फसल पर लागत मूल्य बढ़ रहा है। जबकि फसल के दाम बढ़ने की बजाए कम हो रहे हैं। किसान का प्याज़ एक रुपये में दो किलो, आलू एक रुपये में चार किलो बिकता है लेकिन बाज़ार में मंहगा आलू-प्याज़ सबको रुलाता रहता है।
देश का प्राइवेट संगठित क्षेत्र का मज़दूर जो अपने आपको मज़दूर नहीं, बल्कि कर्मचारी कहलवाना पसंद करता था, जिसको महीने में एक तयशुदा वेतन मिलती थी, साल में बोनस दिया जाता था, उसको लग रहा था कि उसकी ज़िंदगी तो अच्छे से गुज़र जाएगी मगर समस्याएं उनके लिए भी उत्पन्न हुई हैं। पक्का, कच्चा, ठेके का मज़दूर जो संघर्ष कर रहा था मगर हालत इतने खराब नहीं थे जितने 2014 के बाद राम राज्य आने के बाद हुए। इस दौरान लाखों की तादात में मज़दूरों की नौकरी गई है।
सरकारी कर्मचारी तो अपने आपको कर्मचारी भी कहलवाना पसंद नहीं करते थे। वे तो खुद को सरकार समझ रहे थे। आज की तारीख में छटनी के डर से सहमें हुए हैं।इसके विपरीत असंगठित क्षेत्र का मज़दूर जो सुबह चौक पर खड़ा होकर अपने श्रम की बोली लगवाता है, जिसकी हालात दयनीय थी। जिसको कभी किसी ने इंसान ही नहीं माना, उसके हालात और भी ज़्यादा गर्त में गए हैं। रोटी-कपड़ा-मकान, शिक्षा-स्वास्थ्य अब सपनों में भी नहीं मिलता है।
इसके साथ ही एक नया मज़दूर उभरा है जो पढ़ा-लिखा है। जो महानगरों में उबेर-ओला में अपनी गाड़ी लगाए हुए है या स्विगी-जोमैटो में डिलीवरी बॉय का काम करके सरकार व कंपनी के हाथों शोषित हो रहे हैं। 14 से 16 घंटे काम करने के बाद भी हालात यहां खड़े हैं कि उन्हें महीने के दस हज़ार भी नहीं बचते हैं। ना कोई छुट्टी, ना कोई आराम।
इसके बाद भी ये नौजवान अपने हक, अपनी मेहनत को लूटने वाली कंपनी व सरकार के खिलाफ लड़ने की बजाए सत्ता का हथियार बन सुबह-शाम मुल्क के अल्पसंख्यक मुस्लिमों, कश्मीरियों या पाकिस्तान को गाली देकर उनको अपना दुश्मन मानकर खुश हो लेता है। जैसे उनके बुरे दिनों के लिए सत्ता नहीं, अल्पसंख्य मुस्लिम, कश्मीरी या मुस्लिम ही ज़िम्मेदार है।
मध्यम वर्ग जिसमें छोटा पूंजीपति, दुकानदार, IT सेक्टर में काम करने वाला मज़दूर, उच्च सरकारी कर्मचारी जो 2014 में मोदी सरकार को लाने में अहम भूमिका में था, जो अंधभक्त बनने की पहली कतारों में शामिल था, उसकी आंखों से अंधभक्ति का चश्मा ज़रूर उतर गया है। वह खुलकर तो नहीं लेकिन दबी ज़ुबान सत्ता की जनविरोधी नीतियों खासकर अर्धव्यवस्था की मौत पर ज़रूर खिलाफत करने लगा है।
2014 के वादे याद हैं ना?
देश के नौजवानों को 2014 का चुनावी शंखनाद याद करना चाहिए। जनता जो काँग्रेस की मंहगाई, कुशासन और भ्रष्टाचार से दुखी थी। पूरे देश में उनके खिलाफ लोग सड़कों पर थे। देश के आवाम की भावनाओ को भांपकर फासीवादी भाजपा और उसके नेता नरेंद्र मोदी ने जनता को वादा किया-
- हमारी सरकार आते ही सबसे पहली मीटिंग में पहला काम देश के अन्नदाता का कर्ज़ माफ किया जाएगा।
- फसल का दाम दोगुना किया जाएगा व लागत मूल्य घटाया जाएगा
- प्रत्येक साल 2 करोड़ रोज़गार नौजवानों को दिए जाएंगे।
- सबका साथ-सबका विकास और अच्छे दिन जैसे लोक लुभावन वादे किए गए।
- दूसरा सबसे बड़ा वादा काला धन वापिस लाने का किया गया। काला धन जिसको बाबा रामदेव ने लाखों करोड़ बताया। वादा किया गया कि सरकार बनने के 100 दिन के अंदर काला धन वापिस आ जाएगा। वापिस आते ही प्रत्येक भारतीय के हिस्से में 15-15 लाख आएंगे।
इन्ही कल्पनाओं में खोए-खोए मुल्क के आवाम ने देश की गद्दी पर फासीवादी पार्टी को प्रचंड बहुमत से बैठा दिया। सरकार बन गई और राजा गद्दी पर बैठ गया। जब मुल्क के अलग-अलग हिस्सों से किसान कर्ज़माफी की आवाज़ उठने लगी तो सरकार द्वारा बनाई गई अंधभक्तों की फौज ने बोला,
15 लाख मिल जाएंगे तो कर्ज़ माफी का क्या करोगे? बस 15 लाख आने वाले ही हैं।
जब रोज़गार की मांग की गई तो हमारे राम राज्य के सत्तासीन राजा नरेंद्र मोदी ने कहा,
सड़क पर रेहड़ी लगाकर पकौड़े बेचना भी एक बड़ा रोज़गार है। देश के नौजवानों को पकौड़े भी बेचने चाहिए।
जब काला धन लाने का क्या रहा पूछा तो बोला गया,
देशद्रोहियों से निपट लें उसके बाद आ जाएगा।
लोग अच्छे दिनों की बात कर ही रहे थे तभी एक रात साहब टेलीविज़न पर अवतरित हुए और बड़े ही क्रांतिकारी अंदाज़ में नोटबंदी की घोषणा कर दी। साहब ने बोला,
यह कालाधन लाने की पहली सीढ़ी है। लुटेरे पूंजीपतियों और उनके साझेदार नेताओं ने जो काला धन मुल्क में ही छुपाया हुआ है, वे इस नोटबंदी से बाहर आ जाएंगे।
साहब बोले जा रहे थे और लोग सुन रहे थे। साहब बोल रहे थे कि मेरे मुल्क के मेहनतकश 80 प्रतिशत आवाम को डरने की ज़रूरत नहीं है। इस फैसले से 20 प्रतिशत लुटेरे को डरना चाहिए। देश के आवाम को देश हित में ये कड़वी दवा पीनी पड़ेगी ताकि हमारे मुल्क का भविष्य उज्वल हो सके। अगले दिन से बैंकों के आगे लंबी-लंबी लाइनें लग गईं। लाइनों में लगे लोग खुश थे। आपस मे खुसर-फुसर कर रहे थे कि अब लुटेरों को नानी याद आ जाएगी।
दिन बीते, महीने बीते बीत गए और 5 साल भी गुज़र गए लेकिन लुटेरे पूंजीपतियों को नानी याद नहीं आई। नानी याद देश के बहुमत 80 प्रतिशत आवाम को ज़रूर आ गई। कई लोग लाइनों में खड़े-खड़े स्वर्ग को प्रस्थान कर गए। कितनी लड़कियों की शादियां रुक गईं। देश की अर्थव्यवस्था कॉमें में चली गई। देश के अंदर छोटी-बड़ी लाखों फैक्ट्रियां बंद हो गईं।
लाखों लोग बेरोज़गार हो गए। लोगों के एक तबके ने सरकार के खिलाफ बोलना शुरू किया तो सत्ता द्वारा बनाई गई नौजवानों की अंधभक्त फौज लोगों के खिलाफ ही प्रचार करने लगी।
तमिलनाडु के किसानों ने दिल्ली आकर नंगा होकर प्रदर्शन किया या लाखों की तादात में देश के अलग-अलग हिस्सों से किसान-मज़दूर दिल्ली आकर प्रदर्शन कर रहे थे। उसी समय अंधभक्तों की भीड़ सोशल मीडिया, मीडिया से लेकर सार्वजनिक जगहों, क्लबो में सक्रिय होकर इन आंदोलनों को बदनाम करने के लिए सभी तरीके अपना रही थी। आंदोलनकारियों को देशद्रोही, अर्बन नक्सल और पाकिस्तान परस्त बोला जा रहा था।
चुनावी वादे के सवाल पर जनता को देशद्रोही बताया रहा है
इसके विपरीत सत्ता द्वारा देश के बड़े से बड़े कॉरपोरेट को लाखों करोड़ रुपये डकारकर फरार करवाया गया ताकि भविष्य में उनसे चुनावी खर्च लिया जा सके। नोटबंदी के बाद जीएसटी जिसने भारत की कॉमें में जा चुकी अर्थव्यवस्था का गला रेतने का काम किया।
भारतीय सत्ता जो फासीवादी विचारधारा से लैस होकर संविधान के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को ध्वस्त करने के लिए CAA और NRC जैसे काले कानून लागू कर रहा है। भारतीय संविधान द्वारा कश्मीर को अनुच्छेद 370 के अंतर्गत दिया गया विशेष दर्ज़ा गैर लोकतांत्रिक तरीके से हटाया जाना, आदिवासियों के सवैधानिक अधिकारों का हनन या नॉर्थ ईस्ट स्टेट के अधिकारों को कुचलना भविष्य में मुल्क को गृह युद्ध की तरफ धकेल रहा है।
सत्ता लोगों को लड़ाकर पिछले दरवाज़े से जल-जंगल-ज़मीन-पहाड़ व सार्वजनिक उपक्रमों को कॉरपोरेट को नमक के भाव में देना चाहती है लेकिन देश का बहुमत नौजवान अब भी मोदी और मोदी के राम राज्य की जय जयकार कर रहा है।
नौजवान साथियों, क्या इस बुरे दौर में जब देश के हालात बेहद नाज़ुक हैं, उस समय देश के नौजवानों को जनता की जन समस्याओं पर लड़ने की बजाए क्या जनता के खिलाफ लड़ना चाहिए? सत्ता की जन विरोधी नीतियों का विरोध करने की बजाए क्या सत्ता के सामने नतमस्तक हो जाना चाहिए?
आज मुल्क के नौजवानों के सामने दो रास्ते हैं। पहला,
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का रास्ता जिसने 23 साल की उम्र में देश के क्रांतिकारी आंदोलन को एक नई दिशा दी। मेहनतकश आवाम की समाजवादी सत्ता की बात की, धर्मनिरपेक्ष देश की बात की, धर्म-इलाका-जाति के नाम पर एक इंसान दूसरे इंसान का शोषण ना करे, आज़ाद मुल्क में सबको शिक्षा-स्वास्थ्य मिले व सामंती और साम्राज्यवादी शक्तियों का विनाश हो। जिसने अंग्रेज़ी साम्रज्यवाद की आंखों में आंखें डालकर ललकारा, जिसने फांसी को हंसते-हंसते गले लगाया।
दूसरा,
धर्मनिरेपक्षता विरोधी विनायक दामोदर सावरकर का रास्ता है, जिसने सज़ा मिलते ही अंग्रेज़ सरकार के आगे घुटने टेक दिए। जिसने अपनी अंतिम सांस तक सामंती और साम्राज्यवादी सत्ता के लिए काम किया। जिसने बराबरी व धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा के विपरीत असमानता पर आधारित धार्मिक राज्य बनाने के लिए काम किया।