झारखंड विधानसभा चुनाव के सभी 81 सीटों के परिणाम घोषित हो चुके हैं। झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM), काँग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल (RJD) गठबंधन के हिस्से 47 सीटें आई हैं। अपार बहुमत के साथ हेमन्त सोरेन का मुख्यमंत्री बनना तय हो गया है।
जबकि बीजेपी को 25 सीटों पर जीत मिली है। आजसू के खाते में 2 सीटें हैं। वहीं, झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बाबुलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा (JVM) को तीन सीटों में सफलता मिली है।
आखिर क्यों झारखंड में बीजेपी को हुआ घाटा?
एक राज्य को चलाने के लिए जितनी योजनाएं हो सकती हैं, उन्हें कागज़ पर तो उतार दिया गया मगर ज़मीनी स्तर पर वे ढंग से लागू नहीं हुए। झारखंड मोमेंटम का आयोजन राज्य के कई जगहों पर कराया गया, जहां बड़े-बड़े इन्वेस्टर्स दिखाई पड़े मगर वास्तव में इसका फायदा नहीं दिखाई पड़ा। झारखंड मोमेंटम को आयोजित कराने में बीजेपी ने करोड़ों रुपये फूंक दिए लेकिन ज़मीनी स्तर पर इसका कोई असर नहीं दिखाई पड़ रहा है।
झारखंड में लगातार मॉब लिंचिंग और भूख से मौत की घटनाएं सुर्खियों में रही हैं, जो एक बड़ी वजह है कि इन्वेस्टर्स ने राज्य में दिलचस्पी नहीं दिखाई। ज़मीन का मुद्दा हमेशा से झारखंड में विवादित रहा है, जिसके कारण भी तमाम इन्वेस्टर्स को कहीं ना कहीं राज्य में पैसा लगाने में मुश्किलें दिखाई पड़ीं।
झारखंड में लोगों को खासतौर पर यह तकलीफ है कि सरकार ने रोज़गार के नाम पर करोड़ों रुपये फूंक दिए मगर जनता को बताया नहीं कि क्या वास्तव में इसका कोई फायदा हुआ या नहीं? एक और बड़ी बात यह है कि झारखंड के गोड्डा में अडानी पावर प्लांट लगाने के लिए सरकार ने ना जाने कितने गरीब आदिवासियों की ज़मीने छीन लीं। कहीं ना कहीं इन चीज़ों का खामियाज़ा बीजेपी को भुगतना पड़ रहा है।
पत्थलगड़ी का आंदोलन भी इसी गुस्से का प्रतीक है, जो खूंटी में साफतौर पर दिखाई पड़ा। धीरे-धीरे ग्रामीणों में यह डर फैलता गया कि सरकार कहीं हमारी ज़मीनें भी ना छीन लें। ऐसे में आदिवासी समुदाय के लोगों ने तय कर लिया कि अब हमलोग अपना दूसरा विकल्प तैयार करेंगे।
आदिवासियों में अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य तो दूर की बात है, उन्हें भोजन ही नसीब नहीं होता है। समय-समय पर हमने झारखंड में भूख के कारण मौत की खबरें सुनी हैं। ग्रामीण इलाकों की बात की जाए तो आधार की वजह से लोगों को सही तरीके से राशन तक नहीं दिया जाता था। यही हालत मनरेगा की भी रही है जिसमें रोज़गार के नाम पर मज़दूरों को सिर्फ ठगा गया।
मेडिकल कॉलेज की बात की जाए तो झारखंड में आज भी केवल तीन ही मेडिकल कॉलेज हैं। कई जगहों पर मेडिकल कॉलेज के प्रस्ताव आज भी फाइलों में धूल फांक रहे हैं। कई मेडिकल कॉलेज तो बनकर तैयार हैं मगर उन्हें सही तरीके से चलाया नहीं गया। इस तरह से स्टूडेंट्स में भी नाराज़गी बनी।
नागरिकता कानून और एनआरसी का कितना असर पड़ा?
झारखंड में कई मुस्लिम बाहुल्य इलाकें हैं, जहां कहीं ना कहीं मुसलमानों में एनआरसी को लेकर एक भय का माहौल था। यह एक बड़ी वजह है कि मुसलमानों ने पूरी तरह से भाजपा को नकार दिया जिसका उन्हें नुकसान उठाना पड़ रहा है। इसी के साथ दलितों का वोट भी भाजपा के हिस्से में नहीं गया है।
2014 लोकसभा चुनाव की बात की जाए तो देशभर से बड़े पैमाने पर मुसलमानों ने मोदी पर भरोसा जताया था मगर झारखंड विधानसभा चुनाव परिणाम से ना सिर्फ यह साफ है कि मुसलमानों ने बीजेपी को नकार दिया है, बल्कि यह संदेश भी दिया है कि मज़हब के आधार पर देश को बांटने वाली पार्टी के लिए लोकतंत्र में कोई जगह नहीं है।
झारखंड मुक्ति मोर्चा गठबंधन को फायदा क्यों हुआ?
झारखंड की शहरी हिन्दू आबादी की बात की जाए तो इसमें कोई दो राय नहीं है कि हर स्थिति में उनका वोट भाजपा के लिए आरक्षित होता है मगर आदिवासी, दलित और मुसलमानों ने देश और राज्य में जिस तरह की चीज़ें देखी हैं, उसके हिसाब से अपने मत का प्रयोग किया है।
झारखंड में जनता के पास कोई विकल्प भी नहीं था, क्योंकि हेमन्त सोरेन पहले भी झारखंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और उनके कार्यकाल में यह भी नहीं कहा जा सकता है कि कोई बेहद ही कल्याणकारी योजनाएं लागू की गई हों।
यह स्पष्ट है कि बीजेपी जितनी भी सीटें लेकर आती हैं, उनमें अधिकांश शहरी वोट होंगे। अब देखना दिलचस्प यह होगा कि एनआरसी और सीएए को देशभर में चल रहे सियासी उबाल के बीच क्या गठबंधन के साथ हेमन्त सोरेन अपना स्टैंड क्लियर रख पाते हैं या केन्द्र के दबाव में कमज़ोर पड़ते दिखाई पड़ते हैं?