मात्र दो दिनों में देश के सर्वोच्च सदन लोकसभा और राज्यसभा में बाहर से आए लोगों के नागरिकता के लिए “नागरिकता संसोधन विधेयक2019” बहुसंख्यकवाद के सहारे पास हो गया। अचानक से इसकी क्या अर्जेंसी थी कि देश में विदेशी नागरिकों को नागरिकता देने का सबसे बड़ा मसला अहम बन गय, इस पर कोई जवाब नहीं आया।
प्रस्तावित विधेयक और अधिक गंभीर बहसों की मांग करती है, क्योंकि पड़ोसी मुल्क में उत्पीड़ित नागरिक केवल बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में ही नहीं, बल्कि श्रीलंका के अलावा और भी पड़ोसी देशों में हैं।
पूर्वोत्तर राज्यों में बिगड़ रहे हैं हालात
मुख्यधारा मीडिया लोकसभा और राज्यसभा के विधेयक के पास होने के अंकगणित में व्यस्त रही और साथ ही साथ विपक्ष के उस विरोध पर बहस करती रही कि प्रस्तावित विधेयक में मुस्लिम समुदायों के हितों की अनदेखी हुई है। जिनके हितों का ध्यान रखा गया है उस समुदाय में खुशी का महौल है। जबकि देश में पूर्वोत्तर प्रांत के नागरिक व्यापक स्तर पर विधेयक के विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं।
हालात इतने असामान्य होते जा रहे हैं कि अतिरिक्त सुरक्षाबल भेजने की नौबत आ चुकी है। इस पर ना ही दोनों सदनों में सरकार ने कुछ कहा और ना ही मुख्यधारा की मीडिया में बहस चल रही है।
जिस स्तर का विरोध पूर्वोत्तर राज्यों में इस विधेयक को लेकर हो रहा है, वह यही बताता है कि इस विधेयक को सदन में लाने से पहले इन प्रांतों के नागरिकों को विश्वास में लेने का काम हुआ ही नहीं है। संसद में पेश करते समय यह बताने की कोशिश ज़रूर हुई कि इस विधेयक को नागरिकों का समर्थन मिला। जिन राज्यों में सर्वाधिक विरोध हो रहे हैं, वे सीमा पार से होने वाली घुसपैठ से भी सबसे अधिक प्रभावित हैं। इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि इन विरोधों की अनदेखी ना हो।
दिल्ली में बैठकर यह कहने भर से काम नहीं चलेगा कि कुछ लोग असम की जनता को गुमराह कर रहे हैं। अभी तक इस विधेयक को मुस्लिम विरोधी कहा जा रहा था लेकिन बात यही तक सीमित नहीं है, इससे आगे भी है। यह एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन करने वाले लोगों के साथ-साथ पूर्वोत्तर के 7 प्रांतों की मूल जातियों की पहचान का सकंट बनकर भी सामने आया है। इस पर भी व्यापक बहस होनी चाहिए।
संस्कृति के विभाजन का विधेयक
“नागरिकता संशोधन विधेयक2019″ के बारे में यह भी कहा जा रहा है कि यह संविधान की धारा ’14’ और ’15’ का उल्लंघन है और इस आधार पर इसे कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है, क्योंकि हमारा संविधान धर्म के आधार पर वर्गीकरण या भेदभाव को गैर कानूनी मानता है।
अब अगर सरकार ही यह कह रही है कि मुसलमान एक अलग क्लास है फिर तो आप यूनिफॉर्म सिविल कोड नहीं बना सकेंगे, क्योंकि कोई भी धार्मिक क्लास कह सकता है कि अगर हम अलग क्लास ही हैं, तो हमारे लिए अलग कानून भी होना चाहिए। अगर नागरिकता के लिए अलग कानून है, तो हमारा पर्सनल लॉ भी होना चाहिए।
इस लिहाज़ से यह विधेयक और अधिक खतरनाक हो जाएगा, क्योंकि अगर धर्म के आधार पर वर्गीकरण को जायज़ ठहरा दिया गया तो कल जाति के आधार पर भी भेदभाव और वर्गीकरण को जायज़ ठहराया जाएगा।
बहरहाल, “नागरिकता संशोधन विधेयक2019″ को व्यक्तिगर रूप से मैं केवल बाहरी लोगों के नागरिकता के विधेयक के रूप में नहीं देखता हूं। यह एक संस्कृति के विभाजन का विधेयक भी है। किसी के धर्म से उसकी राष्ट्रीयता की पहचान भिन्न-भिन्न हो सकते हैं लेकिन उसकी संस्कृति भिन्न नहीं होती है।
बंगाली मुसलमान और हिंदू दोनों बंगाली ही बोलते हैं। वैसा ही खाना खाते हैं, वेशभूषा भी एक जैसी ही होती है। सरकार दूसरे देश में अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे भेदभाव के आधार पर “नागरिकता संशोधन विधेयक 2019″ संसद के दोनों सदनों से पास ज़रूर कराती है मगर उसका कोई आकड़ा नहीं दे पाती है।
यह बहुलताबादी सांस्कृतिक पहचान वाले देश के लिए शुभ संकेत नहीं है। बहरहाल, धर्म के आधार पर नागरिकता का कलंक हमारे माथे पर चस्पा हो चुका है। कोई बताए मुझे कि दुनिया के किस लोकतांत्रिक देश में धर्म के आधार पर नागरिकता तय की गई है।