हैदराबाद में बलात्कार के आरोपियों का एनकाउंटर करके पुलिस ने लोगों के हाथों में न्याय का एक झुनझुना थमा दिया है। पुलिस और सरकार दोनों ने बहुत चालाकी से जघन्य बलात्कार के खिलाफ देशभर में लोगों के गुस्से को शांत करने की तरकीब फिलहाल खोज निकाली है। सत्ता बहुत चालक होती है, उसे पता है कि लोगों की स्मृतियां लंबे समय तक ठहरती नहीं हैं, उन्हें तुरंत न्याय चाहिए।
अदालत और कानून की क्या ज़रूरत है?
भीड़तंत्र के इस मनोविज्ञान को सत्ता खूब समझती है, इसलिए न्याय और बदले का अंतर मिटा दिया। जनता खुश और सरकार को त्वरित न्याय का दिखावा करने का मौका मिल गया है। अगर यही करना है तो इतनी बड़ी अदालत और कानून की क्या ज़रूरत है? सबकुछ भीड़ को तय करने दे।
हमें संविधन की क्या ज़रूरत है?
जिस संविधान ने इस बात को सुनिश्चित किया है कि एक निर्दोष को बचाने के लिए अगर सौ अभियुक्तों को सज़ा देनी पड़ी तो वह मंज़ूर है, उस संविधान की धज्जियां उड़ा दी गईं। क्या यह साबित हो गया था कि जिन लोगों का एनकाउंटर हुआ वे बलात्कारी थे? क्या उनका अपराध साबित हो गया था? क्या वे सच में भाग रहे थे? क्या उनके पास भारी मात्रा में हथियार थे?
हम सब जानते हैं अपने देश की पुलिस को और उसकी कारगुज़ारियों को। आज वही पुलिस बहुत भली बनी हुई है। क्या हम सब नहीं जानते कि जब अपराध बढ़ता है, तो उससे निपटने के लिए सत्ता और पुलिस कितने निर्दोष लोगों की बलि देती है?
रेयान इंटरनैशनल स्कूल की घटना में एक निर्दोष इंसान को मान लिया गया था दोषी
क्या हम भूल गए हैं 6 सितंबर 2014 की घटना, रेयान इंटर नैशनल स्कूल में पढ़ने वाले सात साल के बच्चे के साथ यौन शोषण और हत्या के लिए बस कंडक्टर अशोक कुमार को गिरफ्तार किया था पुलिस ने। खुद पुलिस कमिश्नर ने उसे खूनी और बलात्कारी साबित किया था। इस मामले की सीबीआई जांच के बाद वह आदमी निर्दोष निकला, इसलिए कानून को अपना काम करने दीजिये।
न्याय पर अगर लोगों का भरोसा रहता तो शायद आज देश इतना हिंसक नहीं होता। जनतंत्र भीड़तंत्र में नहीं बदलता। निर्भया घटना के बाद यह उम्मीद बनी थी कि देश में इस तरह की जघन्य घटना नहीं होगी।
जिस साल निर्भया जैसा जघन्य बलात्कार का मामला दिल्ली जैसे शहर में हुआ, उसी साल नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के 2,44,270 मामले दर्ज हुए। इस घटना के बाद जनता पहली बार सोशल मीडिया के आभासी मैदान से असल ज़मीन पर उतरती नज़र आई थ, पूरे गुस्से के साथ।
लेकिन क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की इसके अगले साल की रिपोर्ट में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के 3,09,546 मामले दर्ज हुए और इसके अगले साल में जब यह रिपोर्ट आई तो यह संख्या 3,37,922 थी। साल 2015 में भी 3,27,394 मामले महिला हिंसा की रिपोर्ट की गई।
सोचिए, निर्भया के बाद भी कहां पहुंचे हम?
ये सब इसलिए है कि हमारी सत्ता लोगों को न्याय देने में अक्षम है? कठुआ से उन्नाव तक की लड़ाई में कुछ भी नहीं बदला है। लोगों के गुस्से पर पानी डालने के लिए चार लोगों को पुलिस ने मार गिराया। हमारी असली लड़ाई है कि ऐसी तमाम तरह की हिंसा रुके। फिर किसी बेटी को जलना नहीं पड़े, इसलिए फास्ट ट्रैक कोर्ट के तहत ऐसे तमाम मामलों की सुनवाई हो। सरकार और समाज महिला हिंसा की वजहों को तलाशे और हिंसा मुक्त समाज को बनाने की दिशा में पहल हो।
यह तभी होगा जब राजनीति में हिंसा और बलात्कारियों के लिए जगह नहीं होगी। न्याय की लड़ाई न्यायपूर्ण तरीके से ही लड़ी जा सके, बदले की भावना से नहीं। तभी हम अपनी बेटियों को न्याय दिला पाएंगे।