श्री कैलाश सत्यार्थी के नोबेल शांति पुरस्कार की 5वीं वर्षगांठ पर विशेष
पांच साल पहले आज के ही दिन श्री कैलाश सत्यार्थी को नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। नोबेल शांति पुरस्कार के सौ साल के इतिहास में यह पहला मौका था, जब भारत में जन्में किसी खांटी भारतीय को इस सम्मान से नवाज़ा गया था। महात्मा गाँधी इस पुरस्कार के लिए कई बार नॉमिनेट हुए लेकिन दुर्भाग्य से उन्हें यह सम्मान हासिल नहीं हो पाया।
कैलाश सत्यार्थी ने दुनिया के बच्चों के हक लिए लंबी लड़ाई लड़ी है और अभी भी लड़ रहे हैं। उनकी वजह से ही भारत सहित दुनिया के कई देशों में बच्चों के हक में कानून बने हैं।
आज कैलाश सत्यार्थी को मिले नोबेल शांति पुरस्कार की पांचवी वर्षगांठ पर मैं आपको 1998 की उस ऐतिहासिक घटना से रूबरू कराना चाहता हूं जिसने बच्चों के हक में पहला अंतरराष्ट्रीय कानून बनवा दिया था।
प्रॉफेसर की नौकरी छोड़ बच्चों के अधिकारों की लड़ाई की शुरुआत की
श्री कैलाश सत्यार्थी ने 1980 में जब अपनी इंजीनियरिंग कॉलेज की प्रॉफेसरी की नौकरी छोड़कर बाल मज़दूरी के खिलाफ अभियान शुरू किया था, तब देश में इससे संबंधित कोई कानून नहीं था।
उनके प्रयास से ही 1986 में बाल श्रम के खिलाफ कानून बना लेकिन वे चाहते थे कि बाल श्रम के खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय कानून बने, ताकि बाल मज़दूरी से अभिशप्त गुलामी का जीवन जी रहे दुनिया के करोड़ों बच्चों को इस दलदल से निकालकर उनके चेहरे पर मुस्कान लाई जा सके।
नब्बे के दशक में उन्होंने इसके लिए प्रयास करना शुरू किया लेकिन ऐसा कानून बनवाने लिए विशाल अंतरराष्ट्रीय समर्थन की ज़रूरत थी। इसके लिए वैश्विक नेताओं और प्रभावी लोगों से संपर्क करना, उन्हें समझाना और फिर कानून बनाने के लिए प्रेरित करना, यह सब आसान काम नहीं था।
इसके लिए बहुत ज़्यादा धन और संसाधन की ज़रूरत थी। उस समय सत्यार्थी जी के पास ना तो धन था और ना ही संसाधन लेकिन उनके पास अगर कुछ था तो वह थी हिम्मत, बच्चों की ज़िंदगी बदलने का जज्बा, असीम धैर्य और संघर्ष का माद्दा।
लोगों ने कहा कि यह काम असंभव है
कैलाश सत्यार्थी ने जब इस बारे में सिविल सोसायटी की दुनिया के अन्य देशों के अपने कुछ मित्रों से बात की तो उनकी भी कोई बहुत उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया नहीं थी। कुछ लोगों ने तो तब इसे असंभव करार दिया था लेकिन सत्यार्थी जी कहां चुप बैठने वाले?
उन्होंने ठान लिया कि वे बाल श्रम के खिलाफ विश्व यात्रा का आयोजन करेंगे। हर उस देश में जाएंगे, जहां बाल श्रम की समस्या है। वहां के लोगों को अपनी भावी पीढ़ी को बचाने की अपील करेंगे। उनसे अपनी सरकारों पर बाल श्रम के खिलाफ कानून बनवाने के लिए निवेदन करेंगे।
उस देश के राष्ट्राध्यक्ष से मिलेंगे, वहां के प्रभावी नेताओं और नीति नियंताओं से मिलेंगे। उनसे भी गुज़ारिश करेंगे कि वे अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) पर दबाव बनाकर बाल श्रम के खिलाफ एक कनवेंशन (संधि पत्र) पारित कराएं।
आयोजित हुई एक विशाल जन-जागरूकता यात्रा
कैलाश सत्यार्थी के अथक प्रयास से आखिरकार 17 जनवरी 1998 को फिलीपीन्स की राजधानी मनीला से बाल श्रम के खिलाफ एक मज़बूत अंतरराष्ट्रीय कानून बनाने की मांग को लेकर “ग्लोबल मार्च अंगेस्ट चाइल्ड लेबर” यानी बाल श्रम विरोधी विश्व यात्रा का आगाज़ हो गया।
यह एक ऐतिहासिक और अनोखी विश्व यात्रा थी। बाल श्रम के मुद्दे पर इतनी लंबी और इतनी विशाल व प्रभावकारी जन-जागरूकता यात्रा आज तक नहीं आयोजित की गई। तब यह यात्रा 103 देशों से गुज़रते हुए और 80 हज़ार किलोमीटर की दूरी तय कर जिनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय पर 6 जून 1998 को समाप्त हुई थी।
तकरीबन पांच महीने तक चली इस विश्वव्यापी यात्रा में करीब डेढ़ करोड़ लोगों ने सड़क पर उतर कर मार्च किया था। 100 से ज़्यादा वैश्विक नेताओं, राष्ट्राध्यक्षों, प्रधानमंत्रियों और राजा-रानियों ने इसमें हिस्सा लिया। इस यात्रा को दुनियाभर में मिले अपार जनसमर्थन से संयुक्त राष्ट्र संघ और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन पर कानून बनाने के लिए जबरदस्त दबाव पड़ा।
कैलाश सत्यार्थी के इंतज़ार में आईएलओ के महानिदेशक
6 जून 1998 को जब श्री कैलाश सत्यार्थी के नेतृत्व में बाल श्रम विरोधी विश्व यात्रा जिनेवा पहुंची तो उस दिन यहां स्थित संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) भवन “पैले दा नेशियान” के मुख्य सभागार में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) का महत्वपूर्ण सालाना अधिवेशन चल रहा था। जिसमें 150 देशों के श्रम मंत्री, दुनिया की विभिन्न सरकारों के वरिष्ठ अधिकारी, उद्योग जगत और मजदूर संगठनों के प्रतिनिधि सहित करीब 2000 लोग मौजूद थे।
उस दिन सभागार में चर्चा चल रही थी लेकिन बाहर ज़बरदस्त हलचल थी। यूएनओ के कर्मचारी और सुरक्षा गार्ड भौचक्के होकर वह सब देख रहे थे, जिनकी उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी। मुख्य द्वार पर आईएलओ के तत्कालीन महानिदेशक श्री हेनसन अपने कुछ वरिष्ठ सहयोगियों के साथ आगवानी के लिए किसी का इंतज़ार कर रहे थे।
आईएलओ के महानिदेशक अगर किसी की आगवानी के लिए दरवाजे के बाहर खड़े हैं तो जाहिर है वह कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति ही होगा। लेकिन ऐसा नहीं था। यह कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं, बल्कि कभी बाल मज़दूर रहे साधारण बच्चे, सामाजिक कार्यकर्ता और बाल अधिकार कार्यकर्ता श्री कैलाश सत्यार्थी सहित 600 लोग थे।
आईएलओ के इतिहास में भी यह पहला मौका था जब बाल दासता, बाल मज़दूरी और बाल सेक्सवर्किंग और ट्रैफिकिंग के शिकार बच्चों के लिए दरवाजे खोल दिए गए थे। सभागार में घुसते ही दुनिया की नीतियों को प्रभावित करने वाले 2000 लोगों ने खड़े होकर बच्चों और सत्यार्थी जी का तालियों से जोरदार स्वागत किया।
विश्व बाल श्रम विरोधी दिवस मनाने के पीछे सत्यार्थी का प्रयास
आईएलओ ने अपनी परंपरा और नियमों को तोड़ कर पहली बार दो बच्चों और श्री कैलाश सत्यार्थी को आईएलओ के सालाना अधिवेशन को संबोधित करने का मौका दिया। इस मौके पर श्री कैलाश सत्यार्थी ने अपनी मांगे रखीं। जिसमें मुख्य रूप से बाल श्रम के खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय कानून बनाने के साथ-साथ साल में एक दिन उन बच्चों को समर्पित करने की मांग की जो बाल दासता, गुलामी और बाल मज़दूरी को झेल रहे हैं। इस दिन उनके अधिकारों और भविष्य पर चर्चा हो।
इस यात्रा के करीब एक साल बाद 17 जून 1999 को आईएलओ ने बाल श्रम और बाल दासता के खिलाफ सर्वसम्मति से कनवेंशन-182 पारित किया। आईएलओ कनवेंशन-182 बाल दासता और बंधुआ बाल मजदूरी पर पूरी तरह से रोक लगाते हुए बच्चों के बाल सैनिक बनाने और पोर्नोग्राफी आदि में शोषण पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाती है।
इस अंतरराष्ट्रीय संधि पर भारत सहित दुनिया के ज़्यादातर देशों ने हस्ताक्षर कर दिए हैं। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र संघ ने सत्यार्थी जी की दूसरी मांग भी मान ली और 12 जून को विश्व बाल श्रम विरोधी दिवस के रूप में मनाने की घोषणा कर दी।
कैलाश सत्यार्थी के प्रयासों का प्रतिफल आज सबके सामने है। 1998 में जहां दुनिया में करीब 25 करोड़ बाल मज़दूर थे, वहीं दो दशक में घटकर अब करीब 15 करोड़ रह गए हैं। बाल श्रम विरोधी विश्व यात्रा के बाद दुनिया की सरकारें जागीं और अनेक देशों में बाल श्रम के खिलाफ मज़बूत कानून बने।
भारत भी उनमें से एक है। सत्यार्थी जी ने बाल श्रम के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय कानून बनवाकर यह साबित कर दिया कि दुनिया में कोई भी काम अंसभव नहीं है।