फिल्म “आर्टिकल 15” के एक दृश्य में जब निहाल सिंह फिल्म के मुख्य पात्र आयुष्मान खुराना के सामने अपना अपराध कबूल करते हुए ट्रक के नीचे कूदकर अपनी जान दे देता है, तब उसका साथी हवलदार कहता है, “रेप बदायूं, बुलंदशहर में हुआ है। हमसे दूर हुआ है लेकिन दूर कुछ होता नहीं है सर! निहाल तो हमसे डेढ़ फीट दूर बैठता था बारह सालों से।”
इस संवाद का ज़िक्र इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि घर और बाहर हर जगहों पर महिलाओं के विरुद्ध हिंसात्मक घटनाओं को अंजाम देने वाली सोच हम सबों से ज़्यादा दूर नहीं होती है। यह हमारे आस-पास ही होता है मगर हम उसको पहचान नहीं पाते हैं।
अगर पहचान भी लेते हैं तो उसको रोकने में असमर्थ होते हैं। एक के बाद एक “बलात्कार” की घटनाओं की विभत्स पुर्नरावृत्ति और कुंद हो चुकी न्याय व्यवस्था हमारी इंसानी संवेदनाओं को झकझोर देती है और हम क्रूरतम निदान को ही एकमात्र रामबाण उपाए मान लेते हैं। जबकि कई मुल्कों का इतिहास बताता है कि क्रूरतम सज़ाओं के बाद भी इस पर नियंत्रण नहीं पाया जा सका है।
कठोर कानूनों से नहीं बनेगा बलात्कार मुक्त समाज
हमको यह समझने की अधिक ज़रूरत है कि बलात्कार मुक्त समाज केवल कठोर कानून से नहीं बन सकता है। इसके लिए हमें व्यक्तिगत, सामाजिक, नागरिक एवं राज्य सम्बन्धों में छुपी पितृसत्तात्मक प्रवृत्तियों के दमन के लिए आमूलचूल बदलाव पर बात करनी होगी।
देशभर में “बलात्कार” की घटनाओं पर विक्षोभ हमेशा चरम पर होता है। समाज के कई तबकों और सोच से जुड़े लोग इस देशव्यापी विक्षोभ का हिस्सा भी होते हैं। हाल के दिनों तक “बलात्कार” को एक समान्य सी मांग अपनी जगह बना चुका है और वो यह कि दोषी व्यक्ति के लिए “फांसी” की सज़ा मुर्करर कर दी जाए।
बहुत हद तक विधि निर्माताओं ने भी इस मांग पर अपनी सहमति दर्ज़ की है मगर यहां भी एक बार फिर से “पौरुष-प्रदर्शन” को ही समाधान के रूप में पेश किया जा रहा है। जबकि वास्तव में यही “पौरुष-प्रदर्शन” महिलाओं पर होने वाली हिंसा की समस्या की जड़ है।
जर्मेन ग्रीयर का कहना है, “बलात्कार ही अपने आप में समस्याग्रस्त है। इसे एक “जघन्य” अपराध के रूप में पुरुषों ने स्थापित किया है, स्त्रियों ने नहीं। बलात्कार के प्रति राज्य और कानून का पूरा रवैया पितृसत्तात्मक है और बलात्कार के लिए जितने ही अधिक दंड की मांग की जाएगी, सबूत पेश करने की बाध्यता और आरोप साबित करने की प्रक्रिया उतनी ही मुश्किल होती जाएगी और दोषी को संदेह लाभ मिलने की संभावना उतनी ही अधिक बढ़ जाएगी।”
उन्होंने यह भी कहा है कि बलात्कार को शातिर महिलाओं का पुरुषों को झूठे आरोप लगाकर उसके नाम पर कीचड़ उछालने की संभावना में अधिकारियों की सनकी मानसिकता की व्याख्या मिलने लगेगी और महिलाओं के साथ फिर चौराहे पर बलात्कार होगा।
यह तर्क असुविधाजनक है लेकिन हम इसकी गंभीरता से मुंह नहीं फेर सकते हैं। बलात्कार के पीछे एक मनोवृत्ति है जो हज़ारों सालों से सभ्य समाज के व्यक्तिगत, सामाजिक, नागरिक एवं राज्य सम्बन्धों में मौजूद है। इस मनोवृत्ति के दमन के लिए एक दूरगामी रणनीति की आवश्यकता आज अधिक है।
दोषियों को सज़ा दिलवाने में ही हम अपनी सफलता मानते हैं
आज ज़रूरत इस बात की अधिक है कि क्या सिर्फ दोषियों को सज़ा दिलवाने भर से महिलाओं पर होने वाली यौनिक या दूसरे किसी भी तरह ही हिंसा में कमी आ जाएगी? जबकि विभिन्न सत्ता संबंध (व्यक्तिगत, सामाजिक, नागरिक एवं राज्य संबंध) पहले जैसे ही बने रहेंगे। हम समाज और राज्य के पुरुषवादी चरित्र पर ध्यान क्यों नहीं दे रहे हैं?
हम बस दोषियों को सज़ा दिलवाने में ही अपनी सफलता मान लेते हैं। व्यक्तिगत, सामाजिक, नागरिक एव राज्य संबंध में आमूलचूल बदलाव लाए बिना महिलाओं के खिलाफ हिंसा में कमी कभी नहीं आने वाली है। राज्य द्वारा कुछ नीतियां बनाकर या दोषियों को भीड़ के हाथों लिंच या प्रशासन से एनकाउंटर कर एक तरह से हमारी संवेदनाओं की आग पर घी डालकर डालने का काम किया जा रहा है। यदि हैदराबाद की घटना की बात की जाए तो रेप के आरोपियों का एनकाउंटर करना मानवीय संवेदनाओं के साथ खेलने की कोशिश है।
जब तक विभिन्न सत्ता संबंध पहले की तरह बने रहेंगे, तब तक पुन: उत्पीड़न के कारण साबित होते रहेंगे। ज़रूरी है कि ढांचागत बदलाव के ज़रिये महिलाओं के लिए समानता, स्वतंत्रता और लैंगिक अधिकारों के लिए व्यक्तिगत, सामाजिक, नागरिक एंव राज्य सम्बन्धों को संवेदनशील बनाने की दिशा में कोशिशें हों।
आधी आबादी के प्रति संवेदनशीलता लाने की ज़रूरत
हमारे आस-पास मौजूद दस में आठ व्यक्तियों को भी समाज में महिलाओं की भूमिका और ज़िम्मेदारियों के प्रति कोई संवेदनशीलता नहीं है। हमारी सभ्यता और संस्कृति पर महिलाओं की क्या भूमिका है, इस बारे में पुरुष वर्गों को कोई इल्म नहीं है।
जब हम आधी आबादी के प्रति संवेदनशील होंगे तो महिलाओं के साथ क्रूरतम अपराध करने से पहले अपनी ज़िम्मेदारियों को लेकर, बल्कि आधी आबादी पर पितृसत्तत्मक अनुशासन थोपने के तरीकों के बारे में भी सोचने को विवश होंगे।
यदि हम ऐसा करने में सफल नहीं होते हैं फिर तो महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर सिर्फ तरह-तरह की पाबंदियों पर ही बातें होंगी।
असल में ज़रूरत यह कि तमाम सेक्सुअल मामलों में संपूर्ण रहस्यावरण की पूरी जांच, हर व्यक्ति के अधिकारों की पुनर्स्थापना, स्त्री-पुरुष, विवाहित-अविवाहित, “गे” और स्टूडेंट्स, बच्चे और बालिग सभी की सेक्सुअल स्वायत्तता और व्यक्तिगत, सामाजिक, नागरिक एंव राज्य सम्बन्धों की ईमानदार मूल्यांकन, निदान में ज़रा भी कमी ना हो।