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जब वाजपेयी ने 2002 में कहा था “मुसलमान दूसरों के साथ रहना नहीं चाहते”

Atal Bihari vajpayee's communal speeches

आज पूर्व प्रधानमंत्री और भाजपा के अस्तित्व को पहचान दिलाने वाले नेता अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन है। 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में जन्में वाजपेयी को हिंदुत्व को राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा में लाने का श्रेय जाता है।

ऐसे वक्त में जब काँग्रेस देश की सबसे बड़ी पार्टी थी और उसके विपक्ष में छोटी-छोटी पार्टियां ही हुआ करती थी। तब अटल-आडवाणी की जोड़ी ने एक संगठित और देशव्यापी विकल्प खड़ा करने का काम किया। किसी वक्त महज़ 13 दिन के प्रधानमंत्री रहे वाजपेयी के प्रयासों का ही नतीजा है कि आज नरेंद्र मोदी भारी बहुमत के साथ सत्ता में हैं।

हिन्दू राष्ट्रवाद और दक्षिणपंथी राजनीति के कद्दावर नेता होने के बावजूद आज अटल बिहारी की जो छवि है, वह एक ऐसे राजनेता की है जो हिंदुत्व के साथ धर्मनिरपेक्षिता के भी पैरोकार थे। अब यह छवि वास्तविक है या फिर आज उनके उत्तराधिकारियों की राजनीति से तुलना होने के बाद पनपी है, यह तो एक विस्तृत विश्लेषण का विषय है।

बहरहाल, आज बात सन 2002 में गोवा में दी गई वाजपेयी के उस भाषण की करेंगे जिसके बाद उनकी धर्मनिरपेक्षता पर गंभीर सवाल खड़े हो गए थे।

 “यह हमारी संस्कृति है जो हर पंथ का सम्मान करती है”

11 अप्रैल 2002 को दिए गए इस भाषण की शुरुआत वाजपेयी ने कम्बोडिआ और वहां के हिन्दू मंदिरों की बात करके की थी। उन्होंने बताया था कि किस तरह वहां राज करने वाले हिन्दू राजा अन्य हिन्दू राजाओं से युद्ध में जीतने के बाद उनका मंदिर नहीं तोड़ते थे, बल्कि एक नया मंदिर बनाते थे।

ऐसा कह कर वाजपेयी ने यह दलील दी थी कि “यह हमारी संस्कृति है जो हर पंथ का सम्मान करती है।”

इसके साथ ही वे इतिहास का हवाला देते हुए कहते हैं,

जब मुस्लिमों और ईसाईयों ने इस देश की धरती पर कदम रखा तो उन्हें उनके धर्म को मानने को आज़ादी मिली। जबरन उनका धर्म परिवर्तन नहीं किया गया क्योंकि हमारे (हिन्दू) धर्म में इसकी कोई जगह नहीं है।

इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने उस भाषण से कुछ वक्त पहले हुए गुजरात दंगों की बात की। उन्होंने कहा था,

गुजरात में क्या हुआ? अगर साबरमती एक्सप्रेस के मासूम यात्रियों को ज़िंदा जला डालने का षड्यंत्र ना हुआ होता तो उसके बाद हुई गुजरात त्रासदी को टाला जा सकता था। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि गुजरात दंगे शुरू कैसे हुए।

वाजपेयी के इस बयान को गुजरात दंगों को सही ठहराने के उद्देश्य से दिए गए तर्क जैसा देखा जा सकता है। बजाए इन दंगों की बगैर शर्त भर्तस्ना करने के और इसे धार्मिक नफरत का अंजाम बताने के, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इसे गोधरा कांड का नतीजा बताया।

इसके बाद वाजपेयी इस्लाम और मुस्लिमों के ऊपर आए। उन्होंने कहा था,

इस्लाम के दो चेहरे हैं जिसमे से एक तो सबको साथ लेकर चलता है लेकिन दूसरा चेहरा कट्टरपंथ जिहाद फैलाने वाला है।

वाजपेयी के भाषण का सबसे विवादास्पद हिस्सा

वाजपेयी के भाषण का सबसे विवादास्पद और परेशान करने वाला हिस्सा उनके धर्मनिरपेक्षिता वाली छवि के बिल्कुल प्रतिकूल है जहां वाजपेयी ने कहा था,

जहां कहीं भी मुस्लिम रहते हैं वे दूसरों के साथ रहना पसंद नहीं करते। बजाए अपने धर्म को शांतिपूर्वक फैलाने के, वे अपना धर्म दूसरों को धमका कर और आतंकित कर फैलाते हैं।

वाजपेयी ने यहां तक दावा करते हुए कहा था,

जब भी मैं किसी ऐसे देश के राष्ट्राध्यक्ष से मिला हूं जहां मुस्लिमों की ज़्यादा आबादी है, उन्होंने यह चिंता जताई है कि उनके यहां के मुसलमान कट्टरपंथ की ओर जा सकते हैं।

अटल बिहारी वाजपेयी के इस भाषण में मुस्लिमों के प्रति उनके पूर्वाग्रह साफ नज़र आते हैं।

अंग्रेज़ी में एक कहावत है कि “an apple doesn’t fall far from the tree”, जिसका मतलब होता है कि आने वाली पीढ़ियों पर उनके पूर्वजों का बड़ा गहरा असर होता है। अगर अभी के भाजपा नेताओं को देखें तो उनके तेवर और उनकी भाषा अटल बिहारी वाजपेयी के इस भाषण से ज़्यादा अलग नहीं मालूम पड़ती।

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आर्टिकल में दिए गए भाषण के अंश  Gujarat: The Making of a Tragedy (Penguin, 2002) से अनुवादित हैं।

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