एक बार फिर देश के 600 प्रगतिशील बुद्धिजीवियों (कलाकारों, शिक्षाविदों, नाटककारों) ने भारतीय सत्ता को एक पत्र लिखकर चेताया है कि उनके द्वारा नागरिकता संशोधन बिल (कैब) जो अब कानून बन चुका है, वह भारतीय सविधान की मूल भावना धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ है।
इन बुद्धिजीवियों ने अपने पत्र में सरकार को लिखा है,
हम सरकार से संविधान से खिलवाड़ नहीं करने की मांग करते हैं। देश में समानता के संवैधानिक संकल्प का सम्मान किया जाना चाहिए। इसलिए हम सरकार से इस बिल को वापस लेने की मांग करते हैं।
इन 600 प्रगतिशील बुद्धिजीवियों में योगेंद्र यादव, इतिहासकार रोमिला थापर, आनंद पटवर्धन, हर्ष मन्दर, अरुण रॉय, तिस्ता सीतलवाड़, बेजवाडा विल्सन, दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस एपी शाह और देश के पहले मुख्य सूचना आयुक्त जस्टिस वजाहत हबीबुल्ला ने भी इस पर दस्तखत किए हैं।
सामाजिक ढांचे में दो पक्ष होते हैं, जो समाज को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाते हैं। एक प्रगतिशील राजनीतिक पार्टी और दूसरा प्रगतिशील बुद्विजीवी।
प्रगतिशील राजनीतिक पार्टी
देश के अंदर प्रगतिशील राजनीतिक पार्टियों की बात करें तो बसपा जो डॉ. भीमराव अंबेडकर की विचारधारा की वारिस होने का दंभ भरती है। डॉ. अंबेडकर जिन्होंने भारत का संविधान लिखने में अहम भूमिका निभाई। जिनके प्रयासों से देश का संविधान धर्मनिरेपक्ष बना लेकिन बसपा ने कैब पर राज्यसभा मे वोटिंग के समय वॉक आउट करके पिछले दरवाज़े से इस कानून को बनाने में सत्ता का साथ दिया।
इससे पहले भी कई अवसरों पर मायावती फासीवादी विचारधारा का समर्थन कर चुकी है। सत्ता द्वारा अनुच्छेद 370 का अलोकतांत्रिक तरीके से खात्में का भी बसपा समर्थन कर चुकी है। बसपा के कार्यों से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वह डॉ. अंबेडकर का कितना सम्मान करती है।
समाजवादी मुलायम लाल टोपी वाले का समाजवाद भी फासीवादी सत्ता के आगे बहुत बार नतमस्तक हो चुका है। पिछले दिनों संसद में भारत के हिटलर की तारीफ और उनकी सत्ता में वापसी की दुआएं वह सार्वजनिक तौर पर मांगते देखे गए हैं।
सीपीएम और उनके साझेदारों ने सत्ता की जन विरोधी फैसलों पर ज़रूर आवाज़ उठाने का काम किया है लेकिन संशोधनवाद के कारण इनका दायर भी सीमित होता जा रहा है। इनका कैडर वैचारिक दरिद्रता के कारण जाने-अनजाने बहुत से मौकों पर फासीवादी सत्ता के पक्ष में खड़ा दिखता है। लोकसभा चुनाव में इनका बहुमत कैडर बंगाल में भाजपा के समर्थन में मज़बूती से खड़ा था।
काँग्रेस और उनके साझेदार फासीवादी सत्ता के खिलाफ कोई मज़बूत लड़ाई का मंच तैयार करेंगे, यह सोचना ही मूर्खता है। उनके अवसरवादी रव्वैये, भ्रष्टाचार और वैचारिकता से किनारा करने के कारण भारत की बहुमत जनता उनसे किनारा कर चुकी है। इनके खत्म होते ही जन आधार के कारण ही जनता फासीवादी विचारधारा के चंगुल में फंसकर सत्ता व उनकी संविधान विरोधी फैसलों की समर्थक बनती जा रही है।
प्रगतिशील बुद्धिजीवी
प्रगतिशील बुद्धिजीवी जो समाज को आगे बढ़ाने में व सत्ता को जन-विरोधी फैसलों के खिलाफ चेताने व रोकने में अहम भूमिका निभाते हैं। देश के अंदर फासीवादी सत्ता के खिलाफ ईमानदारी से सत्ता के जन-विरोधी फैसलों को रोकने व एक आधार बनाने का काम बुद्धिजीवियों और वामपंथियों ने दिया है।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि 2014 से पहले और 2014 में सत्ता में आने के बाद किस तरह से फासीवादी संगठनो ने विरोध की आवाज़ दबाने के लिए डाबोलकर, प्रो. कलबुर्गी, कॉमरेड पंसारे, रोहित वेमुला, पत्रकार गौरी लंकेश, पहलू खान और जुनैद की हत्याएं की।
नज़ीब को गायब किया गया, आंदोलनकारियों पर हमले किए गए और यहां तक कि सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाला गया।
इन सब मुद्दों पर देश के प्रगतिशील कलाकारों, शिक्षाविदों, रंगकर्मियों, नाटककारों, पत्रकारों और लेखकों ने मज़बूती से सत्ता और उसके संगठनो का विरोध किया। धरना-प्रदर्शन, पत्र लिखना, आवॉर्ड वापसी और सभाओं के माध्यम से जनता को राह दिखाने और एकजुट करने में बुद्धिजीवियों ने अहम भूमिका निभाई है।
आज़ादी के नायकों के खिलाफ है नागरिकता कानून
नागरिकता संशोधन कानून उन लाखों क्रांतिकारियों के खिलाफ है, जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी मुल्क की चाहत में अपनी शहादत दे दी। देश की आज़ादी का आंदोलन जो हिन्दू-मुस्लिम एकता के साथ लड़ा गया, जिनका साझा दुश्मन साम्राज्यवादी अंग्रेज़ी सत्ता थी। आज़ादी के आंदोलन में रामप्रसाद बिस्मिल और असफाक की शहादत ऐसे ही मुल्क की नींव के अंदर पत्थर का काम कर रही है।
गदर पार्टी के योद्धा, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चन्द्रशेखर आज़ाद, सुभाष चन्द्र बोष, महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरू, डॉ. भीमराव अंबेडकर, शेख अब्दुल्ला और लाखों क्रांतिकारियों का एक ही सपना था कि एक ऐसा आज़ाद मुल्क हो जहां धर्म-जाति-क्षेत्र के नाम पर भेदभाव ना हो।
इसके विपरीत संघ व हिन्दू महासभा ने हिंदुत्त्ववादी राजनीति का झंडा उठाकर मोहम्मद अली जिन्ना के साथ मुस्लिम लीग बनाकर देश की आज़ादी के आंदोलन के खिलाफ अंग्रेज़ों का साथ दे रहे। नाथू राम गोड़से द्वारा महात्मा गाँधी की हत्या इसी धार्मिक मुल्क बनाने के लिए की गई आंतकवादी कार्रवाई थी।
देश आज़ाद होते ही सत्ता की बागडोर देश के गद्दारों के हाथों में जाने की बजाए क्रांतिकारी खेमे की तरफ आई। इसी खेमे के अथक प्रयासों से देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष बना।
वर्तमान में बना नागरिकता कानून (कैब) संविधान की मूल भावना के साथ-साथ भारत की साझी संस्कृति, भारत के क्रांतिकारी आंदोलन और सूफी व निर्गुण काव्यधारा के सन्त आंदोलनों के खिलाफ है।
इसलिए भारत के आवाम को आने वाली नस्लों को एक सभ्य, मानवीय और समाजवादी मुल्क बनाने के लिए इस कानून का मज़बूती से विरोध करना चाहिए। अगर हम आज नहीं विरोध करेंगे तो वह दिन दूर नही जब हमारे मुल्क का हाल भी हिटलर की तानाशाही सत्ता के समान हो जाएगा।