“हमें अपनी मूल आदिवासी संस्कृति नहीं भूलनी चाहिए”, हमारे समाज के पूजनीय व्यक्तियों में से एक बिरसा मुंडा जी द्वारा दी गई यह सीख मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है। आज यदि वह जीवित रहते तो उन्हें जानकर बेहद दुख होता कि यह बात समाज के लोग भूल चुके हैं। आज लोग अपनी संस्कृति या तो भूलते जा रहे हैं या फिर जानबूझ कर अपनी पहचान छुपाना चाहते हैं।
आज हमारे समाज में कुछ ही लोगों के पास अपनी जन-जातीय भाषा का ज्ञान है। मुझे भी अपनी भाषा नहीं आती और इसका मुझे बेहद अफसोस भी है परंतु मैंने एक साल के भीतर अपनी भाषा सीखने का लक्ष्य बना लिया है। मैं आप सबसे भी यही आग्रह करना चाहूंगी कि सर्वप्रथम अपनी भाषा सीखिए। UNPF II के अनुसार हर 2 हफ्तों में 1 ट्राइबल भाषा विलुप्त होती है।
आज हमारे समाज के लोगों को, खासकर युवाओं को महत्वपूर्ण आदिवासी रीति-रिवाज़ों के बारे में नहीं पता होता है। मैं यह बात समझती हूं कि सारी बातें कोई नहीं जान सकता, मैं भी नहीं जानती परंतु महत्वपूर्ण बातें जैसे हमारा कोई धर्म नहीं है, हमारी जनसंख्या, आदि यह सब जानना बेहद महत्वपूर्ण है।
यही कारण है जब हमें कोई नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो अपनी संस्कृति की सुंदरता दिखाने हेतु हमारे पास कोई जवाब नहीं होता है और हम चर्चा या बहस में चुप्पी साधे खड़े रहते हैं।
यह तो बात थी जागरूक रहने की परंतु सबसे ज़्यादा बात जो मुझे चुभती है वह यह है कि आज के ज़माने में अधिकतर आदिवासी अपनी पहचान छुपाने की कोशिश करते हैं। लोग अपना असली उपनाम ना लिखकर ऐसे उपनामों का चयन करते हैं, जिससे ये ना पता चले कि वे आदिवासी हैं। हद तो तब हो जाती है, जब किसी के पूछने के बाद भी वे लोग झूठ बोलते हैं।
अब बताइए ऐसे में हम कैसे आगे बढ़ेंगे और कैसे हम बाकी लोगों से सम्मान की अपेक्षा रखेंगे, जब हम खुद का सम्मान नहीं करते। ऐसा सबसे ज़्यादा ऊंचे ओहदे वाले करते हैं, उन्हें तो आदिवासी अधिकारों की अगुवाई करनी चाहिए।
मुझे यह भी मालूम है कि हम एकांत में नहीं, एक समाज में रहते हैं और परिणामस्वरूप संस्कृतियों का आदान-प्रदान होना अनिवार्य है। मगर उसके कारण अपनी मूल संस्कृति भूल जाना कहां तक सही है? हमारी संस्कृति हमें मिलनसार बनना सिखाती है, हर धर्म से प्रेम करना सिखाती है, सहिष्णुता की भावना सिखाती है कभी कट्टरता नहीं सिखाती।
आप दुर्गा पूजा मनाइए, क्रिसमस मनाइए, गुरु-नानक जयंती मनाइए, ईद मनाइए पर साथ-ही-साथ भोजली, करम पर्ब, बिहु, म्योको आदि त्यौहारों को मत भूलिए। आप हिप-हॉप, सालसा, भरतनाट्यम् आदि सब सीखिए परंतु सुवा, कर्मा, बिहु, भवाई आदि मत भूलिए। आप गॉंधी, विवेकानंद जी सबको याद रखिए पर बिरसा मुंडा, वीर नारायण सिंह, रानी दुर्गावती आदि के बलिदानों को भी मत भूलिए।
बिरसा मुंडा जी एक समाज सुधारक भी थे, उन्होंने आदिवासियों के मदिरा पान करने की आदत का पुरज़ोर विरोध किया था। उन्हीं के आदर्शों को आगे ले जाते हुए हमें हमारे समाज की कुरीतियां, जो हमारे मूल संस्कृति का हिस्सा बन चुकी हैं, उन्हें समाप्त करना ज़रूरी है, जैसे-अत्यधिक शराब पीना, अंधविश्वास, हानिकारक रीति-रिवाज़ आदि।
हम दूसरों से ऊंच-नीच की भावना से जूझ रहे हैं परंतु हमारे खुद के समाज में यह विद्यमान है, उदाहरण- गोंड जनजाति में ही लोग राजगोंड, कोयावंशी गोंड आदि ऊंचे-नीचे वर्गों में बंटे हुए हैं। ऐसे में हम कैसे एकजुट होकर रहेंगे?
अंत में बस यही कहना चाहूंगी कि यदि हम संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा दी गई परिभाषा पर गौर करें तो Indigenous People होने का सबसे महत्वपूर्ण मापदंड हमारी विशिष्टता व भिन्नता है। यदि यही खत्म हो जाएं, तो सोचिए हमारा क्या होगा?
हम जनजातियों की सूची से ही निकाल दिए जाएंगे। यकीन ना हो तो आप छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री माननीय भूपेश बघेल जी का निर्णय व सुप्रीम कोर्ट का आदेश देख सकते हैं, इसलिए हमें अपनी मूल आदिवासी संस्कृति नहीं भूलनी चाहिए।
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लेखक के बारे में- प्रज्ञा (Pragya Uike) लेखिका और कवि हैं, साथ ही रायपुर के हिदायतुल्ला नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी ( (HNLU) से लॉ की पढ़ाई कर रही हैं। यह गोंड जनजाति से ताल्लुक रखती हैं। इन्हें लिखना और सामाजिक मुद्दों जैसे आदिवासियों, मार्जिनलिज़्ड लोगों और लैंगिक समानता से संबंधित मुद्दों पर लिखना पसंद है। आप इन्हें ट्विटर पर भी फॉलो कर सकते हैं- @PragyaUike