जब हम भारत की संसकृति के बारे में बात करते हैं, तब हम उन संस्कृतियों और सभ्यताओं के बारे में भूल जाते हैं, जो कि भारत के अंदर अलग-अलग रूप में बसती हैं। ये आदिवासियों की संस्कृति होती है।
भारत के साथ-साथ विश्व के विभिन्न जगहों में जो भी आधुनिक सभ्यताएं हैं, वे इनकी ही उपज हैं। बदलते समय ने आदिवासियों की संस्कृति को भले ही हाशिये पर ला दिया हो लेकिन एक तथ्य यह भी है कि आज जो समाज पल रहा है, उसकी जनक ये सभ्यताएं ही हैं।
आदिवासियों की संस्कृति हमेशा पर्यावरण के अनुकूल ही रही हैं। आदिवासियों के जीवन जीने की शैली में जो सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है, वह यह कि वे अपने जीवन की आधारभूत वस्तुओं के लिए किसी अन्य समाज पर आश्रित नहीं रहते हैं। इनका जीवन उतना चकाचौंध से परिपूर्ण नहीं रहता कि ये तुच्छ वस्तुओं का भंडाराण करें।
आदिवासी समाज से हमें लेनी होगी प्रेरणा
आज के समाज ने प्रकृति को जो भी नुकसान पहुंचाया है, उसका परिणाम उसे भविष्य में चुकाना पड़ेगा, जिसकी शुरुआत हो चुकी है। हम आज ही देखते हैं कि हमारे आसपास कितना प्रदूषण बढ़ गया है। अगर हमें इसे यही पर रोकना है, तो हमें अपनी जीवन शैली को सुधारना होगा।
इसके लिए हम आदिवासी समाज के जीवन से प्रेरणा ले सकते हैं। हम यहां आदिवासियों के जीवन जीने के ढंग के कुछ बिंदुओं पर प्रकाश डालेंगे, जिसे अपनाकर हम प्रकृति को बचा सकते हैं-
आदिवासी लोग जिस क्षेत्र में रहते हैं, वे वहां की प्राकृतिक चीज़ों के प्रति आस्था रखते हैं। जैसे-
- पहाड़ पर रहने वाले आदिवासी लोग पहाड़ को देवता मानते हैं।
- नदी के तट पर रहने वाले आदिवासी नदी को माँ मानते हैं।
- इसी तरह जंगल के आदिवासी जंगल में देवताओं का निवास मानते हैं। पूरे मन से ये लोग इन सभी का सम्मान करते हैं।
हमारे द्वारा इनके इसी आस्था को देखकर अंधविश्वास की संज्ञा दे दी जाती है लेकिन इसे अंधविश्वास से हटकर देखने पर हम पाएंगे कि ये जिन चीज़ों में आस्था रखते हैं, उनकी रक्षा करना ही अपना धर्म समझते हैं।
इसी का परिणाम था कि 70 के दशक में उत्तराखंड के जंगलों में जब सरकार द्वार पेड़ों को काटा जा रहा था, तब वहां के आदिवासी लोग पेड़ों से पहले अपनी जान देने की बात करने लगे और हर एक पेड़ से चिपककर “चिपको आंदोलन” का रूप दे दिया था।
खेती में आज भी प्राकृतिक तरीकों का उपयोग
किसी भी सभ्यता को फलने-फूलने के लिए खेती सबसे ज़रूरी चीज़ है। अगर हम आज के कृषि की बात करें तो इस समय जो भी खेती होती है, वह मुख्यतः व्यवसाय अधारित हो गई है। इसमें अधिक-से-अधिक उपज पर ध्यान दिया जा रहा है। इसके लिए विभिन्न प्रकार की दवाइयां और रासायनिक पदार्थों का प्रयोग किया जाता है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है।
इन पदार्थों को बनाने में जिस प्रक्रिया का प्रयोग किया जाता है, उसका कार्बन फुट प्रिंट के आधार पर गणना करें तो पता चलता है कि ये पदार्थ भूमि के साथ-साथ हवा को भी प्रदूषित करते हैं। ठीक इसके विपरित आदिवासी समाज की खेती पर्यावरण के अनुकूल ही रहती है।
ये लोग अपनी खेती में अधिक उत्पादकता पर ज़ोर ना देकर अनाज की गुणवत्ता पर ज़ोर देते हैं। ये इसी सोच से अनाज का उतना ही उत्पादन करते हैं जितना उनकी खुद की ज़रूरत होती है। ना कि भण्डारण या लाभ के लिए। इनके खेती के ढंग में प्रकृति के लिए एक मुख्य सकारात्मक पहलू यह भी होते हैं कि ये अपने स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र के आधार पर ही खेती करते हैं। जैसे –
- पहाड़ के आदिवासी यहां के आधार पर “सीढ़ीनुमा खेती” (Step Farming) (Terrace) करते हैं।
- जलीय क्षेत्र के आदिवासी पानी वाले फसल की खेती करते हैं।
- मैदान के आदिवासी खेत की उर्वरा शक्ति को ध्यान में रखते हुए “झूम खेती” (Shifting Cultivation) करते हैं।
कुछ लोग इस झूम खेती को गलत ठहराते हैं। वे कहते हैं कि इससे जंगलों को नुकसान पहुंचता है। जो लोग ये कहते हैं, वे ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर सबसे अधिक जंगलों को नुकसान पहुचाते हैं।
मनोरंजन में भी प्राकृतिक वाद्य यंत्रों का प्रयोग
आदिवासी अपने मनोरंजन के लिए जिन गीतों को गाते हैं या जिस प्रकार का नृत्य करते हैं, वे बिलकुल समान्य और प्राकृतिक होते हैं। इसमें किसी भी प्रकार का बनावटीपन नहीं रहता है। इसके साथ ही ये लोग जिन वाद्य यंत्रों का प्रयोग करते हैं, वे भी उनके द्वारा स्वनिर्मित होते हैं।
ये लोग इन सबका प्रयोग अपने मनोरंजन के लिए करते हैं। जबकि आधुनिक समाज इन सबका प्रयोग मनोरंजन के लिए कम और अपने व्यापार के लिए ज़्यादा करता है, इसलिए इन लोगों के समाज की प्रसन्नता का स्तर भी आधुनिक विकृत समाज से ज़्यादा है।
दैनिक जीवन के चीज़ों में प्रकृति से निकटता
ये लोग अपने दैनिक जीवन में जिन चीज़ों का उपयोग करते हैं, वे पर्यावरण के अनुकूल होते हैं। जैसे- भण्डारण के लिए ये किसी बाज़ार से खरीदे बर्तन का उपयोग नहीं करते हैं, इसके लिए अपने यहां बने मिट्टी के पात्र का प्रयोग करते हैं।
इसके अलावा खाने-पीने की छोटी-छोटी चीज़ों को रखने के लिए लौकी को सुखाकर उसके खाल का प्रयोग करते हैं। ये लोग अपने बर्तन को भी मिट्टी या पत्तों से निर्मित करते हैं। इसके लिए हम यह भी कह सकते हैं कि ये लोग एक ही वस्तु को अपनी कला के आधार पर विभिन्न रूपों में उपयोग करने के लिए बनाते हैं।
इनके जीवन जीने के इन्हीं तरीकों की वजह से आज भी ये लोग विभिन्नताओं में भी अपनी पहचान बनाए हुए हैं। ये अपनी संस्कृति के प्रति आज भी सचेत हैं।
सरकार और कॉरपोरेट द्वारा इनकी इन्हीं संस्कृति एवं सभ्यता को मारने की कोशिश की जा रही है लेकिन हमें समझना होगा कि पृथ्वी को मानवीय जीवन के लिए बचाना है तो आदिवासियों की सभ्यता और संस्कृति से कुछ सीखना ही होगा।
एक अच्छे पर्यावरण के लिए अच्छा आदिवासी बनना ही होगा, क्योंकि आदिवासियों की संस्कृति हमेशा पर्यावरण के अनुकूल ही रही है। ये अपने वर्तमान में ऐसे जीते हैं कि अपने भविष्य को कुछ नुकसान नहीं पहुंचे।