दिल्ली में प्रदूषण पर सरकारें जिस प्रकार से उन्मुख दिख रही हैं, उससे यही प्रतीत होता है कि सारा कहर पुनः किसानों के सर ही पड़ेगा। मैं पूछना चाहता हूं कि आखिर किसान अनाज के अलावा सम्पूर्ण फसल का क्या करें?
सरकार के आदेशानुसार ज़मीन सिर्फ अनाज नहीं उगाती, उसके अपने तौर तरीके हैं और हम उसके सामने तब तक नतमस्तक हैं, जब तक विज्ञान इसका कोई निदान ना कर दे।
मुझे लगता है कि इस समस्या के समाधान के रूप में किसानों की कुर्बानी नहीं देनी चाहिए। मैं खुद एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार का हिस्सा हूं और धान की उपज के बाद फसल के बाकी बचे हिस्से को जलते देखा है। जो जलाते हैं, उनकी समस्या से भी परिचित हूं।
पराली हमारे पशुओं का मुख्य आहार है
हमारे खेतों की उपज के बाद फसल के बाकी बचे हिस्सों को नहीं जलाया जाता है, क्योंकि हमारे घर दुधारू पालतू पशुओं की उपस्थिति है। हमारे घर उन्हें रखने को जगह है, उनकी देखभाल करने-कराने की क्षमता है, उनके इलाज हेतु पैसे खर्च करने की कुशलता है और पराली हमारे पशुओं का मुख्य आहार है।
कई बार तो हम दूसरे लोगों की पराली (बिहार में जिसे पुआल बोला जाता है) भी ख़रीद लेते हैं, क्योंकि उससे हमें विषम परिस्थितियों में पशुओं के आहार की समस्या नहीं होती। घर में अनाज खत्म हो जाए तो बाज़ार से खरीदा जा सकता है परंतु पशुओं का आहार खत्म हो जाए तो मिलना बहुत मुश्किल है। अतः यह व्यवस्था की जाती है।
पशु-आहार को संरक्षित करना भी एक अत्यंत गंभीर मुद्दा है, क्योंकि उसकी मात्रा बहुत ज़्यादा होने से काफी जगह की आवश्यकता पड़ती है। यहां ज्ञात हो कि टीवी पर आने वाले कपिला पशु आहार के प्रचार से यह बिल्कुल नहीं समझा जाना चाहिए कि गाय या भैंस सिर्फ वही खाकर ज़िंदा रहती है और दूध देती है। ऐसा बिल्कुल नहीं है, वह सिर्फ एक ज़ायका है।
पराली जलाने वालों की परेशानियों को समझना होगा
जो लोग अपने खेतों में आग लगते हैं उनके पास उपर्युक्त सुविधाएं प्राप्त नहीं हैं। उनके पास ना तो खुद के लिए रहने को घर है और ना ही पशु आहार को संरक्षित करने की जगह।
अगर उनके पास एकाध पशु हों भी तो पुवाल को जलाना उनके लिए किफायती है। बनिस्पत इसके कि वे भारी मज़दूरी देकर इनका प्रॉसेसिंग कराए और पशु आहार की व्यवस्था करे। बाज़ार में ऐसी मशीनें भी हैं, जिनके माध्यम से बहुत कम समय में खेत के खेत साफ किए जा सकते हैं और पुवाल को पशु आहार में बदला जा सकता है मगर इन मशीनों का भाड़ा किसानों के सम्पूर्ण पैदावार के बराबर पड़ जाएगा। ऊपर से आहार संरक्षित करने की समस्या अलग।
यह प्रश्न स्वाभाविक है कि आखिर ये किसान इन चीज़ों की मांग क्यों नहीं करते? कैसे करेंगे? वे ज़मीन के मालिक नहीं हैं और ना ही उन्हें सोचने की इतनी फुरसत है कि वे विकल्प तलाशें। उनमें से अधिकतर लोग मज़दूर हैं। पंजाब, हरियाणा, गुजरात और बिहार जैसे राज्यों में धान की खेती के वक्त ज़्यादातर किसान पलायन करते हैं।
उनका मुख्य मकसद यह होता है कि एक खेत खत्म कर जल्द से जल्द दूसरे खेत की फसल को साफ करना। उन्हें इसी कमाई से अपने साल भर का खर्च चलाना है।
पराली जलाने पर प्रतिबंध लगाना कोई हल नहीं
ऐसे में उनकी यह स्थिति सरकार की रोज़गार योजनाओं की गारंटी को आइना दिखा रही है। पलायन का दर देखने पर मालूम होता है कि 100 लोग अगर गाँव छोड़कर शहर जाते हैं, तो उसमें से 95 से ज़्यादा लोग कभी वापस नहीं आते। जो बचते हैं, उन्हें मौसमी पलायन करना पड़ता है। बच्चों की शिक्षा में मौसमी पलायन एक भिमकाय समस्या है मगर किसान एवं मज़दूर क्या करें?
ऐसे में प्रतिबंध का रास्ता कारगर नहीं होगा। लोग दिन में नहीं तो रात में आग लगा देंगे और तंत्र के लिए यह बिल्कुल संभव नहीं होगा कि वे लोगों को यह करने से रोक पाएं। ऐसे में अन्य विकल्प तलाशने होंगे। सरकार चाहे तो निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं-
- तात्कालिक रूप से सरकारें कंबाइंड मशीनों को खेतों में भेजें और न्यूनतम भाड़े पर लोगों के खेतों को साफ कर दें। सरकार चाहे तो पशु आहार के व्यापार से अपने खर्च को कुछ कम कर सकती है।
- दीर्घकालिक रूप से नीतिगत फैसले के रूप में यह हो कि निजी खेतों में मज़दूरी की मान्यता मनरेगा जॉब कार्ड के अंदर मिल जाए। इससे फायदा यह होगा कि मज़दूरों को काम की कमी नहीं होगी। भूस्वामियों को मज़दूरों के पैसे काटने की संभावना नहीं होगी। भूस्वामियों को उत्पादन खर्च कम लगेगा जिससे किसानों की स्थिति सुदृढ़ होगी एवं पलायन भी कम होगा।
हमें यह सोचना होगा कि जब खेतों से सैकड़ों मील दूर इन हवाओं का हमारे स्वास्थ्य पर इतना असर हो रहा है, तो जो इंसान एवं परिवार उन खेतों में होंगे, उस क्षेत्र में होंगे उनकी क्या स्थिति होगी?
क्या उन्हें यह करने में आनंद आ रहा होगा? बिल्कुल नहीं, यह समय उन पर प्रतिबंध लगाने का नहीं बल्कि उनका हाथ पकड़कर विकल्प क्रियान्वित करने का है।