जी हां, हम जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के स्टू़डेंट्स, हॉस्टल फीस 10/20 से बढ़ाकर 300/600 और सर्विस चार्ज 1700 प्रति माह किए जाने के विरोध में दिल्ली की सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं।
कुछ मीडिया के बंधु कह रहे हैं कि प्याज 100 रुपए किलो है लेकिन साउथ दिल्ली में JNU के छात्र-छात्राएं हॉस्टल कमरे का चार्ज सिर्फ 20 रुपए प्रतिमाह देते हैं, देश के लिए ये बोझ हैं। वे कहते हैं कि JNU बड़ी सब्सिडी पर चलता है।
तो मेरे देश के सभ्य नागरिकों से अनुरोध है कि वे आगे के इस लेख को पूरा पढ़कर अपना विचार, अपनी राय बनाएं ना कि कुछ गोदी मीडिया की चीख चिल्लाहट से।
शिक्षा कोई वस्तु नहीं है
शिक्षा वस्तु नहीं है, जिसकी खरीद फरोख्त हो सके। अगर बड़ा उद्योगपति बैंक का हज़ारों करोड़ रुपया वापिस ना कर पाए तो उस सब्सिडी का बेलआउट कहते हैं और अगर ये सब्सिडी स्टूडेंट्स या किसानों पर कुछ करोड़ भी खर्च हो तो उसे बोझ कहते हैं।
शिक्षा किसी भी सभ्य लोकतांत्रिक समाज में सरकार का दायित्व है, उसी तरह जैसे हर माँ अपने बच्चे या बच्ची को निस्वार्थ पहली शिक्षा देती है वैसे ही ये सरकार की भी ज़िम्मेदारी है कि वह अपनी जनता को शिक्षा मुहैया करवाए। सरकार की ज़िम्मेदारी है कि भारत की जनसंख्या के वे 30% लोग जो गरीबी रेखा के नीचे गुज़र बसर करने को मजबूर हैं, उन्हें गरीबी के चक्रव्यूह से बाहर निकालने के लिए शिक्षा के सीढ़ी मुहैया करवाए।
JNU के लोगों को सब्सिडी क्यों?
अब आप कहेंगे कि JNU तो समृध लोगों के लिए है, तो इन्हें सब्सिडी क्यों? तो आपको बता दूं, JNU के करीब 40% स्टूडेंट्स के माता-पिता की सालाना आय 1,00,000 से कम है।
एक तथ्य और, इसमें हमें कोई गर्व नहीं महसूस होता लेकिन JNU में इस देश के कोने-कोने से मेधावी छात्र-छात्राएं आती हैं और इन छात्र-छात्राओं का राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा में भारी स्पर्धा के बाद यहां दाखिला मिलता है।
अब आप कहेंगे कि हम अभी-अभी बने टैक्स दाताओं (नव निर्मित माध्यम वर्ग) के पैसे पर क्यों पलें? क्योंकि किसी एक उच्च श्रेणी का विश्वविद्यालय एक उभरते हुए राष्ट्र को एक काबिल और ज़िम्मेदार श्रमिक देता है। JNU से निकले कुछ ऐसे ही नाम आपको गिनाता हूं,
- JNU के एक पूर्व छात्र जिन्हें हाल ही में अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया,
- देश की अर्थव्यवस्था संभालने वाली निर्मला सीतारमण,
- विदेश मंत्री सुब्रह्मण्यम जयशंकर,
- बड़े राजनीतिक पार्टियों के नेता,
- बड़े पत्रकार इत्यादि।
लेकिन हमें वीसी ने इसका इनाम दिया फीस वृद्धि का नोटिस देकर। वह इस विश्वविद्यालय को शिशु मंदिर के रास्ते पर चलाना चाहते हैं, जहां लाइब्रेरी को 12 बजे से पहले बंद कर दिया जाए। फिर वयस्क स्टूडेंट्स को उनकी कोठरी में जबरन घुसा दिया जाए। ऐसे बनेगा भारत विश्वगुरु।
शिक्षा मौलिक हक है कोई खैरात नहीं-
इस देश की उच्च शिक्षा के उत्तम संस्थानों में यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि गरीब का बेटा या बेटी वहां ना पढ़ पाए, ताकि मशरूम की तरह पैदा हो रहे प्राइवेट कॉलेज और विश्वविद्यालय में शिक्षा का धंधा चल सके। गरीब आबादी मूकदर्शक की तरह बस मंदिर-मस्जिद के रास्ते चले और कुछ बड़े लोगों के घर के या फैक्टरियों के सस्ते मज़दूर बन सकें, हमें यह मंज़ूर नहीं है।
पितृसत्ता वाले समाज में लड़कियों को एक आज़ाद माहौल
कल उप राष्ट्रपति महोदय ने कहा कि उन्हें खुशी है कि JNU में 51% छात्र महिलााएं हैं। सुनिए एक और पहलू, JNU में ऐसा क्या है कि यहां आकर तथाकथित ‘सुशील और आज्ञाकारी’ लड़कियां भी सड़क पर उतरकर, पुलिस की लाठियों और मीडिया की नकारात्मक छवि से निडर होकर, लड़कों से कहीं आगे हो “हल्ला बोलती हैं”?
ये लड़कियां अपनी आज़ादी के अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं, एक ऐसे समाज में जहां लड़कियों को पैदा होते ही बोझ मान लिया जाता है और उसके दहेज के लिए पैसा जोड़ना शुरू हो जाता है। ऐसे समाज में जब एक यूनिवर्सिटी इनको आर्थिक रूप से अपने परिवार के रहमोकर्म के मुक्ति दिलाती है तो फिर आपको सुनाई देता है, “हम क्या चाहते आज़ादी, पितृसत्ता से आज़ादी।
अब बात करते हैं, वंचित तबके की यानी दलित, पिछड़ा, आदिवासी व धार्मिक अल्पसंख्यकों (खासकर मुस्लिम) की। जी बिलकुल सही गौर फरमाएं, मैं जाति और सामाजिक हकीकत की बात कर रहा हूं। मैं बात कर रहा हूं इस देश के लगभग 70% तबके की, जो सदियों से हाशिए पर रहा है, जिनकी संख्या ज़्यादा होने के बावजूद इतिहास में उनका ज़िक्र नाम मात्र का ही होता है, जैसे एकलव्य, वाल्मीकि, फुले या अम्बेडकर। महात्मा फुले ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘गुलाम गिरी’ में बताया है कि शूद्र क्यों वंचित और गुलाम रह गएं-
विद्या बिना मति गयी, मति बिना नीति गयी।
नीति बिना गति गयी, गति बिना धन गया।
धन के बिना शूद्र ग़रीब हुआ,
इतना घोर अनर्थ मात्र अविद्या के कारण हुआ।
JNU या कोई भी संस्था, जो इन्हें सस्ती और उचित शिक्षा देता है, इनके लिए ये जगह लंदन या पेरिस से कहीं बढ़कर हैं, जहां एक चाय वाले का बेटा ना सिर्फ MPhil-PhD कर सकता है, बल्कि राष्ट्रीय अखबारों और न्यूज़ चैनल पर अपनी राय भी रख सकता है।
इस साल जितेंद्र सूना जो ना सिर्फ दलित वर्ग से है, बल्कि बंधुआ मज़दूरी के जीवन से निकलकर JNU छात्रसंघ का चुनाव लड़ता है। मेरा ही एक सबसे खास मित्र बीरेन्द्र, जो दलित और अथाह गरीबी की बेड़ियों को तोड़कर मेरे साथ JNU आया और आज विश्व की टॉप 50 संस्थानों में शामिल, निदरलैंड की एक संस्था में पढ़ और पढ़ा रह है।
हम अकेले नहीं हैं, बल्कि JNU ने मुझसे पहले बहुत वंचितों को भारत सरकार के मंत्रालयों के अधिकारियों, बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर की कुर्सियों से लेकर संसद तक और ना जानें किन-किन पदों पर पहुंचाया है। इस संस्थान की रिवायत के हम ताउम्र एहसानमंद रहेंगे इसलिए हम इस मोरल पुलिसिंग के खिलाफ हैं।
आखिर में, पूर्व JNU छात्र और जाने माने पत्रकार पी साईनाथ की एक बात,
हम JNU के छात्र अपनी ज़रूरतों से ज़्यादा मांगते हैं, अपने लिए नहीं इस दुनिया की आने वाली पीढ़ियों के लिए।
अपने Phd के आखिरी साल में मैं इस मुल्क में एक बेहतर संस्थान की संरचना के लिए विरोध प्रदर्शन में मौजूद हूं, क्योंकि अगर 2013
में फीस बढ़ी होती तो मैं MPhil के बाद ही JNU छोड़ देता। अंत में JNU वीसी मामीडाला से अनुरोध है कि वे सत्ताधर्म से हटकर संवैधानिक धर्म का पालन करें और 15 दिनों से विरोध कर रहे स्टेंड्टस से बात करें।