झारखंड राज्य प्राकृतिक संपदा से समृद्ध राज्य है। इसी कारण निजी कंपनियां अपने बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स को लेकर इस राज्य की ओर रुख करते हैं। इस दिशा में सरकार ने भी इन परियोजनाओं के लिए रास्ते साफ किए हैं।
राज्य के बनने के बाद सरकार ने 107 एमओयू सरकार ने साईन किए हैं, जिसमें 60% खनिज संपदा के दोहन के लिये हैं, जो जंगल के इलाके में अवस्थित हैं। ऐसे में जंगलों पर शामत आने वाली है और इन जंगलों के रक्षक आदिवासियों पर गाज गिर रही है।
माओवाद के नाम पर आदिवासियों के साथ ज़्यादती
माओवाद के नाम पर सरकार जंगल क्षेत्रों में रह रहे आदिवासियों को फंसा रही है। सरकार के लिये माओवाद चुनौती नहीं हैं बल्कि एक मौका है। उनका मकसद है खनन पर कब्ज़ा करना।
राज्य के गुमला, लोहरदगा, लातेहार, पलामू में बाॅक्साईट बड़े पैमाने पर हैं, जहां निजी कंपनियां आ रही है। ग्रामीण किसी भी सूरत में अपनी ज़मीन से बेदखल नहीं होना चाहते। आदिवासी जंगल में निवास करते हैं, जंगल ही उनके जीने का आधार है। सरकार की नीति के खिलाफ आदिवासी गोलबंद हो रहे हैं। उनके द्वारा एक आंदोलन की शुरुआत हो चुकी है जिसे जंगल बचाओ आंदोलन का नाम दिया गया है।
झारखंड में जल, जंगल और ज़मीन को बचाने के इस जंगल बचाओ आंदोलन के संयोजक जेवियर कुजूर के नतृत्व में यह आंदोलन तेज़ी से फैल रहा है। दरअसल, रांची एवं खुंटी ज़िले में मुंडारी खुटकट्टी जंगल को बचाने के लिये वर्षों से आंदोलन किया जा रहा है। मुंडारी खुटकट्टी जंगल की वापसी के लिए यह आंदोलन आदिवासियों का आंदोलन हैं।
मुंडारी खुटकट्टी जंगल को बचाने की लड़ाई
मुंडारी खुटकट्टी जंगल पर मालिकाना हक की लडाई मुंडा समुदाय दशकों से लड रहा है, जिसे सीएनटी ऐक्ट भी मान्यता देता है। मुंडारी में 500 गाँव हैं, जहां मुंडा समुदाय के लोग वर्षों से रहते आ रहे हैं। यहां वन विभाग, जंगल पर अपना हक मानता है।
आदिवासी एक्टिविस्ट कुजूर बताते हैं,
जंगल बचाओ आंदोलन की शुरूआत पूर्व सांसद और प्रख्यात चिंतक रामदयाल मुंडा ने की थी जिसमें संजय बसु मल्लिक और एलेस्टिर बोदरा ने प्रमुख भूमिका निभाई थी।
राज्य में आदिवासी जंगल बचाने में जुटे हैं। झारखंड में जल, जंगल और ज़मीन के अस्तित्व को बचाने में कई गैर सरकारी आदिवासी संगठन भी सक्रिय है। कुजूर ने बताया कि राज्य में वनाधिकार कानून को अमल में नहीं लाया जा रहा है। वन अधिकार कानून के तहत सामुदायिक वन अधिकार पट्टा अब तक किसी को नहीं दिया गया हैं। वन अधिकार कानून के तहत सामुदायिक पट्टा दिये जाने का प्रावधान है। देश के अन्य राज्य महाराष्ट्र, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक में सामुदायिक पट्टे दिये गये हैं।
जलवायु परिवर्तन और आदिवासियों का विस्थापन
राज्य में जलवायु परिवर्तन और आदिवासियों की स्थिति काफी निराशाजनक है। कुजूर बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन की दिशा में प्रयास नहीं किये जा रहे हैं। वह कहते हैं,
बिना आदिवासियों के प्रकृति को बचाना संभव नहीं है। जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरों के बारे में आदिवासी समुदाय को बताया जाना चाहिए। झारखंड में निजी कंपनी के खिलाफ हल्ला बोल कई बार किया जा चुका है जहां आदिवासी गोलबंद होकर कंपनी के विरोध में खड़े हुए है और हो रहे हैं।
आदिवासियों की समस्या और विस्थापन पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा,
विस्थापन का दंश झेल रहे आदिवासी अब और विस्थापित नहीं होना चाहते। जलवायु परिवर्तन का असर आदिवासी समुदाय पर कितना हुआ है, इसका विस्तार से अध्ययन करने की ज़रूरत है। जंगल आधारित विकास योजना जीविका के लिये अनिवार्य है। झारखंड में ग्राम सभा की सहमति के बिना जंगल की ज़मीन पर निजी कंपनी को हक दिलाया जा रहा है।
कुजूर ने बताया कि वन ग्रामों को राजस्व ग्राम के रूप में परिणत नहीं किया जा रहा है। झारखंड में मात्र 29 प्रतिशत जंगल है, जिसका रकबा 24 हजार वर्ग किलोमीटर है, जिसमें 4 हजार वर्ग किलोमीटर आरक्षित वन एवं 19 हजार वर्ग किलोमीटर संरक्षित वन है।
वे बताते हैं कि जंगल में रह रहे आदिवासी व मूलवासी ही जंगल का संरक्षण, संवर्धन और प्रबंधन कर रहे हैं और वन विभाग जंगल पर अपना हक जता रही है। जंगल बचाओ आंदोलन रांची के बुरमु, चान्होमांडर, खेलारी, सराय केला ज़िला के खरसांवा, कुचई, हज़ारीबाग ज़िला के चैपारण, बोकारो ज़िला के कसमार व जरीडीह, खुंटी ज़िला के अडकी सहित दर्जनों आदिवासी गाँव में ग्राम सभा कर जंगल बचाने में लगे हैं। वन विभाग की तर्ज पर वे अपना बोर्ड भी लगा चुके हैं।
आदिवासी सभ्यता को बचाने की ज़रूरत
कुजूर की माने तो जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए प्रकृति और आदिवासी सभ्यता को बचाने की ज़रूरत है। जंगल बचाओ आंदोलन के पक्ष में झारखंड वन अधिकार मंच एवं एकता परिषद, रांची खड़ा है।
कुजूर की सरकार से मांग है कि 5वीं अनुसूची एवं पेसा ऐक्ट को लागू किया जाये। ग्राम स्वराज आंदोलन भी जल, जंगल और ज़मीन को लेकर आंदोलनरत हैं। झारखंड में जल, जंगल, पहाड़ एवं नदियां विरासत में मिली है। वन्यजीवों के साथ आदिवासियों का संबंध वर्षों पुराना है।
ओज़ोन के बढ़ते प्रभाव को जंगल से रोका जा सकता है
पूरे विश्व में खासकर ईस्टर्न एशिया के देशों में जल, जंगल और जलवायु का मुख्य स्त्रोत प्राकृतिक संसाधन है। यूएनओ ने भी माना कि ओज़ोन के बढ़ते प्रभाव को जंगल से रोका जा सकता है।
झारखंड का जंगल से रिश्ता बहुत पुराना है।
- झारखंड के प्रमुख आदिवासी पर्व करमा और सरहूल प्रकृति प्रेम को दर्शाता है।
- झारखंड का भौगोलिक क्षेत्रफल 79.7141 वर्ग किलोमीटर है। यह देश का 2.42 प्रतिशत भू भाग है।
- फाॅरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया 2013 के अनुसार झारखंड में कुल वन क्षेत्र 23473 वर्ग किलोमीटर है, जो राज्य के भौगोलिक क्षेत्र का 29.47 प्रतिशत है।
वन संपदा और पेड़ों से भरपूर होने के कारण झारखंड में हरियाली है और राज्यों की तुलना में जलवायु परिवर्तन का असर कम है।
राज्य में वनारोपण अभियान के तहत पेड़ लगाए जा रहे हैं। अब तक राज्य में 5 करोड़ 57 लाख पेड़ लगाये गये हैं। जलवायु परिवर्तन एवं पर्यावरण की रक्षा की दिशा में सरकार प्रयास कर रही है।
वर्ष 2007 में पारित वन अधिकार अधिनियम को लेकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार आदिवासियों को वनों पर अधिकार देने की दिशा में प्रयास कर रही है। जलवायु और प्रकृति को बचाने की दिशा में सरकार की ओर से प्रयास हो रहे हैं लेकिन दूसरी तरफ आदिवासियों की ज़मीन और जंगल पर निशाना साधा जा रहा है।