हर समाज में कई ऐसी रीति-प्रथाएं होती हैं, जो लोगों को जोड़कर रखती हैं, उस समाज को अलग पहचान देती हैं। आदिवासियों के रिवाज़ बहुत अलग होते हैं। आदिवासियों में भी बहुत वर्ग होते हैं और हर समुदाय की अलग प्रथाएं भी होती हैं। 2011 जनगणना के अनुसार छत्तीसगढ़ की 30.6 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जनजाति की है और भूंजिया जनजाति छत्तीसगढ़ की बहुल जनजातियों में से एक है।
भूंजिया जनजाति में भी तीन अलग समुदाय होते हैं। ये हैं चोकटीया, खोलारझिया और चिन्डा। ये तीनों भूंजिया के नियम-कानून अलग हैं।चोकटिया भूंजिया भारत के छत्तीसगढ़ और ओडिशा में रहते हैं। चोकटीया बाकी दो समुदायों से अलग हैं, क्योंकि केवल चोकटीया में लाल बंगले बनाने का रिवाज़ है।
आइए, लाल बंगले के इस अद्भुत रिवाज़ के बारे में और जाने
यह जानकारी हमें 70 वर्ष के बुज़ुर्ग नंदू राम भूंजिया द्वारा प्राप्त हुई है, जो गरियाबंद में रहते हैं। बुज़ुर्गों का कहना है कि लाल बंगला देवी देवताओं का प्रमाण और उनकी देन है। इस लाल बंगले में सबकी आस्था और विश्वास बनी हुई है।
चोकटिया भूंजिया आदिकाल से लाल बंगला बनाते आ रहे हैं। वैसे तो यह रसोई-घर है पर इससे बहुत सारे रिवाज़ और आस्थाएं जुड़ी हुई हैं, जो इसे चोकटीया जनजाति में अलग स्थान देती हैं।
हर परिवार में होता है एक लाल बंगला
लाल बंगले में देवी-देवताओं की पूजा भी की जाती है। यह बंगला घर के मकान से अलग बनाया जाता है। हर परिवार में एक लाल बंगला होता है। लाल बंगले को छांने के लिए घास या खदर का उपयोग किया जाता है। लाल बंगला कच्ची दीवार का बना होता है। इसकी मिट्टी से छपाई करके मुरम को पानी में भिंगोकर लाल मुरम मिट्टी की पोताई की जाती है। यही मुरम मिट्टी बंगले को लाल रंग देती है।
तल वाले भाग को गाय के गोबर से लीपा जाता है। गाय के गोबर से लिपाई करने से कई प्रकार के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। इससे घर की सुंदरता भी बढ़ जाती है। आधुनिक विज्ञान भी यह मानता है कि गोबर की लेप से कई प्रकार के बैक्टीरिया नष्ट हो जाते हैं, इसलिए गोबर का उपयोग किया जाता है।
लाल बंगले में गोबर का महत्व
चूल्हे में आग जलाने से पहले चूल्हे की गोबर से लिपाई की जाती है। उसके बाद खाना पकाया जाता है। खाना पकने के बाद थोड़ा-सा खाना और सब्ज़ी पत्ता में निकालकर चूल्हे में देवी-देवताओं के नाम से डाल दिया जाता है, उसके बाद ही घर का कोई भी सदस्य खाना खाता है। लाल बंगले से बाहर निकाले हुए खाने को वापस लाल बंगले में नहीं लिया जाता। महिलाएं जब मासिक धर्म पर होती हैं, तब लाल बंगले में प्रवेश नहीं करती हैं। 4-5 दिनों के बाद जब मासिक धर्म खत्म होता है, तब नहा-धोकर, तेल और हल्दी लगाकर ही लाल बंगले में प्रवेश कर सकती या खाना पका सकती हैं।
लाल बंगले में चप्पल पहनकर नहीं जाते हैं। खाली पैर चलने की पुरानी प्रथा है। बुज़ुर्ग मानते हैं कि जंगल में खुले पैर चलने से कई जड़ी बूटियां पैर के नीचे वाले भाग को छूती हैं, जिससे कई प्रकार की बीमारियां नष्ट हो जाती हैं। जंगल में खुले पैर चलने से आराम और आज़ादी महसूस होती है और पैर भी मज़बूत होते हैं।
बंगले का लाल रंग खतरे का प्रतीक है। हालांकि, चोकटीया भूंजिया के लिए यह आस्था का घर है लेकिन अन्य समाज के लोग इसे नहीं छू सकते हैं, ना ही खाना पकाने के बर्तन को अन्य समाज के लोगों को छूने देते हैं। अगर कोई बाहरी व्यक्ति इसे छूता है, तो घर को जला देते हैं और इसे पूरी तरह से गिरा दिया जाता है। उसके बाद नया बंगला बनाते हैं।
नियम कानून को जानते हुए छूने से उस व्यक्ति को दुष्परिणाम मिल जाता है। उसे बहुत सारी परेशानियों को झेलना पड़ता है। हर त्यौहार में अपने-अपने देवी-देवताओं के पूजा-पाठ लाल बंगला में किए जाते हैं, इसलिए लाल बंगले को अन्य समाज के लोगों को छूने नहीं दिया जाता है। देवी-देवता जंगल, पहाड़, पर्वत में निवास करते हैं और उनको चोकटीया भूंजिया अपने घरों में भी सुरक्षा और आस्था के लिए स्थापित करते हैं।
श्री नंदू राम हमें बताते हैं कि आधुनिकरण से पहले और भी बहुत नियम थे। कुछ नियम समय और बदलते ज़रूरतों के हिसाब से बदल रहे हैं। यह थी छत्तीसगढ़ के चोकटिया भूंजिया के लाल बंगले और उसमें बसी आस्था की कहानी।
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लेखक के बारे में- खगेश्वर मरकाम छत्तीसगढ़ के मूल निवासी हैं। यह समाज सेवा के साथ खेती-किसानी भी करते हैं। खगेश का लक्ष्य है शासन-प्रशासन के लाभ आदिवासियों तक पहुंचाना। यह शिक्षा के क्षेत्र को आगे बढ़ाना चाहते हैं।