एक तरफ जहां पीरियड्स और महिलाओं से जुड़े अन्य मुद्दों पर चुप्पी टूट रही है, वहीं दूसरी ओर ट्रांस पुरुषों के प्रति जागरुकता की कमी भी देखी जा रही है। समाज को ट्रांस पुरुषों और माहवारी से संबंधित उनकी समस्याओं के प्रति अधिक सहानुभूति व्यक्त करने की ज़रूरत है। भारत में ना सिर्फ माहवारी को एक टैबू समझा जाता है, बल्कि इस विषय पर बहुत ज़्यादा बातचीत भी नहीं होती है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि समाज के कई शिक्षित लोगों को उनकी मान्यताएं उन्हें इस बारे में बात करने से रोकती हैं।
भारत में माहवारी और इससे जुड़ी समस्याओं को इस हद तक टैबू का रूप दे दिया गया है कि अधिकांश महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखा गया है।
एक तरफ तो हम उन महिलाओं के बारे में बात कर रहे हैं, जिन्हें माहवारी के दौरान टैबूज़ का सामना करना पड़ता है मगर हम उन ट्रांस पुरुषों की बात नहीं करते जिनका जन्म एक महिला के तौर पर हुआ और आगे चलकर उन्होंने पुरुष के रूप में अपनी पहचान बनाई। इस वजह से उन्हें कई प्रकार की परेशानियों का समाना करना पड़ता है और यहां तक कि अपनी पहचान की लड़ाई भी लड़नी पड़ती है।
ट्रांस पुरुषों की समस्याओं को किया जाता है अनदेखा
माहवारी महिलाओं के शरीर के साथ इस कदर जुड़ा हुआ है कि दुनिया के एक बड़े हिस्से द्वारा इस संदर्भ में ट्रांस पुरुषों की समस्याओं के बहिष्कार और उपेक्षा का भय बना रहता है। ट्रांस मेन जिन्हें माहवारी आती है, उन्हें कई परतों में सामाजिक शर्म का सामना करना पड़ता है। आलम यह है कि उन्हें अपनी माहवारी को समाज से छुपानी पड़ती है।ट्रांसजेंडर लोगों की आस्था और आध्यात्मिकता से जुड़ी संस्था ट्रांसफेथ के अनुसार, 36% गैर-बाइनरी लोगों ने भेदभाव का सामना करने के डर से स्वास्थ्य देखभाल की मांग करने से इनकार कर दिया है।
कई ऐसे ट्रांस मेन की भी पहचान हुई है जिनके ज़हन में जन्म से अलग अपनी मौजूदा आइडेंटिटी को लेकर बेचैनियों का भाव रहता है। वे अपनी मौजूदा सेक्स को लेकर अनकंफर्टेबल ज़ोन में रहते हैं। इस डिसॉर्डर को डिस्फोरिया कहते हैं।
डिप्रेशन से भी जूझते हैं ट्रांस मेन
ट्रांस मेन की माहवारी से जुड़ी समस्याओं पर बात करते हुए इस विषय पर जानकारी रखने वाले मेरे एक मित्र ने बताया, “माहवारी के दौरान जब उनका शरीर उनकी जेंडर आइडेंटिटी के साथ फिट नहीं बैठती है, तब वे असहज महसूस करते हैं, एक तरह से वे डिप्रेशन में चले जाते हैं।”
मेरे मित्र ने आगे बताया, “यह ज़रूरी नहीं है कि माहवारी के दौरान सभी ट्रांस बच्चेदानी को लेकर ऐसी समस्याओं के साथ दो-चार होते ही हैं। कई ट्रांस अपने घर पर अच्छा महसूस करते हैं लेकिन जो लोग जेंडर डिस्फोरिया का अनुभव नहीं करते हैं, उन्हें स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली (खासकर गाइनेकोलॉजी) में कठिनाइयों से जूझना पड़ता है।”
ये लोग अक्सर एक स्त्री रोग विशेषज्ञ को खोजने में कठिनाइयों का सामना करते हैं, जो उन्हें गर्भाशय और उसके रक्तस्राव से छुटकारा पाने में मदद कर सकते हैं। इसके अलावा, हिस्टेरेक्टॉमी में बहुत खर्च होता है और अक्सर सर्जरी में जटिलताएं होती हैं। यहां तक कि स्वास्थ्य बीमा की कंपनियां भी इस सर्जरी को कवर नहीं करती हैं। रोज़मर्रा के जीवन में ट्रांस मेन से जुड़ी एक और जटिल समस्या यह है कि पुरुषों के वॉशरूम में सैनिटरी पैड को कैसे डिस्पोज़ करें।
ट्रांस मेन के प्रति हमारी संवेदनशीलता शून्य
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से देखने पर मालूम पड़ता है कि ट्रांस समुदाय को काफी संघर्षों का सामना करना पड़ा है। सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे पाठ्यक्रमों में भी ट्रांस मैन और उनकी माहवारी से जुड़ी समस्याओं का ज़िक्र नहीं है। ऐसे में अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ट्रांस मेन के सम्मान और गरिमा को लेकर हम कितने संवेदनशील हैं। हमें एक जेंडर न्यूट्रल वातावरण का निर्माण करना है। हमें एक ऐसा वातावरण बनाने की ज़रूरत है, जो जेंडर न्यूट्रल ज़्यादा हो।
शिक्षा प्राथमिक स्तर पर शुरू होनी चाहिए, चाहे वह स्वास्थ्य देखभाल, सार्वजनिक वॉशरूम की व्यवस्था या समग्र रूप से समाज का रवैया हो, हमें मासिक धर्म के प्रति अधिक संवेदनशील होना चाहिए। अंत में हमें यौन शिक्षा के लिए अधिक समावेशी दृष्टिकोण की आवश्यकता है।