भारतीय समाज में जातियों के साथ पूर्वाग्रही मानसिकता सदियों से रही है। देश गुलामी की बेड़ियों से आज़ाद भी हुआ मगर ना परंपराएं बदलीं और ना ही प्रथाएं। इसका खमियाज़ा उन ऐतिहासिक नायकों को सबसे अधिक भुगतना पड़ा जिन्होंने आज़ाद मुल्क का सपना देखा और आने वाली पीढ़ियों के लिए अपना सब कुछ लुटा दिया। ऐसे में यदि महिलाओं की बात होती है फिर तो इतिहास में उनके आत्म-संघर्ष की कहीं कोई चर्चा ही नहीं होती है।
इतिहास के बंद ताबूतों से दलित चिंतकों ने उस विरांगना का इतिहास बुंदेलखंड की लोक कथाओं और लोक गीतों से खोज निकाला, जो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में महिला शाखा दुर्गा की सेनापति थी। वह लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं जिस कारण शत्रु को धोखा देने के लिए रानी के वेश में युद्ध करती थीं। अपने अंतिम समय में भी वो रानी लक्ष्मीबाई के वेश में युद्ध करते हुए अंग्रेज़ों के हाथों पकड़ी गईं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया।
जब झलकारी बाई से प्रेरित हुईं रानी लक्ष्मीबाई
झलकारीबाई ना तो किसी रानी ते घर पैदा हुई थीं और ना ही किसी जागीदार के घर, उनका जन्म 22 नवम्बर 1830 भोजला गाँव में मूलचंद और लहकारी बाई के घर में हुआ था। उनके घर में कपड़ा बुनने का काम होता था। उस समय के समाज में जाति आधारित मानसिकताओं के वर्चस्व के कारण पढ़ना-लिखना सबों के लिए संभव नहीं था। इसलिए झलकारी बाई परिवार के परंपरागत कामों में सहयोग करने के साथ-साथ घर के कामों में भी उनकी मदद करती थी।
लोक कथाओं में कहा जाता है कि विवाह से पहले झलकारी बाई घर के प्रयोग के लिए लकड़ी चुनने जब जंगल गईं, तब बाघ से उन पर हमला कर दिया। झलकारी ने बाघ का सामना किया और कुल्हाड़ी से मार दिया। यह खबर दूर-दूर तक फैल गई जिसके बाद लक्ष्मीबाई को भी इस बारे में जानकारी मिली।
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बाल विवाह के रिवाज़ के कारण उनका विवाह पूरन नाम के कम उम्र के नौजवान से कर दिया गया। पूरन भी एक बहादुर सैनिक था। गौरी पूजा के अवसर पर जब झलकारी बाई गाँव की महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झांसी के किले में गईं, तब रानी लक्ष्मीबाई उनको देखकर अवाक रह गईं क्योंकि दोनों एक-दूसरे के प्रतिरूप दिखती थीं। झलकारी के साहस के किस्से उन्होंने सुन रखे थे। रानी ने झलकारी को दुर्गा सेना में शामिल होने का आदेश दिया, जिसके बाद झलकारी ने युद्ध के लिए प्रशिक्षण लिया।
चूंकि झलकारी बाई की शक्ल रानी लक्ष्मीबाई से मिलती-जुलती थी, इसलिए मराठी स्त्री की वेश में सज धजकर घोड़े पर सवार होकर हाथ में तलवार लेकर वह जनरल ह्यूरोज़ से मिलने चली जाती थी। यह वह दौर था जब झांसी की सेना ब्रिटिश सरकार के खिलाफ युद्ध लड़ने के लिए अपनी सेना बना रही थी।
लगातार 12 घंटे तक युद्ध में डटी रहीं झलकारी बई
युद्ध में वो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की ढाल बनीं, अंग्रेज़ों को लगा कि उन्होंने लक्ष्मीबाई को पकड़ लिया है मगर यह झलकारी बाई की रणनीति थी, जिससे लक्ष्मीबाई को ताकत जुटाने का वक्त मिल सके। लोक कथाओं में कहते हैं कि झलकारीबाई बारह घंटे तक युद्ध करती रहीं। अंग्रेज़ समझते रहे कि वे लक्ष्मीबाई से युद्ध कर रहे हैं।
जनरल ह्यूरोज़ ने उनकी वीरता से प्रभावित होकर कहा, “यदि भारत की एक प्रतिशत महिलाएं भी झलकारी बाई जैसी हो जाएं तो ब्रिटिश सरकार को जल्द ही भारत छोड़ना होगा”
मुख्यधारा के इतिहासकारों ने झलकारी बाई के योगदान पर बहुत विस्तार से बात नहीं की है लेकिन आधुनिक स्थानीय लेखकों ने समय-समय पर उन पर लिखने का काम किया है। श्रीमाता प्रसाद जो अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल रह चुके हैं, झलकारी बाई की जीवनी की रचना करने के साथ-साथ उन पर डाक टिकट भी जारी किया। चोखेलाल वर्मा ने उनके जीवन पर एक काव्य लिखा है, भवानी शंकर विशारद ने उनके जीवन परिचय को लिपीबद्ध किया है। यहां तक कि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त झलकारी बाई के बारे में लिखते हैं,
जाकर रण में ललकारी थी, वह झांसी की झलकारी थी
गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी
नोट : इस लेख में प्रयोग किए गए तथ्य गेट वूमेन इन इंडिया, वीरांगना झलकारी बाई से लिए गए हैं।