JNU एक ऐसा शिक्षण संस्थान जिसने इस देश को बड़े राजनेता, अधिकारी, शिक्षक, बुद्धिजीवी, पत्रकार, अर्थशास्त्री और वैज्ञानिक दिए। यही नहीं, इस संस्थान का झंडा विश्वपटल पर तब फिर एक बार तब लहराया जब इसके एक पूर्व स्टूडेंट को हाल ही में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया।
वैचारिक असहमतियां हों या सामाजिक-राजनीतिक आदोलनों का डर, सरकार ने इस प्रतिष्ठित संस्थान को अपना प्रतिद्वंदी मान लिया है। असल में JNU ही तो है जिसकी वजह से संसद में भारी बहुमत से जीतकर आई सरकार को विपक्ष ना होने का भ्रम पालने की अनुमति नहीं देता।
JNU से एक तबके को दिक्कत क्यों?
आपातकाल हो या 1984 के सिख दंगे, निर्भया आंदोलन हो या भ्रष्टाचार विरोधी आंजोसन, JNU के स्टूडेंट्स से लेकर अध्यापक तक सदा से देश की पीड़ित जनता के साथ अन्याय के खिलाफ खड़े पाए गए हैं। लेकिन देशभर के सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी के बावजूद भी इस संस्थान ने पूरी दुनिया में अपनी आकादमिक, तर्कशीलता एवं उत्कृष्ट शोध का लोहा मनवाया है।
2017 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा JNU को A++ ग्रेड से नवाज़ा गया था, जो 2022 तक मान्य होगा। इसी के साथ NAAC की रैंकिंग में JNU को देश का सबसे उत्कृष्ट संस्थान स्वीकारा गया। यह स्वीकारने में कोई परहेज नहीं कि JNU से पढ़े हुए स्टूडेंट्स को दुनिया बाहें खोलकर अपनाती है। दुर्भाग्यवश देश की वर्तमान सरकार और समाज के एक वर्ग को इस संस्थान से खासी दिक्कत है।
यह वह दौर है जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य और लोकहित से जुड़े लगभग सभी क्षेत्रों का निजीकरण कर उन्हें पूंजीपतियों के हवाले किया जा रहा है। सरकारी महाविद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों को दिए जाने वाले ग्रांट्स और फंड्स को छीनकर निजी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को सौंपा जा रहा है। इसका दुष्परिणाम यह होगा कि समाज के सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों के लिए शिक्षा एक सपना मात्र रह जाएगी।
फिलहाल सरकारी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की बेतहाशा बढ़ती फीस उन्हीं दुष्परिणामों की ओर इशारा कर रही हैं। JNU देश के गिने चुने ऐसे संस्थानों में से एक है, जहां देश के किसी भी कोने से किसी भी सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाला व्यक्ति आकर पीएचडी जैसी प्रतिष्ठित डिग्री हासिल करता है।
JNU जहां मज़दूर का बेटा देश का कल बनता था
क्या हमारी शिक्षा की परिकल्पना ऐसी नहीं होनी चाहिए जिसमें राष्ट्रपति और मज़दूर का बच्चा एक जगह, एक जैसी शिक्षा बिना भेदभाव और पूरे सम्मान से ग्रहण कर सके? JNU में बेतहाशा फीस बढ़ाकर सरकार ना सिर्फ गरीबों और पिछड़ों के सपनों को कुचल रही है, बल्कि उनके पेट भी पर लात मार रही है। ऐसे में “सबके लिए शिक्षा” की मांग को लेकर JNU के स्टूडेंट्स सड़कों पर उतरने को मजबूर हैं।
सरकार पुलिस द्वारा देश के उन भविष्य पर बलपूर्वक लाठी चलवा रही है, जिन्हें JNU तराश रहा है। हर एक लाठी के प्रहार के साथ गरीबों, पिछड़ों, महिलाओं के शिक्षा ग्रहण करने के टूटते सपने की निराशाजनक आवाज़ आती है। इन स्टूडेंट्स के फूटते हुए सिर और टूटते हुए हाथ पैर देखकर भी लोगों की नफरत इस संस्थान से खत्म होने का नाम नहीं ले रही है।
कुछ लोग तो ऐसे हैं जो इस हिंसा का जश्न मना रहे हैं। कई लोग सरकार और पुलिस को इस कृत्य के लिए शाबाशी दे रहे हैं। जनता की नज़रों के सामने कुछ ऐसे परदे हैं, जिन्हें अगर तुरंत नहीं हटाया गया तो यह समाज अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेगा।
कुछ लोगों को JNU की फीस टैक्स के पैसे पर भार लगने लगा है जिसे कुछ करदाता उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें यह समझना होगा कि इस सोच में अनगिनत खामियां हैं। हमें यह समझना होगा कि हमसे कर इस आश्वासन के साथ वसूला जाता है कि सरकार यह पैसा जनता के हित में खर्च करेगी। जब सरकार यही पैसा JNU जैसे शिक्षण संस्थानों पर खर्च करती है, तो क्यों हम अपने हाथ पीछे खींच लेते हैं? क्या शिक्षा जनहित का मुद्दा नहीं है? क्या हमें, आपको, हम सभी को, हमारे आने वाली पीढ़ियों को शिक्षा नहीं चाहिए?
हो सकता है कि आज आप फीस बढ़ोत्तरी का समर्थन कर रहे हैं। मुमकिन है कि यह बढ़ी हुई फीस आपको ज़्यादा नहीं लग रही लेकिन इस बढ़ोतरी का कोई अंत नहीं है। हर साल शिक्षा पर सरकार द्वारा खर्च किया जाने वाला बजट घटाया जाएगा और हमारी आपकी जेबें ढीली की जाती रहेंगी।
आज नहीं तो कल देश के अधिकांश परिवार यह फीस वहन नहीं कर पाएंगे और शिक्षा उनके बच्चों की पहुंच से बहार हो जाएगी। सिर्फ कुछ पूंजीपति और कुछ कॉरपोरेट ही रह जाएंगे जो अधिकांश अशिक्षित जनता पर राज करेंगे। अगर आपको लगता है कि यह समस्या सिर्फ गरीबों तक सीमित है, तो माफ कीजिये। आज नहीं तो कल मध्यमवर्ग और उच्च मध्यमवर्ग को भी इसकी मार झेलनी पड़ेगी।
कुछ लोगों को लगता है कि JNU के स्टूडेंट्स तीस-चालीस की उम्र तक पढ़ाई करते हैं, वे निकम्मे और नालायक होते हैं। हम लोग बचपन से सुनते आ रहे हैं कि पढ़ने और सीखने की कोई उम्र नहीं होती है। इस लिहाज़ से कौन किस उम्र में पढ़ना चाहता है ये वही तय करें, उसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
साथ ही यह भी समझना चाहिए कि भारत वह देश है जहां आज भी बच्चे भूख से मरते हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में हमारा प्रदर्शन किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में बहुत से ऐसे लोग हैं जो लगातार अपनी डिग्रियां पूरी नहीं कर पाते हैं। कुछ लोग एक डिग्री करने के बाद नौकरी कर अपनी और अपने परिवार की आर्थिक हालत को सुधारने की कोशिश करते हैं। हालातों में बेहतरी के साथ ही ये लोग फिर अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए JNU जैसे संस्थानों में दाखिला लेते हैं।
ऐसे में क्या यह नाइंसाफी नहीं है कि हम उम्र की पाबंदियों को थोपकर उसे शिक्षा से वंचित कर दें ? क्या कम उम्र में जिन महिलाओं की शादी कर दी गयी उन्हें अपने बच्चों के साथ अपनी पढ़ाई पूरी करने का अधिकार नहीं है?
शोध यानी रिसर्च कोई एक या दो दिन का काम नहीं है। शोध पर समाज और विज्ञान टिका है, बदलाव टिके हैं, बेहतरी और विकास टिका है। क्या समाज को बेहतर बनाने के लिए काम करने वालों को सिर्फ इसलिए रोक दिया जाना चाहिए क्योंकि उनकी उम्र ज़्यादा है?
JNU में कुछ लोग ऐसे हैं जो अपनी नौकरी पूरी करने के बाद रिटायरमेंट लेकर पढ़ने आते हैं। क्या पढ़ाई और शिक्षा के प्रति उनके जज़्बे और जुनून को उनकी उम्र की वजह से नज़रअंदाज़ कर दिया जाना चाहिए?
इन पहलुओं पर हर नागरिक द्वारा गहन चिंतन किया जाना चाहिए। आत्मावलोकन के ज़रिये तय किया जाए कि वे JNU जैसे संस्थानों के साथ खड़े होकर शिक्षा को निजीकरण से बचाने की लड़ाई में भागीदार बनना चाहते हैं या अपनी गलतफहमियों के चलते शिक्षा को कॉरपोरेट के हाथों बिकते देखना चाहते हैं?
यह लड़ाई उनकी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य की दशा और दिशा तय करने वाली है। अगर आज का भारत JNU के साथ खड़ा नहीं हुआ, तो आने वाली पीढ़ियों को भी सड़कों पर उतरना पड़ेगा, पुलिस की लाठियां खानी पड़ेंगी। शायद जब वो पीढ़ियां इस समाज से जवाब मांगेंगी तब अंततः उसे JNU की ओर ही देखना पड़ेगा।