सोचिए जब हम और आप रोज़े या व्रत के अनुभव से गुज़र रहे हों, तब बढ़ती भूख और प्यास हमारे सब्र के आगे हार जाती है। हारे भी क्यों नहीं! आखिर हमारी इस तपस्या को अंजाम तक पहुंचाती है हमारी श्रद्धा, जो खुद टिकी है उस इनाम पर जिसे हम व्रत के समापन पर स्वादिष्ट व्यंजनों के रूप में स्वीकारते हैं।
लेकिन उनका क्या जिनको स्वादिष्ट व्यंजनों का इनाम ही नहीं मिलता? वे भी तो भूखे प्यासे रहते हैं। उन्हें कई-कई दिनों तक अन्न का दाना भी नसीब नहीं होता है। यहां तक कि देखते ही देखते उन्हें देह त्यागना पड़ जाता है। भूख से देह त्यागने का ज़िक्र होने पर झारखंड काफी प्रासंगिक हो जाता है जहां मोटका मांझी भूख-भूख कहकर पत्नी अलावती देवी से भोजन मांगते-मांगते तब देह त्याग देते हैं, जब मायूस पत्नी चावल का एक दाना भी नहीं पका पाती हैं।
जब घर में एक भी दाना उपलब्ध ना हो, तब चावल पके कैसे? उपलब्ध हो भी कैसे? झारखंड की उपराजधानी दुमका के जामा ब्लॉक में मोटका मांझी मृत्यु के दिन तक पांच बार घर से 5 किलोमीटर दूर सरकारी राशन स्टोर राशन लेने गए लेकिन, राशन के नाम पर वह मायूसी लेकर घर वापस लौटे।
कारण पूछने पर पता चला कि इंसानों की भूख को गुलाम बना चुकी राशन स्टोर की बायोमेट्रिक मशीन मोटका मांझी की उंगलियों के निशानों को पढ़ नहीं सकी। अरे वह मशीन है पढ़ेगी कैसे? जब ईंटें बनाने का काम करने वाले मोटका मांझी के खुद के उंगलियों के निशान ही खत्म होकर उन्हें दगा दे गए फिर मशीन तो मशीन है।
क्या कहती हैं राशन स्टोर की संचालिका?
सरकारी राशन स्टोर संचालिका पंसुरी मुर्मू के अनुसार मोटका मांझी की उंगलियों के निशान ई-पॉस मशीन में मैच ना होने पर उन्हें ऑनलाइन अपडेट करने के लिए कहा गया था लेकिन वह अपडेट कर नहीं आए।
अपडेट ना करा पाने का कारण?
मोटका मांझी को ऑनलाइन अपडेट करवाने के लिए जामा ब्लॉक में अपने गाँव से चार मील की यात्रा कर एक निजी केंद्र में जाना पड़ता, जिसके लिए उसे कम-से-कम एक दिन की संभावित मज़दूरी से हाथ धोना पड़ता।
वह मज़दूरी जिससे वह भोजन हेतु कुछ कमा सकता था। यही नहीं, केंद्र पर जाने से इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि सिस्टम, जो अक्सर नेटवर्क आउटेज से ग्रस्त होता है, ठीक से काम कर रहा होगा या नहीं। अब इन हालात में मोटका हों या कोई और, उन्हें मजबूरन अन्न से महरूम होना पड़ता था।
जबकि बायोमेट्रिक लागू ना होने से पहले मांझी और अन्य निम्न-आय वाले आदिवासियों को सब्सिडी वाले अनाज लेने के लिए केवल कागज़ों की आवश्यकता होती थी। लेकिन भारत में बायोमेट्रिक लागू करवाने वाली कल्याण प्रणाली नाटकीय बदलाव लेकर आई। इन बदलावों ने एक के बाद एक झारखंड के दर्जनों आदिवासियों की जानें लीं।
आधार पर भारत सरकार का तर्क: यह प्रणाली कल्याण में क्रांति लाएगी
सरकार का मानना है कि यह प्रणाली धोखेबाज़ों को अन्य लोगों के लाभों को छीनने से रोकेंगे, जिससे अधिक धन गरीबों तक पहुंच सकेगा लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि प्रणाली का डिज़ाइन त्रुटिपूर्ण है और जो तकनीकी गड़बड़ियों से भरा हुआ है।
जिस व्यक्ति के पास आधार वाली 12 अंकीय संख्या बायोमेट्रिक और जनसांख्यिकीय डेटा से जुड़ी हुई है, उसे ही राशन पाने का अधिकार है। 2009 में शुरुआत के बाद से यह योजना इतनी तेज़ी से बढ़ी कि अब 1.2 बिलियन से अधिक लोग इसके जुड़ चुके हैं, जिसका दम केंद्र से लेकर राज्य सरकारें दिखाती आई हैं मगर अफसोस मोटका मांझी जैसे प्राइम ट्राइबल की मौतों पर उफ्फ तक नहीं करतीं।
अर्थशास्त्रियों और गरीबी विशेषज्ञों द्वारा उठाए गए गंभीर चिंताओं के बावजूद प्रणाली का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। अब पेंशन से लेकर चिकित्सा प्रतिपूर्ति या आपदा आपातकालीन राहत हेतु किसी भी ज़रिया तक पहुंचने का एक मात्र रास्ता आधार है।
क्या कहती हैं विशेषज्ञ?
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट अहमदाबाद में अर्थशास्त्र की एसोसिएट प्रोफेसर रेतिका खेरा ने कहा,
आपके बारे में निर्णय एक केंद्रीकृत सर्वर द्वारा किए जाते हैं और आप यह भी नहीं जानते कि क्या गलत हुआ है। लोग नहीं जानते कि क्यों कल्याण सहायता बंद हो गई है और तो और वे यह भी नहीं जानते कि समस्या को ठीक करने के लिए किसके पास जाना है।
22 मई को क्या हुआ था?
22 मई को पत्नी अलावती देवा से भोजन मांगते-मांगते फूस की छत के नीचे मिट्टी के फर्श पर मोटका मांझी निढाल होकर बैठे-बैठे गिर गए। पड़ोसी मदद करने के लिए दौड़े, बेसुध हो चुके मोटका मांझी को पुनर्जीवित करने की कोशिश तेज़ हुई। एम्बुलेंस से उन्हें अस्पताल ले जाया गया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
कमाल ये रहा कि किसी ने उनकी मृत्यु का कारण घोषित नहीं किया लेकिन परिवार का मानना है कि यह भुखमरी थी। कारण भी है कि जब काम की तलाश में निकले मोटका काम ना मिलने पर वापस घर आए, तब उन्होंने कहा कि मुझे खाना दो नहीं तो मैं मर जाऊंगा।
यह कहते-कहते अलावती देवी रो पड़ीं। वह कहती हैं, “भोजन के रूप में उनके पास देने के लिए कुछ भी नहीं था। सच तो यह है कि वह भोजन की कमी के कारण कुपोषित था और उन्हें कोई अन्य बीमारी भी नहीं थी।”
क्या कहते हैं सामाजिक कार्यकर्त्ता बिजय कापड़ी?
सामाजिक कार्यकर्ता बिजय कापड़ी कहते हैं,
मोटका मांझी जब जीवित थे, तब उनका परिवार अपररागिनी गाँव में एक साथ रह रहा था लेकिन अब दो बेटे अलग रहते हैं। मोटका मांझी की पत्नी छोटे बेटे के साथ रहती हैं, जो विवाहित नहीं है। देवी पेंशन की हकदार हैं लेकिन उन्हें इसका लाभ नहीं मिलता है।
झारखंड में सामाजिक नीति पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्त्ता सिराज दत्ता ने कहा, “भुगतान हमेशा एक मुद्दा था। वह चाहे आधार लागू होने से पहले का हो या बाद का। बल्कि आधार लागू होने के बाद समस्याएं और बढ़ गई हैं।”
मोटका मांझी की मौत के बाद अब क्या?
अलावती देवी के परिवार को इंसाफ दिलाने हेतु समर्थन मिल ज़रूर मिल रहा है लेकिन अलावती देवी ने कहा कि उनके पास आधिकारिक तौर पर सही राशन कार्ड नहीं हैं। कार्यकर्ताओं द्वारा मीडिया के माध्यम से मांझी की मौत के बारे में जागरूकता बढ़ाने के बाद कुछ चीज़ें बदल गईं हैं लेकिन कोई स्थाई हल अभी तक नहीं निकाला गया है।
मोटका मांझी की मौत को कुछ दिनों में लोग भूल जाएंगे फिर परिवार भी सब कुछ भूल जाएगा लेकिन स्थाई हल ना होने से ऐसे सैकड़ों परिवारों को फिर अचानक किस मुसीबत का सामना करना पड़ेगा, कोई नहीं जानता।
मुद्दा सिर्फ यह नहीं है कि राशन नहीं मिला और मोटका मांझी की मौत भूख से हो गई, बल्कि मुद्दा तो यह है कि इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी इस प्राइम ट्राइबल के साथ आज तक न्याय नहीं हुआ है।
जीन ड्रेज और रेतिका खेड़ा के शोध से अनुमान लगाया जा सकता है कि झारखंड में गरीब परिवारों के लिए 85% अनाज वित्तीय वर्ष 2004-05 में उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंचा लेकिन आधार की शुरुआत से पहले यह आंकड़ा पहले से बेहतर हो रहा था और आधार लागू होने के बाद 2011-12 तक गिरकर 44% हो गया था।