महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह का कल यानी कि 14 नवंबर 2019 को पटना के पटना मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल (पीएमसीएच) में निधन हो गया। निधन के एक रात पहले ही उनकी स्थिति काफी गंभीर हो गई थी जिसके बाद आज सुबह डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।
उनके परिजनों द्वारा बताया गया कि पीएमसीएच में उन्हें मृत घोषित करने के बाद, उनके पार्थिव शरीर को बाहर निकाल दिया गया जिसके बाद घंटों तक अस्पताल प्रशासन द्वारा उन्हें एंबुलेंस उपलब्ध नहीं कराया गया।
घंटों तक बाहर पड़ा रहा गणितज्ञ वशिष्ठ का पार्थिव शरीर
यह उसी गणितज्ञ का मृत शरीर था जिसने आंइस्टीन के सापेक्ष सिद्धांत को चुनौती दी थी, वही वशिष्ठ नारायण जिनका एक किस्सा हमेशा याद किया जाता है कि कैसे नासा में अपोलो की लॉन्चिंग से पहले जब 31 कंप्यूटर कुछ समय के लिए बंद हो गए थे, तब कंप्यूटर ठीक होने पर उनका और कंप्यूटर्स का कैलकुलेशन एक था।
इसी महान गणितज्ञ का पार्थिव शरीर अस्पताल के बाहर घंटों पड़ा था लेकिन प्रशासन ने सिंह के परिजनों को एंबुलेंस तक मुहैया कराने की औपचारिकता नहीं निभाई। इस घटना पर कई लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया दी और प्रशासन और सरकार के खिलाफ अपनी नाराज़गी जताई।
ऐसे में डॉ कुमार विश्वास ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, गिरीराज सिंह, अश्विन चौबे और बीजेपी के एक नेता को टैग करते हुए एक ट्वीट किया।
उफ्फ, इतनी विराट प्रतिभा की ऐसी उपेक्षा? विश्व ने जिसकी मेधा का लोहा माना उसके प्रति उसी का बिहार इतना पत्थर हो गया?
कवि डॉ कुमार विश्वास ने यह ट्वीट बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, गिरीराज सिंह, अश्विन चौबे और बीजेपी के एक नेता को ट्वीट लिखते हुए किया।
उफ़्फ़, इतनी विराट प्रतिभा की ऐसी उपेक्षा? विश्व जिसकी मेधा का लोहा माना उसके प्रति उसी का बिहार इतना पत्थर हो गया? @NitishKumar @girirajsinghbjp @AshwiniKChoubey @nityanandraibjp आप सबसे सवाल बनता हैं ! भारतमाँ क्यूँ सौंपे ऐसे मेधावी बेटे इस देश को जब हम उन्हें सम्भाल ही न सकें? https://t.co/mg6Pgy4VEm
— Dr Kumar Vishvas (@DrKumarVishwas) November 14, 2019
स्वास्थ सेवाओं की बदहाल तस्वीर
यह 21वीं सदी का हिन्दुस्तान है, जो चांद सितारों पर जाने की बातें करता है, मंगलयान भेजता है लेकिन एक व्यक्ति की मौत के बाद अंतिम संस्कार के लिए अस्पताल से घर शव ले जाने के लिए गाड़ी तक मुहैया नहीं करवा पाता है। ये पूरे सिस्टम का राम नाम सत्य नहीं है तो भला और क्या है?
बिहार ही नहीं, देश के कई राज्यों की स्वास्थ्य सेवाओं का हाल यही है। आए दिन सोशल मीडिया पर बदहाल स्वास्थ सेवाओं की तस्वीरें शेयर होती रहती हैं, जिसपर लोगों की तुरंत प्रतिक्रिया भी आ जाती है,
देश की स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने के लिए उनका निजीकरण कर देना चाहिए, बेकार में सरकारें इसका बोझ उठा रही है क्योंकि इसकी कमर व्यवस्था ने इस कदर तोड़ दी है कि कुछ भी नहीं किया जा सकता।
देश के राज्यों की स्वास्थ्य सेवा कौमा में है। अभी जब वह इससे बाहर निकलेगी, तो वह खुद को निजी सेवा में ही पाएगी। इसकी तैयारी सरकारों ने कर रखी है क्योंकि अभी किसी भी असफलता से निकलने का मूलमंत्र सरकार के पास उसको खुद को निजी हाथों में सौंपना ही है।
मृत बीवी को कंधे पर ले जाने वाले मांझी
बहरहाल, देश के नागरिकों को एंबुलेंस सेवा उपलब्ध नहीं होने के कारण अपने निजी प्रयास से कभी साइकिल, कभी ठेला, कभी खाट या मृतक के परिजन द्वारा कंधे पर उठाकर ले जाते हुए देखा गया है। जिसकी शुरुआत ओडिशा के दाना मांझी से हुई थी।
मांझी के पास गाड़ी करने के पैसे नहीं थे इसलिए अपनी बीवी की लाश को वह कंधे पर लाद कर ले गए थे। मैं उन्हीं मांझी की बात कर रहा हूं जिनको बाद में यह कहकर रफा-दफा कर दिया गया कि उन्होंने गाड़ी का प्रबंध होने तक इंतज़ार नहीं किया था।
उस वक्त जो दाना मांझी अपने कंधे पर अपनी बीवी की लाश समेटे, देश में हर किसी के ड्राइंग रूम में घुस आया था, वह अब गायब किया जा चुका है। ज़ाहिर है देश में स्वास्थ सेवाओं में लापरवाही और एंबुलेंस सेवा से सरकार और समाज पर असर नहीं हो रहा है या यह कहा जा सकता है कि जब इन सबके बिना ही राष्ट्रवाद हो रहा है, तो इस समस्या पर ध्यान ही क्यों दिया जाए?
पूरे देश में इस तरह के समूचे घटनाक्रम, पूरे तंत्र पर सवाल ही नहीं खड़ा करते हैं बल्कि इस मौजूदा तंत्र को अमानवीय, नकारा और अपंग भी साबित करते हैं, जिसकी निंदा करने के लिए शायद ही किसी शब्दकोश में कोई समानांतर शब्द दिखे।
क्यों ऐसी स्थिति बन रही है?
बड़ा सवाल यह बनता है कि देश में किसी भी राज्य में यह स्थिति क्यों और कैसे निर्मित हो रही है? इसके पीछे कौनसा मूल तत्व और कारक है? यह बात गहराई से समझने की ज़रूरत है कि इस देश की राजनीति में धर्म, जाति और क्षेत्रीयता के विचारों का ही वर्चस्व रह गया है। विकास, जनकल्याण व गरीबी मुक्ति की सोच अब गए ज़माने की बात है।
तमाम राजनीतिक पार्टियां अपने चुनाव अभियान के समय शुरुआत में तो विकास और जन कल्याणकारी नीतियों के साथ करती है परंतु अंत में इसके केंद्र में
- धर्म,
- जाति
- और क्षेत्रवाद का ही वास होता है।
इसलिए कुछ राज्यों में जानवरों के लिए एंबुलेस सेवा तत्परता से काम करती दिखती है लेकिन इंसान के लिए नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि कुछ जानवर राजनीतिक ध्रुवीकरण का हिस्सा हैं पर इंसान की लाश राजनीति में वोटों के ध्रुवीकरण का हिस्सा नहीं है।
मैं यह नहीं कह रहा कि राज्यों को जानवरों के प्रति संवेदनशील नहीं होना चाहिए, अवश्य होना चाहिए परंतु मानवीय संवेदना को झकझोर देने वाली पीड़ा में, उसके जीवन की अंतिम यात्रा में राज्य, सरकार और समाज को संवेदनशील होना चाहिए।
हमें स्मार्ट सिटी नहीं संवेदनशीलता चाहिए
अब जब उन पर हुकूमत का चुनाव होगा तो उनसे मानवीय और जनकल्याण नीतियों व संचालन की अपेक्षा रखना, मौजूदा समय में बेईमानी है। देश के मतदाताओं के लिए अब यह अधिक ज़रूरी हो गया है कि जब राजनीतिक दल वोट मांगने के लिए राष्ट्रवादी नारों का जयघोष करें या आपकी धार्मिक आस्था को जगाने के लिए शंखनाद करें, तो मतदाता अपने क्षेत्र में हुए कामों का हिसाब मांगे।
देश के स्वास्थ्य सेवाओं के हाल पर चर्चा अगर छोड़ भी दें, तो उसकी एंबुलेंस सेवा तो कम से कम उस स्थिति में तो पहुंच ही चुकी है जिसका मर्सिया सरकारों ने लिख रखा है। उसका राम नाम सत्य हो चुका है, अब बस उसका जलकर राख होना और अस्थियों का पानी में बहनाभर बचा हुआ है।
स्मार्ट सिटी के दिवा स्वप्न दिखाने वालों स्मार्ट बाद में बनाना, हमें पहले वो विलेज चाहिए जहां किसी को जीते जी सम्मान ना मिले तो कम से कम मरने के बाद तो ससम्मान अंतिम विदाई मिल जाए।