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“अपनी सेक्शुएलिटी के प्रति उत्सुकता मुझे पुणे के गंदे पब्लिक टॉयलेट्स में ले गई”

जब मैं छोटा था, तो पब्लिक टॉयलेट से मुझे बहुत डर लगता था। उनकी गंध से, उनको इस्तेमाल करने वाले आदमियों की गंध से। मेरे घर के टॉयलेट, जो लाइफबॉय और सन्सिल्क शैम्पू की खुशबू से महकता था, से बिल्कुल अलग और जिसमें अगर मैं पांच मिनट भी ज़्यादा रह जाता था, तो माँ शक की बिनाह पर ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाती थी।

यह पब्लिक टॉयलेट, जिसे कितना भी फिनाइल से धो लो या नेफ्थलीन बॉल डाल दो, वो अमोनिया की दुर्गन्ध नहीं छुपा सकते थे।

पर इस डर के पीछे एक अजीब सी उत्सुकता भी थी। जूनियर कॉलेज तक मुझे नहीं पता था कि मुझे मर्दों में दिलचस्पी है (या शायद पता था?) लेकिन इतना पता था कि ऐसा फील करना गलत है। “गलत है, गलत है” मेरे अन्दर से बार-बार यह आवाज़ आती और मैं हमेशा सफाई का कारण देकर, पब्लिक टॉयलेट का इस्तेमाल नहीं करता था।

सिवाय पुणे की उस शाम के

उन दिनों मैं पुणे में पढ़ाई कर रहा था। एक शाम की बात है, एक ठंडी सी शाम, एक हद से लम्बी फिल्म देखने के बाद, मुझे टॉयलेट जाना ही पड़ा और अपने पर लगाए पब्लिक टॉयलेट इस्तेमाल नहीं करने का प्रतिबन्ध हटाना पड़ा। इसे मेरी किस्मत ही कहेंगे कि जिस टॉयलेट में मैं गया, वह बिल्कुल वैसा ही था, जिससे मुझे हमेशा डर लगता था।

उसकी बदबू दूर तक सूंघी जा सकती थी और अन्धेरा तो ऐसा था कि मुझे लगा कि कहीं कोई मुझ पर हमला ना कर दे। मैं हिम्मत कर अंधेरे में घुसा और पेशाब करने लगा। ऐसा लगा मानो कि बीस साल का रोका हुआ सैलाब आज ही बाहर निकल रहा है। मैंने मन ही मन पब्लिक टॉयलेट के मौजूद होने का आभार प्रकट किया। उस टूटे हुए टॉयलेट की टूटी हुई खिड़की के शीशे से स्ट्रीट लाइट की रौशनी अंदर आ रही थी। मैं वह दृश्य कभी नहीं भूलूंगा। भगवान भी अजीबोगरीब तरीकों से आपसे बात करता है।

तभी, जैसे ही मेरी आंखें उस रौशनी में एडजस्ट हुईं, तो मुझे अपनी दायीं तरफ एक भयानक साया दिखाई दिया, उसके चार हाथ थे और उसका शरीर भी अजीब तरीके से हिल रहा था। मैं डर के मारे वहीं खड़ा रह गया। मेरे सबसे बुरे सपनों का राक्षस, आज मेरे सामने था।

पर जो आगे देखा उससे मेरे आने वाले जीवन के मायने साफ हो गए। उस चार हाथों वाला राक्षस के दो हिस्से एक दूसरे से अलग हुए और अब मेरे सामने दो जवान लड़के थे। मेरे वहां आने से उनकी गतिविधियों में रुकावट तो हुई मगर जब उनको एहसास हुआ कि मैं उनको कोई नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा, तो वे वापस एक दूसरे को चूमने लगे ( तब मुझे एहसास हुआ कि राक्षस मेरे दिमाग में था)। मैं जहां था, वहीं डर और उत्सुकता के मारे खड़ा रह गया।

मैं किसी तरह वहां से निकलकर फुटपाथ पर जल्दी-जल्दी चलने लगा। डर और पनपते हुए अरमान दोनों ही जाग गए थे। मैं उन दोनों लड़कों की तस्वीर अपने दिमाग से नहीं निकाल पा रहा था। उस टॉयलेट में जो भी देखा, उससे ऐसा कुछ तो बाहर निकला जो बीस साल से मेरे अन्दर सामाजिक प्रेशर के कारण चुपचाप दबा पड़ा था।

फोटो साभार – अंजली कामत

उसी समय से मेरा क्रूज़िंग (क्रूज़िंग- पब्लिक जगहों में सेक्स के लिये पार्टनर ढूंढना) के प्रति आकर्षण शुरू हुआ। अपनी किशोरावस्था में ऑनलाइन फोरम्स में उसके बारे में थोड़ा बहुत पढ़ा था, जिसे पढ़कर मुझे घिन्न ही आई थी लेकिन अब पुणे में रात के अंधेरे में लम्बी टहलबाज़ी करने लगा था।

मंज़िल अक्सर रेल्वे स्टेशन का टॉयलेट होती थी, जहां क्रूज़िंग बड़े आराम से होती थी। वह टॉयलेट काफी बड़ा था और उसकी देखरेख एक धूर्त, गुटखा चबाने वाला आदमी करता था।

उस टॉयलेट में घुसते ही एक बड़ा सा दाग लगा आईना था, जिसे देख सारे लोग अपना मुंह हाथ धोया करते थे। उस आईने के दायें में एक ‘एल’ (l) आकार का, ऊंची सीलिंग वाला हॉल था, जहां अपने प्रेशर को हल्का करने के लिए यात्रियों का लगातार आना-जाना लगा रहता था। उसमें से कोई भी उस हॉल के आखिर तक नहीं जाता था। मैं उसी तरफ बढ़ चला जहां लोग दूसरे तरीके से अपने शरीर और मन दोनों को हल्का करने आते थे।

मैं अक्सर उस रेल्वे स्टेशन के टॉयलेट के दूर छोर पर पेशाब करने का नाटक करते हुए खड़ा रहता था। मेरे आस-पास अजनबी एक दूसरे की आंखों में सहमति और ना के इशारे को भांप-समझते थे। हां का इशारा देखकर अपने यूरीनल से दूसरे यूरीनल में चले जाते थे, जहां अजनबी हाथ उनकी पतलून की खुली खिड़की में हाथ डालकर उनकी ‘मदद’ करते थे।

जितनी देर रात उतने ज़्यादा लोग। कोई किसी से कुछ नहीं बोलता था। जब मैं बीस साल का था, तो सोचता था कि सेक्स केवल उसी के साथ होता है जिससे प्यार किया जाता है। ऐसा लगता था कि मेरी सेक्स करने की लालसा एक परीक्षा के सामान थी, मेरे ना बिगड़ने की परीक्षा। मैं कई बार उस टॉयलेट में जाता था और जब कोई अपना हाथ आगे बढ़ाता, मैं शर्म के मारे वहां से भाग खड़ा होता।

एक रात करीब दो बजे, मुझे कोई दिखा जो मुझे पसंद आया। वह बिल्कुल मेरी तरह था, घबराया हुआ, यंग और थोड़ा नींद में भी। उसकी नज़र भी मेरी नज़र से मिल चुकी थी। उसने रुमाल निकाल कर घने, पसीने से लथपथ दाढ़ी वाला अपना चेहरा छुपाने की कोशिश की और अपने पीठ पर रखा भारी बैग एडजस्ट किया। मैंने एक गहरी सांस ली और उसके बाजू में जाकर खड़ा हो गया। काफी समय बाद हमने एक दूसरे को छुआ।

मुझे किसी भी चीज़ का ध्यान नहीं रहा। ना ही पेशाब की गंध, ना ही लीक करता हुआ पाइप और ना ही आस-पास की चहल कदमी। मैं और मेरा शरीर एक थे। उस पल, सबसे सार्वजनिक निजी जगह में मुझे वह दिखा जो अब तक छुपा हुआ था। मुझे अपनी मंज़िल दिख रही थी या फिर यह एक सफर की शुरुआत थी ?

उस रात मैंने निकलते वक्त टॉयलेट अटेंडेंड को देख एक स्माइल दी। बेचारा थोड़ा सकपका गया था। धीरे-धीरे, मैंने अजनबियों से आंखें मिलाना और उनके हाव-भाव और शरीर के इशारों को समझना शुरू किया। तब मैंने जाना कि कैसे मेरे समुदाय के लोगों ने इन सार्वजनिक जगहों में एक मज़ेदार फेर पलट की थी। मैं जिन लोगों से मिलता, उनसे उनकी क्रूज़िंग के अनुभव के बारे में बात करता।

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पलाश रिटायरमेंट से मात्र एक साल दूर है। एक पढ़ा लिखा, मिलनसार आदमी है, जिसे कलकत्तेवालों की भाषा में भद्रलोक कहा जाएगा। वह हर रोज़ शाम साढ़े पांच बजे एक लम्बे, पसीने से भरे दिन के बाद ऑफिस से अपने सहकर्मियों से विदा लेता है। अपने और अपने सहकर्मियों के बीच दूरी बनाते हुए वह मेट्रो स्टेशन की तरफ जा रही सड़क पर चलता तो है लेकिन फिर वहां से लोगों की नज़रों से बचते हुए, एक दूसरे रास्ते निकल पड़ता है।

कलकत्ता के सबसे व्यस्त व्यापार वाली जगहों में से एक, डलहौज़ी से एक ब्लॉक दूर, लगभग खाली पड़े एक पार्क के बगल में एक पुराना पब्लिक टॉयलेट है। वहां के प्राचीन टॉयलेट अटेंडेंड ने पलाश को देख हमेशा की तरह सर झुकाकर ईशारा करके, उसके वहां आने का अभिवादन किया। पिछले तीस सालों से पलाश हर हफ्ते, एक या दो बार उस टॉयलेट में आता रहा है।

जिस तरह से आज कल लोग खुल कर बाहर आ रहे हैं, अपनी असलियत अपना रहे हैं, वैसा मेरे जैसे अधेड़ उम्र इंसान के लिए मुमकिन नहीं था। हालांकि मुझे हमेशा से मालूम था कि मुझे मर्द पसंद हैं। अस्सी के दशक की शुरूआत में, एक दिन जब मैंने नई-नई नौकरी ज्वॉइन की थी, तब मेरी मुलाकात बस स्टॉप पर खड़े एक आदमी से हुई। वो ही मुझे इस टॉयलेट में लेकर आया था, जिसे मैंने पहले कई बार क्रॉस तो किया था मगर कभी अन्दर नहीं गया था।

पलाश बताता है,

उसके अन्दर की दुनिया ही अलग थी। दो आदमी एक दूसरे को चूम रहे थे और बाकी लोग एक दूसरे के क्यूबिकल में ताक झांक रहे थे। मैं उस दिन तो वहां से निकल गया, पर मैं वापस गया। काम के बाद वह मेरे लिए एक सेफ जगह थी। जहां बस लेकर अपनी बीवी और बच्चे के पास जाने से पहले कुछ देर के लिए मैं वास्तव में ‘मैं’ रह सकता था। थोड़ा समय लगा पर धीरे-धीरे मुझमें आदमियों से नज़रें मिलाकर पास के पार्क में ले जाने की हिम्मत आई और अब, जब काफी कुछ बदल गया है तो, मैं खुद को कभी-कभी वहां जाने से रोक नहीं पाता हूँ।

सड़क किनारे चाय पीते हुए पलाश ने मुझे बताया।

फोटो साभार – अंजली कामत

मैं उसकी भावनाओं को समझ सकता हूं। यह बिल्कुल मेरी कहानी की तरह है, बस फर्क इतना था कि अपने परिवार की बजाय मैं हॉस्टल के मेरे मस्तमौला दोस्तों के पास वापस जाता था। वे दोस्त जो जानते थे कि मैं असल में कौन हूं, पर केवल असलियत अपनाने से अरमान तो पूरे नहीं होते ना, या होते हैं?

कभी-कभी यही अरमान आपको अपने फेरोमोन (pheromones – अपनी प्रजाति  के दूसरे लोगों को आकर्षित करने के लिए शरीर द्वारा वातावरण में छोड़ा गया केमिकल पदार्थ) से महकते हुए, परछाइयों में डूबे हुए रास्ते की ओर खींचते हैं। सैंकड़ों साल पुरानी वासना, यादों और नैतिकता, पत्थर और स्पर्श, दोनों के बीच अपना रास्ता बनाती है।

वह रास्ता जो पार्क को जाता है, उसकी मंज़िल टॉयलेट, सिनेमा हॉल, बार, मसाज पार्लर और स्टेशन जैसी जगह होती है। ऐसी जगह जहां आप अजनबियों से मिलकर दूसरी जगह जाकर अपने अरमान पूरे कर सकते हैं या फिर वहीं पर शुरुआत भी कर सकते हैं। अरमानों की आत्मा आसानी से टाली नहीं जाती। वह आत्मा उन जगहों पर उतनी ही बसी हुई है, जितना हमारे शरीर में। तो क्रूज़िंग को एक तरह का तीर्थ समझिये।

ऑफलाइन क्रूजिंग से अवगत होने से पहले मर्दों से मिलने का एक ही रास्ता था। इन्टरनेट चैट रूम्स या फिर डेटिंग वेबसाइट्स जो हम जैसे लोगों के लिए बनाई गयी थी (जी हाँ, काफी समय लग गया स्ट्रेट समुदाय को यह सब करने के लिए। आगे बढ़ने के लिए बड़ा वक्त लगा) उस समय किसी की प्रोफाइल पिक्चर नहीं होती थी और सोचा जाए तो याहू चैटरूम में bradpitt2002 या myztikaldude007 के साथ घूमना बिल्कुल पार्क में क्रूज़िंग जैसा ही था, बस आंखों पर पर्दा रहता था। शब्द ही हमारा प्रमुख ज़रिया बना, एक दूसरे के साथ जुड़ने का। उसके बाद आए धुंधले फोटो।

दूसरी तरफ क्रूज़िंग एक ऐसी भाषा सामने लाई जो शब्दों से भी पुरानी थी। जो हमारे शरीर भर में, हमारे खून, हमारी मांसपेशियों और हड्डियों में, सब में बह रही थी। अब केवल कीबोर्ड पर टाइप करते हुए केवल उंगलियां ही नहीं झूमती थी बल्कि पूरा शरीर आस-पास के वातावरण की धुन पर झूमता था।

वह शरीर वही बात करता था और वही बात बोलता था जिसकी ज़रुरत थी और जो चीज़ छुपानी चाहिए, उसे छुपा कर रखता था। शरीर को यह कहने का हौसला मिला कि मेरे लिए कंप्यूटर काफी नहीं है। ऐसा शरीर जिसने इच्छा और मजबूरी के बीच की परछाई में चलने की हिम्मत की थी।

अगर क्रूज़िंग वाली जगह नहीं होतीं, तो इतने सारे क्वीयर समुदाय के लोगों को, जो अपने आप को ‘गे’ नहीं कहलवाना चाहते थे और बाहर खुलकर भी नहीं आते थे, उन्हें यौन सुख कैसे मिलता? बहुत सारे लोगों के पास घर में प्राइवेसी नहीं थी और बहुतों के पास घर नहीं था।

(कुछ युवा पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में कई लोगों के पास स्मार्ट फोन्स भी नहीं हैं, इन्टरनेट तो दूर की बात है।)

जब पलाश जैसे पुराने अनुभवी लोग बात करते हैं, तब जाकर यह पता चलता है कि क्रूज़िंग में क्या थ्रिल है और क्वीयर समुदाय में कितनी विविधता है। वह बताते हैं कि जैसे आज की दुनिया में ऐप्स और फोन के फोटो फिल्टर्स की बात को सच्चाई मानकर लोगों को बांट दिया गया है, उनकी क्वीयर दुनिया में ऐसा नहीं था। ज़्यादातर प्रोफाइल सीना ठोककर पहले ही अवगत करा देते हैं कि वे किससे बात करेंगे और कैसे लोग पसंद हैं। जैसे,

यह उस दृश्य से कोसों दूर है, जहां एक सरकारी अधिकारी एक मज़दूर के बगल में खड़ा हो और एक विद्यार्थी उन दोनों को निहार रहा हो।

नकारा जाना क्रूजिंग का हमेशा से हिस्सा रहा है। पर जिसे नकारा गया हो, वह अहसास उसका अपना होता है। वो पूरी सुध-बुध में खुद उसका सामना करता है। भला ही वह पल भर  कड़वाहट और मिठास को मिलाते हुए, इतना जीवंत, मानो उसे छू सको ना कि आज के स्मार्टफोन की दुनिया में, जहां फोन के साथ-साथ जैसे तिरस्कार को रेडी मेड बाज़ारी अहसास बना दिया गया है।

स्मार्टफोन्स के जैसे ही, उनको इस्तेमाल करने वाले भी कॉपी-पेस्ट वाले वायरस के अधीन हो जाते हैं। नकारे जाने जैसी ताकतवर चीज़ को उपभोक्तावाद के बाज़ार में जी भर कर इस्तेमाल किया जाता है।

जो लोग स्मार्टफोन्स के युग में पैदा हुए हैं उन्हें क्रूज़िंग एक हताशा से भरा काम लगेगा, वे भूल जाते हैं कि कभी-कभी पब्लिक जगह ज़्यादा सुरक्षित है, किसी अजनबी को अपने बेडरूम में बुलाने के मुकाबले। एक अजीब तरह की बढ़ती हुई बेचैनी है, एक एहसास, जैसे डेटिंग ऐप्स लोगों को अपना पूरा वास्तविक रूप सामने नहीं लाने को फोर्स करता है।

मेरे कई सारे दोस्त बार-बार ग्राइंडर या टिंडर को मोबाइल से हटाकर वापस इंस्टाल कर-करके बोर हो चुके हैं। अनगिनत प्रोफाइल्स की बाढ़ में आपको डूबोकर इस ऐप को बस आपका ध्यान चाहिए। वह अरमान जो किसी प्रेमी के लिए था, अब एक algorithm के लिए है। शरीर में क्या-क्या नहीं है, कितनी भिन्नताएं, कितनी खूबसूरती, ऑनलाइन में वे सब बस एक पहचान बनकर सिमट जाता है।

क्रूज़िंग करते वक़्त, जब आकर्षण और सुरक्षा की बात आ जाए, तब दूसरे की फीलिंग्स मायने रखती है, बहुत मायने रखती है। अपनी पहचान को गुप्त रखना क्या होता है? किसी की प्रोफाइल फोटो अपने हाथों में होने से, क्या आप उसको उस अजनबी से ज़्यादा जानते हैं जिससे आप ट्रेन में नज़रों की आँख मिचौली खेल रहे हैं? आपका शरीर जो जानना चाहता है वो उन बातों को अपनी इन्द्रियों से भांप लेता है।

मुझे क्रूज़िंग पसंद है क्योंकि उसके ज़रिये मैं दूसरे आदमी को किसी फोटो या कुछ शब्दों से बेहतर,  उसके इशारों को महसूस कर सकता हूं। आप आंखों के ज़रिये ही सब बोल सकते हैं। शरीर के हाव-भाव काफी मायने रखते हैं। जब भी मैं बाहर निकलता हूं, मैं अलग-अलग तरह के मर्दों के प्रति आकर्षित होता हूं। अगर मैं उन्हीं लोगों की बस ऑनलाइन प्रोफाइल देखूंगा, तो मैं शायद वैसा फील ना करूं।

पंकज , जो एक समलैंगिक किन्नर है और मुंबई में रहता है, उसने यह बात बताई।

पंकज ने आगे बताया की उसने ऑनलाइन डेटिंग छोड़ दी है और वह अपने पार्टनर्स से, क्रूज़िंग के ज़रिये ही मिलता है। जब मैंने उससे पूछा की मुंबई के क्रूज़िंग स्थान अभी भी चालू है? तो जवाब में उसने एक बड़ी सी, शरारत भरी स्माइल दे दी।

आपको वे सारे रोमैंटिक गाने पता हैं, जब भीड़-भाड़ वाली जगह में दो आंखें मिलती हैं? जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी, बात कुछ बन ही गयी। यही होता है ना, क्यों? चारों तरफ लोगों की नज़रें एक दूसरे को देखती हैं और कभी-कभी उसी में जादू हो जाता है।

* * *

करीम बेंगलुरु में ऑटोरिक्शा चलाता है। बीस-बाईस साल का है और उत्तर प्रदेश के एक गाँव का रहने वाला है। उसने बताया कि उसने आज तक  ग्राइंडर, प्लेनेट रोमियो या टिंडर जैसे किसी भी डेटिंग ऐप्स के बारे में नहीं सुना है। उसे केवल फेसबुक पर गे पेजस (gay pages) के बारे में मालूम है। जिनका उसने कभी इस्तेमाल नहीं किया है क्योंकि उसके पास अभी स्मार्टफोन नहीं है। वह एक स्मार्टफोन चाहता है ताकि जी.पी.एस. इस्तेमाल कर सके।

फिर वह मर्दों से कैसे मिलता है? शरमाते हुए उसने बताया,

 वे सब हमारे आस पास ही होते हैं, बस देखने की नज़र चाहिए। आंखें बहुत ख़ास होती हैं और टच, आप एक टच से सब बता सकते हो और कुछ एक आध इधर-उधर की बातों से भी शायद। पर सबसे ज़रूरी आंखें ही होती हैं। कभी-कभार मैं पैसेंजर को मुझे घूरते हुए पकड़ लेता हूं, पर धंधे के टाइम और कुछ नहीं करता।

मेरी यात्रा खत्म होने पर मैंने उससे पूछा कि क्या उसको मालूम है कि क्रूजिंग, असुरक्षित सेक्स के कारण STD (यौन संक्रामक रोग) होने का ज़रिया हो सकता है। उसने जवाब में कहा,

हां, लेकिन मैं पहले इतना सावधान नहीं था। जब पहली बार इस शहर में आया था तो मुझे STDs क्या होतें हैं, वह भी नहीं मालूम था। पर अब पता है और मैं जल्द ही खून की जांच कराऊँगा। उस आदमी को देखो जो सड़क के उस पार खड़ा है। देखो तो कैसे हम लोगों को घूर रहा है।  चल कर Hi बोलना है?

करीम ने हंसते हुए कहा |

मेरे विचार से, क्वीयर समुदाय का बड़ा ही विचित्र तरीका है, बीमारी के बारे में पता कर उसके बाद उसे अनदेखा करने का। ज़्यादातर क्रूज़िंग जगहों पर बहुत कम ही पूरा सेक्स होता है। अधिकतर लोग सेक्स के अलावा बाकी की चीज़ें करते हैं। फिर भी जिनके पास पैसा है वो PrEp  लेते हैं (PrEp -जिन्हें HIV होने का खतरा है, ताकि वायरस आपके शरीर पर हावी न हो, इसलिए डॉक्टर की सलाह के अनुसार सही मात्रा में रोज़ HIV की दवाई लेना)।

पैसेवाले  PrEp ले सकते हैं। हम और लोगों का क्या, हमारा असुरक्षित सेक्स को लेकर क्या नज़रिया है? उस दुनिया में जहां HIV को लेकर घबराहट और डर कम हुआ है।

चाहे वो क्रूज़िंग के ज़रिया हो या मोबाइल ऐप्स के। सुरक्षित, गुप्त और एक से ज़्यादा लोगों के साथ सेक्स करने से STDs (यौन संक्रामक रोगों) होने का खतरा रहता है। संयोगवश, एक समय था जब पुणे का एक बहुत ही पॉपुलर पार्क का टॉयलेट मर्दों द्वारा सेक्स के लिए इस्तेमाल करने के लिए इतना प्रसिद्ध था की सिंक के बाजू में ही कन्डोम वेंडिंग मशीन लगी हुई थी।

पर कुछ साल पहले हमारे प्रदेश की यौन स्वास्थ और यौनकामना के प्रति संदेह दर्शाते हुए, काफी प्रभावशाली ढंग से निकाल दिया गया। भले ही प्रदेश के कानूनों में और काफी उन्नतिशील बदलाव लाए गए हैं।

खासतौर पर जब सेक्शन 377 लागू हुआ था, तब सादे कपड़ों में पुलिसवाले या लोकल गुंडे जल्दी पैसा कमाने के लिए क्रूज़िंग वाली जगहों पर सेक्स करने के लिए मर्दों से मिलने का नाटक करते थे और फिर उन मर्दों को शारीरिक रूप से प्रताड़ित कर उनको लूट लेते थे। इनमें से ज़्यादातर बूढ़े समलैंगिक मर्द या किन्नर औरतें होतीं थी।

कभी-कभी यह जबरन वसूली ब्लैकमेल के ज़रिये महीनों-सालों तक चलती है। आश्चर्य की बात तो यह है कि इन्हीं पुलिसवालों को किसी यूरिनल या पार्क की बेंच पर पूरे ‘ तनाव’ के साथ लम्बे समय तक प्रतीक्षा करने में कोई दिक्कत नहीं होती थी। शायद वो अपने आप से अपनी सच्चाइयां छिपाते होंगे।

‘आर’ नाम के एक स्टूडेंट ने उसके दो साल पहले दिल्ली पुलिस द्वारा पकड़े जाने और उसके बाद के उत्पीड़न का अनुभव बताया, जिसके बारे में बुरे सपने अभी तक उसको और उसके साथी को आते हैं। वह मार पीट, घर पर बता देने की धमकी, कॉलेज एडमिशन के लिए निकाले गए कुछ हज़ार रुपयों को पूरा छीन लेना, रात के अंधेरे में टॉर्च की रौशनी से अपमान करना। उसके बाद उन दोनों की अगली बार क्रूजिंग जाने की हिम्मत नहीं हुई |

शुक्र है, इस कहानी का सुखद अंत है | उस रात ‘आर’ की हालत देखकर उसके फ्लैटमेट ने उससे पूछा कि कहीं कुछ हुआ है क्या? ‘आर’ से रुका नहीं गया और वह रो पड़ा। उसकी बात सुनकर उसके फ्लैटमेट ने उसको अपनी असलियत बताई। दोनों को एक दूसरे से प्यार हो गया और आज भी वे दोनों साथ हैं।

* * *

अर्नब पश्चिम बंगाल के छोटे से शहर से कोलकाता, कॉलेज डिप्लोमा करने के लिए शिफ्ट हुआ था। 6 फीट के कद के साथ उसका काफी प्रभावशाली शरीर था। ऐसा होने के बाद भी उसने बताया कि जब वह दूसरी बार एक सॉफ्ट पोर्न थिएटर गया था, तो एक आदमी ने उसपर सेक्स करने की करीब-करीब ज़बरदस्ती ही कर दी थी। जहां की बालकनी में होने वाली हरकतें स्क्रीन पर दिखाई जा रही हरकतों को भी मात दे दें। वहां उसके साथ उससे भी ज़्यादा शक्तिशाली अजनबी ने उसके साथ जबरन सेक्स करने की कोशिश की थी।

इससे पहले मैं किसी गे से नहीं मिला था। मेरे शहर में ग्राइंडर में सबसे नज़दीकी मैच डेढ़ सौ किलोमीटर दूर है और भले उस आदमी ने मुझसे ज़बरदस्ती करनी चाही पर मैं अपनी जगह पर डटा रहा एंड मेरे आस-पास के लोगों ने उसे मुझे छोड़ने पर विवश कर दिया। मैंने मामला संभाल लिया था।

उस घटना के बारे में वह आगे बताता है,

मैं वापस इसीलिए गया क्योंकि वह जगह मुझे अपनी सी लगी, उन सब मर्दों के बीच। हॉस्टल में मैं अकेलापन महसूस करता हूं। यहां मैं अपने आप सा महसूस करता हूं। मुझे लगता है कि मैं किसी से मिलूंगा यहां पर

अर्नब आज भी उस हॉल में जाता है। एक साल लगातार जाने के बाद अब ज़्यादा विश्वास के साथ और डराने वाले व्यक्तित्व के साथ। क्रूज़िंग में सहमति इतना आसान नहीं है। सहमति के बिना पब्लिक स्पेस में क्रूजिंग मुमकिन ही नहीं।

अब चाय की दुकान पर मिले इशारे का कोई कैसे जवाब दे? या फिर ट्रेन में कोहनी पर एक हलके से स्पर्श को? क्या वे लोग समय पूछने के लिए रोकते हैं जबकि उनकी जेब में फोन होता है ? क्या मुस्कराहट का जवाब मुस्कराहट से मिलता है? या फिर लाइटर?

यह छोटी छोटी चीज़ें काफी मायने रखती हैं, अगर आप सुरक्षित तरीके से इस विभिन्न प्रकार के sexuality रखने वाले लोगों के इस समुद्र में किसी एक की तरफ बढ़ते हैं तो। पर एक बार यह धुंधली सी रेखा पार हो जाए उसके बाद क्रूज़िंग एक बिल्कुल अलग ही चीज़ बन जाती है। कुछ बेहद बदसूरत सी।

फिर लोकल ट्रेन जैसी भीड़ भाड़ वाली जगह में या फिर जैसा ऊपर बताये गए सिनेमा बालकनी में, जहां क्वीयर समुदाय का वर्चस्व रहता है। इन जगहों पर सहमति कुछ लोगों के लिए मायने नहीं रखती।ज़्यादातर मनुष्य की तरह, क्वीयर समुदाय में भी लोगों को हां, ना, शायद का अर्थ समझना है।

* * *

क्रूज़िंग वाली जगहों पर सबसे ज़्यादा किन्नर समुदाय की औरतें दिखती हैं। कुछ के तो अपने खास स्थान होते हैं। अपने समुदाय की जगह का दावा करने और उसकी सुरक्षा करने में वे ही सबसे आगे रहती हैं जिससे उन पर हिंसा होने का खतरा भी ज़्यादा होता है।

मेरे समुदाय के कई सदस्य काम-काजी वर्ग से हैं। जिनके पास डेटिंग ऐप्स का साधन नहीं है और अंग्रेज़ी से हिचकिचाते भी हैं। उनके लिए क्रूज़िंग कोई रोमांच का ज़रिया नहीं बल्कि पार्टनर्स से मिलने का एकमात्र उपाय है।

यह बोलना है चेन्नई वासी किन्नर महिला सुजाता का।

जब भारत में क्रूज़िंग की बात आती है तो लेस्बियन/बाईसेक्शुअल औरतें लगभग दिखती ही नहीं है। बार में, मॉल में, नाइट क्लब या किसी और जगह पर अजनबियों से मिलने के कई किस्से हैं पर जैसा गे मर्दों के लिए क्रूज़िंग वाली जगह है, वैसी लेस्बियन महिलाओं के लिए नहीं है। सार्वजनिक स्थान मर्दों को ध्यान में रखकर ही बनाए गए हैं। नैतिक और शारीरिक, दोनों रूप से।

पर इन सब के बावजूद भी प्यार कायम रहता है क्योंकि क्रूज़िंग केवल सेक्स के बारे में ही नहीं है। अपने घर की दहलीज़ के अलावा, हम और कौन से दायरे पार करते हैं ? यह कैसी इच्छा है, किसी अनजान मुलाकात के लिए जिसके लिए हम सब कुछ दांव पर रख देते हैं? इन सबका अंत में एक ही मतलब है, जुड़ने की तमन्ना, उस समुदाय का हिस्सा होना, उस क्षण में या किसी के साथ।

मैंने अजनबियों को एक दूसरे को पुराने प्रेमियों जैसा छूते हुए देखा है। मैं उन कपल्स से मिला हूं जिन्होंने अपनी सारी ज़िन्दगी पार्क की बेंच पर बैठ एक मुस्कराहट के बदले मुस्कराहट पर बिता दी है।

* * *

क्रूज़िंग को आप इतना सरल तरीके से नहीं बयान कर सकते। शहर के बदलाव के साथ कोतवाली करने से ज़रिये बदलने लगे हैं और मज़बूत होने लगे हैं तथा नई तकनीक पर आधारित रहते हैं। पुराने पसंदीदा क्रूज़िंग वाली जगह खत्म होती हैं और उनकी जगह नई जगह आ जाती है।

क्या हमारे घरों में निजी क्वीयर प्यार दिखाने की जगह है ? क्या सारे क्वीयर लोगों का अपना घर छोड़ देना ज़रूरी है या ज़बरदस्ती अपनी असलियत को सबके सामने लाना। सार्वजानिक जगह हमेशा से लोगों के मिलने की सबसे खुली हुई जगह रही है और रहेगी। इंसान के हर भाव का यहीं इज़हार होगा।

स्मार्टफोन्स का मार्किट बढ़ रहा है और दुनिया टेक्नोलॉजी के अधीन होती जा रही है। काफी दिलचस्प होगा यह देखना कि ऑफलाइन क्रूज़िंग में क्या नया मोड़ आता है। अपने लिए पार्टनर ढूंढने की जो असली ललक है, उसे कोई एजेंसी हम इंसानों से मिटा नहीं सकती, चाहे कितना ट्राई कर ले।

हम अब उस समाज में रह रहे हैं जहां वे क्वीयर लोग जिन्होंने कभी इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं किया है, उन क्वीयर लोगों के साथ रहते हैं जो अपना सब कुछ इंटरनेट पर ही करते हैं। फिल्म्स, आर्टिकल्स और फोरम्स के ज़रिये जानकारी पास होती रहती है। बहुत लोग ऑफलाइन और ऑनलाइन दोनों ही दुनिया में पाए जाते हैं।

युवा क्वीयर लोग (स्मार्टफोन वाले भी) क्रूज़िंग वाली जगह जाते हैं, हमारे समुदाय का इतिहास ढूढ़ते हैं। इन मुलाकातों में एक ताकत होती है। यह सेक्शन 377 पढ़े जाना या क्वीयर प्राइड मार्च  जितना ही ज़रूरी है।

हमारे स्वयं के असली सेक्शुअल रूप को ढूंढना उन अनदेखी, अनजानी जगहों में भटकने जैसा है, जहां ऐप्स और शादी वाली वेबसाइट नहीं जा सकती। जिसे हम खुद अपनी पूरी ज़िदगी लगा देते हैं समझने में।

अपने बारे में बोलूं तो, मेरी खोज हमेशा मुझे मेरे वर्ग, भाषा, जगह, पहचान के दायरों से बाहर ही ले गई है। मेरा घर, मेरा शरीर कहां शुरू और कहां खत्म? (क्या मैं खुद शहर नहीं हूं? मेरे अन्दर की कोशिका मैं नहीं?) मुझे किसे पसंद करना है, वह मुझे क्यों बताया जाए ? और कहां? मुझे मेरे आस-पास चलते अजनबियों के वादों पर विश्वास है।

ट्रेन में सोते हुए, पार्क में कौओं को लड़ते देख, कचरे की पेटी को क्रॉस करते हुए नाक सिकोड़ना, स्ट्रीट फूड को जमकर खाना यह जानते हुए कि जल्द ही इसकी सज़ा मिलेगी, बाज़ार में घूमना और एक शांत बार में बैठ सबके बारे में सोचना। मेरे लिए यह मायने रखता है और उससे भी ज़्यादा है क्रूज़िंग, रौशनी, प्यार और देखना ।

जैसे ही हमने अपनी चाय खत्म की, पलाश ने भी अपनी क्रूज़िंग की बात खत्म की और बेशक हममें से कितने लोग जो शहर, शहर के बाहर, छोटे शहर में एक बॉक्सनुमा ज़िंदगी जी रहे हैं, जो सेक्शुएलिटी को अपनाने से कोसों दूर है। खासतौर पर क्वीयर संबंधी।

अच्छा, अब मैं जाता हूं। मुझे मेरी फैमिली के पास मेरे घर जाना है।

मैंने वहां रुकने का फैसला किया। आखिर, जिस क्रूज़िंग वाली जगह का ज़िक्र पलाश ने किया था वह अगले कॉर्नर पर ही थी।

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अनिन्दिया शंकर दास एक स्वतन्त्र रूप से काम करने वाले फिल्म निर्देशक हैं, साथ में खाना बनाने के शौक़ीन, लेखक, और शौक़ीन मुसाफिर भी हैं । हमेशा रोचक काम की तलाश में रहते हैं । लेख का अनुवाद प्राचिर कुमार ने किया है।

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