अपने लड़कपन के दिनों में मेरे ज़िले में मतदान के दिन मैं अपने घर के आस-पास की चाची, दादी, बुआ और मौसी को घर से निकलते देखता था, जो कभी घर की देहरी से बाहर नहीं आया करती थीं।
ये महिलाएं तभी बाहर आती थीं जब किसी की शादी या पूजा हो। बचपन की दहलीज़ को पार कर जब यौवन में कदम रखा तब मैंने इस बारे में इनसे पूछा। उन सबों का कहना था कि हम इंदिरा गाँधी के लिए वोट करते थे। हम सबों को उस “गूंगी गुंड़िया” से हमेशा बहुत उम्मीद रहती थी, भले ही उसने हमारे लिए कुछ किया हो या नहीं।
फिर मैंने कहा,
मतदान करना तो हर भारतीय नागरिक का कर्तव्य है। इस पर उनका कहना था कि होता होगा शायद। अब फिर उनकी तरह कोई लगेगी तो कर लिया करूंगी मतदान।
जेल में थे नेहरू और इंदिरा कर रही थीं संघर्ष
इंदिरा गाँधी आज़ाद भारत में मुल्क की बागडोर संभालने वाली दूसरी महिला थी। इस संदर्भ में उनसे पहले श्रीलंका की राष्ट्रपति सिरिमावो भंडारनायके का नाम आता है। इंदिरा गाँधी 17 वर्ष की उम्र में यक्ष्मा से पीड़ित अपनी माँ के इलाज के लिए उनके साथ स्विट्जरलैंड जा रही थी। पिता जवाहर लाल नेहरू जेल में थे और इसी वजह से उन्हें रिहा किया गया।
खैर, स्विट्जरलैंड के इलाज से भी कमला नेहरू पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और 1936 में उनका देहांत हो गया। इलाहाबाद के आनंद भवन में गहमा-गहमी और अपने अंदर के अकेलेपन से लड़ते-भिड़ते, दूसरे विश्व युद्ध के ठीक पहले इंदिरा गाँधी का दाखिला ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में हुआ। वहां एक वर्ष के बाद प्लुरिसी का आक्रमण झेलना पड़ा और उनको स्वीट्जलैंड के एक सेनेटोरियम में भर्ती होना पड़ा।
पिता नेहरू जेल में थे। इन्हीं दिनों वह युवा काँग्रेसी कार्यकर्ता फिरोज़ गाँधी के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध में आईं। यह रिश्ता आगे चलकर विवाह में तो बदल गया मगर नेहरू इसके खिलाफ थे। इन सबके बीच 20 अगस्त 1944 को राजीव का जन्म हुआ।
इंदिरा गाँधी के मस्तिष्क को उनके पिता के संपर्क ने जागृति ही नहीं दी थी, बल्कि उसे गढ़ा भी गया था। नेहरू ही उनकी शक्ति और ऊर्जा के स्त्रोत थे। नेहरू जब जेल से इंदिरा के लिए खत लिखते तो उसमें सभ्यता-संस्कृति, देश-समाज, विचार-दर्शन और पता नहीं क्या-क्या होता था।
लेटर टू डॉटर के ज़रिये परिवार के प्रति नेहरू की ज़िम्मेदारियों का अंदाज़ा हुआ
“लेटर टू डॉटर” किसी पिता के हाथों से अपनी बेटी को लिखा गया सबसे नायाब तोफहा है, जिसके बारे में उस लेटर को पढ़कर ही अंदाज़ा होता है। परिपक्व होती उम्र में माता की मृत्यु, घर में राजनीतिक माहौल की सघनता और पिता के जेल में रहने के कारण दूरी का इंदिरा के जीवन पर असर यह था कि वह अपने आप में सिमटी रहने वाली लड़की के तौर पर बड़ी हुई।
लाल बहादुर शास्त्री की मौत के बाद जब उनको भारत के प्रधानमंत्री की शपथ दिलाई गई, तब उसके पहले किसी को नहीं लगता था कि नेहरू अपने परिवार के बारे में सोचते थे। राजनीतिक स्तंभकार, फ्रैंक मॉरिस लिखते हैं, “नेहरू के पूरे चरित्र और उनके करियर को देखते हुए यह कहीं से भी फिट नहीं लग रहा था कि नेहरू परिवारवाद को आगे बढ़ाएंगे।”
तब पुरुषवादी समाज के नायकों ने यही सोचा होगा कि गूंगी गुड़िया को चाभी डालकर चलाएंगे। परंतु, अपने संकल्प शक्ति और कार्य क्षमता से चुनौतियों का सामना करते हुए वह जिस तरह से भारतीय राजनीति में उभरी, कितने ही लोगों के होश फाख्ता हो गए।
मिलनसार थीं इंदिरा
नेहरू, इंदिरा और राजीव के काफी करीब रहने वाली पुपुल जयकर इंदिरा गाँधी की बायोग्राफी “इंदिरा गाँधी: एक जीवनी” में लिखती हैं, “इंदिरा कलाकारों, लेखकों, दार्शनिकों और वैज्ञानिकों के साथ मिलकर उनसे बातचीत करके तरोताज़ा हो जाती थीं। चाहे वह गाँव हो या शहर, वह किसी के भी घर के बीच पहुंच जाती थीं। उनकी पोशाक पहन लेती, उनके साथ ठहाके लगाती और यहां तक कि उनके साथ नाच में भी शामिल होती थी।”
इंदिरा गाँधी दूसरों की बातों को काफी ध्यान से सुनती थीं। उनके साक्षात्कार को देखने के बाद यह एहसास होगा कि वह काफी ध्यान से सवालों को सुनने के बाद उनका जवाब देती थीं।
परिपक्व नेता के तौर पर उभरी इंदिरा
1971 के पूर्वी पाकिस्तान के शरणार्थियों की समस्या के बाद जब पाकिस्तान के साथ युद्ध की घोषणा हुई और भारत की जीत हुई, तब वह एक परिपक्व राजनेता के तौर पर उभरकर आईं। लोकसभा में जब उन्होंने यह घोषणा की, “पश्चिमी पाकिस्तानी सेनाओं ने बांग्लादेश में बिना शर्त आत्म समर्पण कर दिया है। अब ढाका एक स्वतंत्र देश की राजधानी है।” उनके चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक दिख रही थी। जो चमक आपतकाल की घोषणा और उसके बाद देखने को नहीं मिली थी।
1977–79 तक के वर्ष उनके जीवन में उथल-पुथल से भरे रहे। जल्द ही इन सबों से उबरने के लिए उन्होंने बड़े पैमाने पर देशभर का दौरा शुरू किया। इस दौरान छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी जनसभाओं में भाषण देने लग गईं।
1980 के चुनाव के बाद इंदिरा गाँधी की सत्ता में फिर से वापसी हुई। चुनाव में जीत हासिल करने के कुछ महीने बाद ही बेटे संजय की त्रासदी हुई, जिसने इंदिरा को फिर से तोड़ दिया। इस हादसे ने उनकी संकल्प-शक्ति और कार्रवाई करने की क्षमता पर प्रभाव डाला फिर एक दिन प्रधानमंत्री को गोली मार दिया गया।
पुपुल जयकर बताती हैं,
गोलियों की मार से धरती पर गिरते समय अपने हत्यारों का सामना करती हुई उनकी आंखें खुली की खुली रह गई थीं। कुछ लोगों ने बताया कि उनकी दोनों हथेलियां अभिवादन की मुद्रा में उठी हुई थीं।
इंदिरा गाँधी के पूरे कार्यकाल में महिलाओं के पक्ष में क्या-क्या कार्य हुए इसका मुल्यांकन भी ज़रूरी है, क्योंकि कुछ तो बात होगी उस “गूंगी गुड़िया” के राजनीतिक सफर में, जो मेरे गली-मोहल्ले की दादी, चाची, बुआ और मौसी उनको अपना नेता मानती थीं और उनकी मौत के बाद राजनीतिक सुधारों के प्रति उदासीन हो गईं।
नोट: इस लेख में प्रयोग किए गए तथ्य पुपुल जयकर की किताब “इंदिरा गाँधी : एक जीवनी” से लिए गए हैं।