हर चीज़ की अपनी एक कीमत होती है, जो आपको देर सबेर चुकानी ही पड़ती है, कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष रूप से। बिना कीमत चुकाए कभी कुछ नहीं मिलता।
ऐसी ही कीमत हम सब शहरीकरण के नाम पर, विकास के नाम पर चुका रहे हैं। कम-से-कम मैं तो चुका ही रही हूं। अपनी सेहत देकर। पिछले पांच सालों से नौकरी छोड़ घर पर हूं और खोखले हो चुके शरीर में फिर से जान डालने की कोशिश में लगी हूं।
क्या है बीमारी
मुझे पॉलिसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम (पीसीओएस) और फाइब्रॉइड है। हार्मेन्स बहुत तेज़ी से बदलने की वजह से मेरे शरीर की ऊर्जा पहले ‘कम’ हुई और बाद लगभग ‘समाप्त’ हो गई है। इन सबकी वजह से मेरा पीरियड बंद हो गया, पूरे शरीर में सूजन रहने लगी। सूजन से हालत यह हो गई थी कि मेरे लिए एक कदम चलना भी मुश्किल हो गया था। हाथ पैरों में इतना दर्द रहने लगा था कि सारा दिन रोती रहती थी।
कुछ तो फाइब्रॉइड और फिर थाइरॉइड की वजह से एक साल में ही मेरा वज़न 20 किलो बढ़ गया। अब तक पांच सालों में मेरा वज़न 35 किलो बढ़ चुका है। हालत ऐसी हो गई कि मैं 12-12 घंटे सोती रहती थी। उठती तो बाथरूम आने-जाने के लिए भी सहारे की ज़रूरत पड़ती थी। भूख-प्यास मर गई थी। ये तो मोटी-मोटी दिक्कतें हैं, इसके अलावा छोटी- छोटी तकलीफों के बारे में कहां तक लिखा जाए।
बीमारी में शहर और प्रदूषण का योगदान
शारीरिक और मानसिक रूप से मैं बहुत दुखी और निराश हो गई थी। दवाइयां खाते-खाते दो साल हो गए थे लेकिन हालात में कोई खास सुधार नहीं आया था। डॉक्टरों का कहना था कि मेरी बीमारी में बड़ा योगदान शहर और उसके खराब होते वातावरण का भी है। हमने सोचा चलो शहर बदलकर देखते हैं, शायद दूसरे शहर की हवा-पानी सूट कर जाए। तब हम मुंबई में रहते थे। हमने दिल्ली शिफ्ट होने का सोचा, क्योंकि मुंबई आने से पहले लगभग सात साल मैं दिल्ली में नौकरी कर चुकी थी, तो सोचा शायद पुराना शहर नई सेहत दे दे।
महानगरों में रहना आसान नहीं होता, सस्ता तो बिल्कुल भी नहीं। लोग एक शहर से दूसरे शहर पलायन नौकरी के लिए करते हैं और कहीं पलायन करना हो तो भी पहले नौकरी ढूंढते हैं, तो अमजद (हस्बैंड) ने दिल्ली में नौकरी तलाशनी शुरू की। इस तरह हम 2017 में दिल्ली आ गए।
मेरी 2006 वाली दिल्ली इन 11 साल में बहुत बदल चुकी थी। दरअसल, बिगड़ चुकी थी। यहां आने के बाद कुछ समय तो ठीक रहा लेकिन सर्दियां आते-आते मेरी हालत खराब रहने लगी। मुझे अब सांस लेने में भी तकलीफ होने लगी, मेरे सीने में दर्द रहने लगा। मेरी यादों की जिस दिल्ली में सर्दियों में फॉग होती थी, उसकी जगह अब स्मॉग ने ले ली थी।
स्मॉग ने मेरी बीमारी को जैसे ट्रिगर कर दिया। हर वक्त एक अजीब सी बैचैनी रहने लगी थी। कार्बन उत्सर्जन की वजह से यहां की हवा ने मुझे सेहतमंद नहीं बल्कि और बीमार कर दिया। हमारी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए। इन ज़हरीली गैसों के उत्सर्जन और ग्रीन हाउस गैसों से मौसम में हो रहे बदलावों की वजह से मैं डिप्रेशन में जाने लगी थी। अमजद का ऑफिस गुड़गांव में था और हम मयूर विहार में रह रहे थे। उसको आने-जाने में काफी टाइम लगता था और मेरी सेहत को कोई फायदा भी नहीं हो रहा था।
हमें वापस दिल्ली छोड़ने का फैसला करना पड़ा
आखिरकार हमने दिल्ली छोड़ने का फैसला कर लिया। मन किया और शहर बदल लिया ऐसा लिखने में ही आसान लगता है, असलियत इसके उलट है। हर बार ज़ीरो से शुरू करना पड़ता है। अब तक हम 3 साल में 3 शहर और 5 घर बदल चुके थे। सच बताऊं अब मुझे झुंझलाहट होने लगी थी। मेरी हिम्मत जवाब देने लगी थी। इस दौरान कई डॉक्टर बदल चुके थे। अंग्रेज़ी दवाइयों से निराश होकर, आयुर्वेदिक और होमियोपैथी दवाइयां भी आज़मा चुकी थी। दवाइयां खाने तक ही सब थोड़ा ठीक रहता और दवाइयां बंद करते ही सब वैसा का वैसा।
अब तक मैं शहरों से बहुत ज़्यादा निराश हो चुकी थी। मुझे किसी भी शहर में नहीं रहना था। मन कर रहा था कहीं दूर हिमालय पर भाग जाऊं या किसी ऐसे गॉंव में चली जाऊं जहां ‘विकास’ ना पहुंचा हो। लेकिन बहुत सी चीज़ें आपके हाथ से बाहर होती हैं। एक तो हमारा कोई गॉंव नहीं (जाने कितने लोगों के गॉंव बचे हैं), दूसरा आखिर कितने दिन किसी के यहां रहा जा सकता है।
शहर से दूर जाना था मुझे लेकिन मेरे पास शहर के अलावा कोई ऑप्शन भी नहीं था। तो तय हुआ वापस मुंबई ही चला जाए लेकिन इस बार हमने शहर में रहते हुए भी शहर से दूर रहने का फैसला लिया। फिलहाल मैं मुंबई में हूं लेकिन मुख्य मुंबई से दूर बाहरी मुंबई में हूं। मेन मुंबई के मुकाबले यहां बहुत कम ट्रैफिक है। बहुत कम बसाहट है।
मुंबई के पहाड़ों और पेड़ों से घिरा इलाका और मेरे जीवन में सकारात्मक बदलाव की शुरुआत
जिस एरिया में मैं हूं वह एक तरफ पहाड़ों और एक तरफ पेड़ों से घिरा है। हमारी सोसायटी में जितने लोग हैं, उससे दोगुने पेड़ हैं। सांस लेने के लिए खुली और साफ हवा है। ज़्यादा आबादी नहीं होने की वजह से यहां ज़हरीली गैसों के उत्सर्जन का स्तर दिल्ली के मुकाबले काफी कम है। यकीन मानिए यहां रहने मात्र से मेरी सेहत में काफी फर्क आया है। यहां आकर मैंने दवाइयां कम कर दी हैं। खुले हरे मैदान में सुबह-शाम योगा करती हूं।
खुली सड़क पर साइकिल चलाती हूं और अपनी तरफ से जितना हो सके हेल्दी खाती हूं। मैं यह तो नहीं कहूंगी कि मैं पूरी तरह ठीक हो गई हूं लेकिन इतना ज़रूर है कि अब शरीर पहले के मुकाबले फुर्तीला हुआ है। सूजन कम हुई है और मन में ताज़गी और ऊर्जा रहती है। अब पूरा दिन पहले से ज़्यादा पॉज़िटिव रहती हूं।
अब मैं नेचर के पास रह रही हूं लेकिन यहां भी नेचर कब तक बचेगा या यूं कहें हम कब तक बचा पाएंगे, नहीं पता। आसपास कई बड़े प्रोजेक्ट शुरू हो गए हैं। आने वाले समय में यहां भी लोगों के मुकाबले पेड़ कम और बिल्डिंग ज़्यादा होंगी। लोग कम गाड़ियां ज़्यादा होंगी और उतना ही ज़्यादा होगा गाड़ियों का धुंआ और फिर यह जगह भी महानगरों की दूसरी जगहों जैसी हो जाएगी।
शायद तब तक मैं ठीक हो जाऊं। या कहीं और चली जाऊं। कुछ भी हो सच तो यह है कि यह जगह भी हमेशा ऐसी नहीं रहने वाली। इंसानी लालच इसे भी एक दिन कॉन्क्रीट का जंगल बना देगा। तब मैं ऐसी जगह की तलाश में जाने कहां भटक रही होउंगी। मैं क्या मेरा जैसा सुकून पसंद, प्रकृति प्रेमी शायद हर इंसान शायद ऐसी ही किसी जगह की तलाश में होगा। पर्यावरण परिवर्तन सच है, कम या ज़्यादा हम सब इससे प्रभावित हो रहे हैं।
मुंबई में इस वक्त बारिश हो रही है। बरसों से ये महीना ‘अक्टूबर हीट’ के नाम से फेमस था। मतलब इस महीने गंदी वाली गर्मी होती थी लेकिन इस बार एक-दो दिन को छोड़कर पूरे महीने बारिश हुई है। दिल्ली में सर्दी पड़नी कम हो गयी है, बारिश तो ना के बराबर होती है। मौसम का यूं बदलना ही क्लाइमेट चेंज है। सर्दियां आने पर पहले दिल्ली में स्वेटर खरीदे जाते थे अब मास्क ऑर्डर किए जा रहे हैं और ये सब तरक्की के नाम पर हो रहा है।
एक दिन आएगा जब सारे समझदार, तरक्की पसंद लोग शहर से उकताकर गॉंव भागना चाहेंगे लेकिन तब तक भागने के लिए शायद गॉंव भी ना बचे, क्योंकि विकास और शहरीकरण के नाम पर बचे हुए गॉंव की भी बली दी जा चुकी होगी और पेड़ों की जगह कॉन्क्रीट के जंगल खड़े कर दिए गए होंगे।