धर्म समाज का अभिन्न हिस्सा है तथा राजनीति भी समाज से जुड़ी हुई है। इस संदर्भ में धर्म और राजनीति के बीच एक सम्बन्ध प्रतीत होता है। भारतीय राजनीति धर्म केन्द्रीत है। भारतीय राजनीति में धर्म का उपयोग ठीक उसी तरह से होता है, जिस तरह से भोजन में नमक का।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में धर्म का उल्लेख बड़े स्तर पर देखने को मिलता है। उपनिषद में “सर्वधर्म समभाव” की बात गंभीरता से की गई है, जिसका मतलब समाज के सभी धर्मों के लोगों को एक समान दृष्टि से देखना है। बदलते समय में इस अवधारणा को काफी कमज़ोर किया गया है इसलिए आज सभी धर्मों को व्यवहारिक स्तर पर एक समान ‘सम्मान की दृष्टि’ से नहीं देखा जाता है।
हाशिए पर राजनीति की साख
हाल में ही सम्पन्न हुए महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में जिस प्रकार धार्मिक मुद्दों को एक अलग रंग देने की कोशिश की गई, उससे एक बार फिर राजनीति की साख हाशिए पर पहुंच गई है। भारत में जब जब चुनाव होते हैं, चाहे वे लोकसभा के चुनाव हों या विधानसभा के चुनाव, तुष्टिकरण का धार्मिक मुद्दा अपने चरम पर पहुंच जाता है।
भारतीय संविधान, भारतीय राज्य को धर्मनिरपेक्ष राज्य की संज्ञा देता है मगर यह दुर्भाग्य की बात है कि आज हमारे देश के लगभग सभी दल इस धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा का दुरूपयोग करते हैं। राजनेताओं द्वारा इस सिद्धांत का उपयोग “वोट बैंक की राजनीति” के लिए किया जाता है। आज की दलीय राजनीति अपने वोट बैंक के लिए समाज को धर्म के नाम पर विभाजित कर रही है।
स्वार्थ के लिए राजनीति में धर्म का प्रयोग
आज राजनीति में धर्म के नाम पर जिस तरह से लोगों लामबंद किया जा रहा है, उसे देखकर यह प्रतीत होता है कि व्यवहारिक तौर पर धर्मनिरपेक्षता है ही नहीं। आज धर्म का राजनीति में प्रयोग सिर्फ स्वहित एवं स्वार्थ के लिए ही किया जा रहा है। धर्म के नाम पर राजनीति में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया जा रहा है।
अल्पसंख्यक समुदायों के लिए तुष्टिकरण की राजनीति अपने चरम सीमा पर पहुंच चुकी है। राजनीति एक प्रकार का सार्वजनिक विषय है जबकि धर्म अपने आप में निजी विषय है। मेरे मुताबिक राजनीति अपने आप में धर्म होनी चाहिए।
जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (3) के अंतर्गत चुनाव के दौरान जाति, धर्म, पंथ और भाषा के आधार पर वोट मांगना भ्रष्ट आचरण है। निर्वाचन प्रक्रिया अपने आप में एक धर्मनिरपेक्ष क्रिया है और इस संदर्भ में इस प्रक्रिया में धर्म का प्रयोग करना औचित्यहीन है। महात्मा गाँधी ने भी 1930 के दशक में धर्मनिरपेक्ष कानून और धर्मनिरपेक्ष राज्य की बात कही थी।
जैसा कि नेहरू ने अपनी किताब “The Discovery of India” में यह कहा है कि भारत तब तक आगे नहीं बढ़ सकता है, जब तक हम धार्मिक क्रिया-कलापों, पूजा पाठ व धार्मिक समूहों को महत्व देना बंद ना करें परंतु क्या यह प्रभाव सिर्फ चंद लोगों पर ही हुआ?
हम भी खुद को महत्व ना देकर इस नाजायज़ प्रवृतियों में उलझे जा रहे हैं और समस्या तो तब आ जाती है जब यह समूह देश की दशा-दिशा बदलने की ताकत रखने लगते हैं।
हमें यह तय करना होगा कि हमें अपने देश से प्रेम है या इस देश को नीचे ले जाने वाली निम्नस्तर की धार्मिक समूहों से? क्योंकि आज के समाज के लोग इतने जागरुक हो चुके हैं कि किसी भी बात को स्वीकार करने व ना करने में तुरंत समय ले लेते हैं।
वे ना तो गहराई को समझते हैं और ना ही गहराई में जाना चाहते हैं। समस्या यह है कि लोगों में धैर्य की कमी है। उन्हें तुरंत परिणाम चाहिए। भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में लोकतंत्र को सही रूप में क्रियान्वित करने के लिए राजनीति में धर्म की दखलंदाज़ी नहीं होनी चहिए।