परिवर्तन संसार का नियम है। कहा जाता है प्रकृति की रचना में सबसे अहम हिस्सा स्त्री को माना गया है। बिना स्त्री के जीवन की कल्पना करना मुश्किल है। माँ, बहन, पत्नी और बेटी के रूप में महिलाएं महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।
प्रकृति ने स्त्री को अनेकों गुणों से नवाज़ा है जिसकी वजह से संसार में उन्हें अलग पहचान प्राप्त है। कहावत है कि एक महिला तभी सम्पूर्ण महिला कहलाती है, जब उसे माहवारी आती है। उस दिन से वह लड़की नहीं, बल्कि सम्पूर्ण महिला बन जाती है।
परिवार के सदस्य बताते थे कि माहवारी अभिशाप है
लड़कियों को लेकर हमारे समाज में तरह-तरह की धारणाएं बनी हुई हैं। कहा जाता है कि लड़कियों को माहवारी आने से वे शादी के लायक हो जाती हैं। उनके पेरेन्ट्स शादी के लिए लड़के की तलाश करना शुरू कर देते हैं। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि लड़की शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार है भी या नहीं।
मैंने अपनी दादी, बड़ी माँ और मेरी माँ से सुना है कि महिलाओं के लिए माहवारी जहां अभिशाप है, वहीं यह वरदान भी है। माहवारी ही है जो एक महिला को माँ बनने का उत्तम एहसास दिलाती है।
ऐसी बातें सुनने के बाद कहीं ना कहीं मैं भी यह मानने लगी थी कि ये चीज़ें सही हैं। माहवारी एक ऐसा शब्द है जिससे होने वाली तकलीफों को लड़कियां जानती हैं।
पहले पीरियड से अंजान थी मैं
इस लेख के ज़रिये मैं अपने पहले पीरियड के दौरान होने वाली परेशानियों का ज़िक्र कर रही हूं। बात उन दिनों की है जब मैं क्लास 9 में थी। समाज के तौर-तरीकों से अनजान, खुद में हो रहे बदलावों से भी अनजान थी। घर की महिलाएं कभी- कभी कुछ अजीब से सवाल किया करती थीं, जिनका जवाब मेरे पास नहीं था।
एक दिन सुबह स्कूल के लिए तैयार हो रही थी तभी मुझे कुछ अजीब सा महसूस हुआ। ऐसा लगा जैसे मेरी पेंटी गीली हो गई है। थोड़ी देर के लिए मैं सोचने लग गई कि आखिर यह सब क्या है? फिर स्कूल जाने की जल्दी थी तो मैं उसी तरह स्कूल चली गई।
मेरी चाल धीरे हो गई और भाई-बहनों की भीड़ से मैं अलग चलने लगी। मेरे ज़हन में कई तरह की चिंताएं आनी शुरू हो गईं। मुझे लगा इतना अजीब तो कभी एहसास नहीं हुआ फिर आज अचानक ऐसा क्या हुआ?
स्कूल की चटाई में खून के निशान लग गए थे
किसी से कह भी नहीं पा रही थी और सबसे अजीब बात कि मुझे खुद नहीं पता था कि यह सब पीरियड की वजह से है।धीरे-धीरे डरी सहमी स्कूल पहुंची। स्कूल में मैं ही हर रोज़ सरस्वती वंदना कराती थी। मेरी दीदी ने जब वंदना के लिए मुझे बुलाया, तब मैं डरी-सहमी थी।
मेरे दिमाग में बस एक ही सवाल चल रहा था कि यह कोई बीमारी तो नहीं? मुझे बाद में जानकारी मिली कि स्कूल में वंदना का एक नियम था, वो यह कि माहवारी के दौरान लड़कियां इसमें शामिल नहीं हो सकती हैं।
आचार्य जी का खौफ लड़कियों पर कुछ इस कदर होता था कि माहवारी के दौरान वे चुपचाप पीछे वाली बेंच में बैठी रहती थीं। स्कूल की आध्यपिका को पहले ही लड़कियां बता देती थीं कि उनका पीरियड चल रहा है और उन्हें वंदना के लिए ना बुलाया जाए।
माहवारी के दौरान शिक्षकों को भी इस बात की जानकारी होती थी और इसी वजह से लड़कियां क्लास में काफी शर्म महसूस करती थीं। मैं उस समय काफी परेशान रहती थी कि अब क्या करूं? मुझे रीति रिवाज़ों के बारे में कोई खास जानकारी नहीं थी। मैंने उसी अवस्था में सरस्वती वंदना कराई। स्कूल में बैठने की व्यवस्था तब ज़मीन पर थी।
एक बड़ी सी पॉलीथिन पर बैठकर हम सभी पढ़ाई करते थे। टीचर से अपनी कॉपी चेक कराने के लिए उठने पर देखा कि लाल रंग का धब्बा पॉलीथिन पर लगा हुआ है।
यह देखकर मैं काफी डर गई और टीचर के पास कॉपी चेक कराने ना जाककर वापस बैठ गई। इस दौरान मुझे बहुत दर्द हो रहा थी और डर भी लग रहा था कि अगर घरवालों को पता चल गया तो पता नहीं वे क्या कहेंगे?
कभी पत्ते तो कभी कपड़े से खून साफ करती
मेरे पूरे कपड़े गंदे हो गए थे। घर आकर स्नान करने के बाद लगा कि सब ठीक हो जाएगा मगर ऐसा हुआ नहीं। डर और संकोच की वजह से मुझे बुखार आ गया। बार-बार ज़हन में यही सवाल आ रहे थे कि आखिर मुझे हुआ क्या है? मैं घर में अकेली रो रही थी। कभी कपड़े तो कभी पत्ते से खून साफ करके फेंक देती थी।
डर की वजह से मैं मम्मी को बता नहीं पाई और कई दफा बताने की कोशिश करने पर भी सही जवाब मुझे नहीं मिला। ये दिन तो कट गए फिर अगले महीने जब ऐसा महसूस हुआ तब मेरी चिंता और भी बढ़ गई।
मैं यह सोचकर घर से बाहर नहीं निकलती थी कि पता नहीं कब पीरियड आ जाए। स्कूल भी बहुत कम ही जाती थी। साईकिल से स्कूल जाने में बहुत परेशानी होती थी। मैं ना तो कपड़े और ना ही सैनिटरी पैड का इस्तेमाल करती थी, क्योंकि मुझे इस बारे में कुछ भी नहीं पता था। बस दिन में कई बार स्नान करती थी।
मम्मी ने कहा अब मैं बड़ी हो गई हूं
इस बार जब मुझे पीरियड आया तो मैं मम्मी से लिपटकर बहुत रोई। मैंने उन्हें बताया कि मुझे कुछ महीनों से ऐसा हो रहा है। उनसे पूछा कि कहीं कोई बीमारी तो नहीं है? मैंने उन्हें मेरे साथ अस्पताल चलने के लिए कहा।
मेरी बातें सुनकर मम्मी हंसने लग गईं फिर बताया कि हर लड़की को एक उम्र के बाद माहवारी आती है। ऐसा सिर्फ तुम्हें ही नहीं, बल्कि तुम्हारी उम्र में मुझे भी हुआ था। माहवारी आना अच्छी बात है। डरो नहीं, सब ठीक हो जाएगा।
मम्मी ने बड़ा सा कपड़ा लेकर तीन-चार बार उसे मोड़ते हुए मुझे रखने के लिए दे दिया। मैंने भी मम्मी की बात मानी और उस कपड़े को रख लिया। इसके बाद थोडी सी राहत हुई कि अब कम-से-कम कपड़ों पर खून का धब्बा तो नहीं लगेगा।
मम्मी ने इसके बाद बहुत सारी बातें मुझे बताई। उन्होंने कहा कि अब तुम बड़ी हो रही हो। उन्होंने कहा, “अब मैं पहले की तरह खेल नहीं पाऊंगी। अब मैं बच्ची नहीं रही और घर से बाहर जाऊं तो मम्मी को बताकर जाऊं।”
मुझे और भी बातें बताई गईं कि गाँव में किसी से बात नहीं करना है और खासकर लड़कों से तो बिलकुल भी नहीं। मुझे कहा गया कि इस दौरान मैं मंदिर में पूजा ना करूं। घर में आचार को हाथ ना लगाऊं। किसी को ना बताऊं कि मुझे पीरियड है।
मम्मी की बातें सुनकर मेरी दुनिया जैसे सिमट गई। ऐसा लगा जैसे मेरे हाथ-पैरों में बेड़ियां डाल दी गई हों। मेरी आज़ादी जैसे छीन ली हो। इस परिवर्तन से मुझे बहुत नाराज़गी थी। मैं मम्मी से रोज़ कहती थी कि यह कब सही होगा?
मैं मम्मी से कहती थी कि मुझे कपड़ों का इस्तेमाल करना अच्छा नहीं लगता है। मैंने उनसे यह तक कहा कि कपड़े के कारण ऐसा लगता है जैसे कुछ चुभ रहा हो और मैं ठीक से चल भी नहीं पाती हूं। कई दफा तो ऐसा लगता है जैसे कपड़ा गिर ही गया हो।
एक दिन माँ से मैं यह सब कह ही रही थी कि घर के अन्य सदस्यों ने ये बातें सुन ली। सभी को पता चल गया कि मुझे पीरियड है। खैर, धीरे-धीरे मैं खुद इन सबके बारे में जानती गई और सब नॉर्मल होता गया।
पीरियड्स को लेकर आज भी हैं भ्रांतियां
मसला यह है कि आज की तारीख में भी बहुत सी लड़कियों को मेरी तरह परेशानियों का सामना करना पड़ता है और शुरू में उन्हें बताने वाला कोई नहीं होता है। इस दौरान साफ-सफाई के बारे में भी कोई जानकारी नहीं दी जाती है।
पीरियड के पहले रोज़ से लेकर अंतिम दिन तक बाल नहीं धुलना है, पहले दिन स्नान नहीं करना है और लड़कों से दूर रहने आदि जैसी बातें बताई जाती हैं।
मैं हमेशा ऐसा जीवन जीना चाहती रही जैसे लड़के जीते हैं। पीरियड्स के दौरान मैं सोचती थी कि यह लड़कों को भी आता होगा। मम्मी से पूछने पर मुझे जानकारी मिली कि यह सिर्फ महिलाओं में होता है। खैर, उम्र और बदलते वक्त के साथ मेरी सोच भी बदली।
12वीं के बाद सैनिटरी पैड यूज़ करना शुरू किया
12वीं कक्षा तक मम्मी को सारी बातें बताती थी। धीरे-धीरे 12वीं के बाद जब बाहर निकली तब कपड़ों की जगह सैनिटरी पैड का इस्तेमाल करने लगी। पहले लोगों से डर लगता था कि इस बारे में किसी पुरुष से बात करूंगी तो वे क्या सोचेंगे?
बदलते वक्त के साथ अब महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों के सोच में भी बदलाव आया है। आज हम अपने घर में पीरियड पर खुलकर बात करते हैं। घर के पुरुषों से सैनिटरी पैड मांग लेते हैं। ऐसे में यह कहना बिलकुल गलत नहीं होगा कि आज रूढ़िवादी विचारों का खात्मा हो रहा है।
धीरे-धीरे जागरूक हो रहे हैं लोग
आज हर क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों के बराबर हैं। माहवारी के दौरान उन पर जहां तरह-तरह की बंदिशें लगाई जाती थी, आज वे हर बड़े से बड़े ओहदे पर रहकर देश को गर्व का पल दे रही हैं।
महिलाओं के लिए चल रहे कार्यक्रमों की वजह से समाज और लोगों की सोच में बहुत बदलाव आया है। सबसे ज़्यादा समाज को प्रभावित फिल्म “पैडमेन” ने किया। लोगों की सोच में क्रांतिकारी बदलाव आया है। आज घर के पुरुष भी कहते हैं कि कपड़े की जगह पैड का इस्तेमाल करना चाहिए।
आज इस मुद्दे पर लोगों को खुलकर बात करते देखती हूं तो यह बात सही साबित होती है कि समाज में बदलाव लाने के लिए सोच का बदलना बहुत ज़रूरी है।
महिलाओं में माहवारी कोई छिपाने वाला विषय नहीं है। यह एक शारीरिक प्रक्रिया है जिसको कुछ लोगों की गंदी सोच और गंदे नज़रिये ने समाज के सामने इतना गंदा कर दिया है कि लोग इस विषय पर बात करने से दूर भागते हैं। इन सबके बीच सकारात्मक सोच की वजह से समाज के लोगों की सोच को कहीं ना कहीं बदलते देखा जा रहा है।
आज महिलाए ही नहीं, बल्कि पुरुष वर्ग भी महिलाओं को माहवारी के दिनों में कपड़े की जगह सैनिटरी पैड के उपयोग पर ज़ोर दे रहे हैं। बहुत से सामाजिक संगठन इस विषय पर उम्दा काम कर रहे हैं। गाँव-गाँव व मलिन बस्तियों में जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं।
मेरी भी कोशिश है कि इस विषय पर महिलाओं और पुरुषों से खुलकर बात करके माहवारी के प्रति जो उनकी झिझक होती है, उन्हें दूर कर पाऊं। यह कोई रोग नहीं है कि जिसका इलाज ही संभव ना हो।
सम्मान और सहयोग की भावना के ज़रिये समाज में महिलाओं को जागरूक और सम्मान पूर्वक वातावरण दिया जा सकता है। उनको हंसी का पात्र ना बनाकर सम्मानित नज़रिया दिया जाना चाहिए, क्योंकि यह दर्द वही समझ सकता है जिसे यह सब झेलना पड़ता है।
महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्ज़ा तो मिला है मगर कहीं ना कहीं माहवारी की वजह से आज भी महिलाएं झिझक में जीती हैं।