धर्मनिरपेक्षता के बारे में बहुत से सवाल गाहे-बगाहे उठ खड़े होते हैं। धर्मनिरपेक्षता को लेकर अब तक एकमत राय बन नहीं पाई है, जिससे हम धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित कर सकते हैं।
अगर धर्मनिरपेक्षता पर मैं अपना कोई नज़रिया रखूं, तो वह इस शब्द की प्रचलित व्याख्या से दूर निकल जाती है। धर्म शब्द की व्याख्या आप स्वयं कर सकते हैं, निरपेक्षता का अर्थ तटस्थता ही शब्दकोश में मिलता है, यानी बिना किसी पाले में लुढ़कते हुए तटस्थता की स्थिति को बरकार रखना। तब इस परिस्थिति में किसी एक खास मज़हब के प्रति अपनी निष्ठा बनाए बिना या फिर किसी खास मज़हब के प्रभाव में आए बिना तटस्थता की स्थिति को बरकार रखने को हम धर्मनिरपेक्षता कह सकते हैं।
पर इस तटस्थता का निर्माण दो ही परिस्थितियों में हो सकता है,
- यदि इंसान नास्तिक हो जाए तब वह किसी भी मज़हब के प्रभाव से मुक्त रहेगा,
- या फिर अपने देश में मौजूद सभी मज़हबों का अनुयायी बन जाए।
पहली परिस्थिति में पहुंचने के लिए अभी इंसान को काफी लंबा सफर तय करना है, खासकर तब जब इंसान के हिम्मत को तोड़ने के लिए दुनिया के कई हिस्सों में ईशा निंदा जैसा बर्बर कानून मौजूद है।
दूसरी परिस्थितियां जिसका विकृत स्वरूप भारत में अप्रत्यक्ष रूप से मौजूद है और जिसकी भर्त्सना हिंदुत्ववादी संगठन एक लम्बे समय से करते हुए पाए जाते हैं। जिस दूसरी स्थिति की मैं बात कर रहा हूं, वह व्यावहारिक रूप से संभव नहीं दिखाई देती है। कोई इंसान मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर जाकर उन सभी धर्मों के धार्मिक क्रियाकलापों का अनुसरण नहीं कर सकता है। हां, यह सिर्फ आमिर खान ही PK में ईश्वर की खोज में कर सकते हैं।
हम किसे धर्मनिरपेक्षता मानते हैं?
फिर हम जिसे धर्मनिरपेक्षता मानते हैं, उसके अनुसार अगर मैं हिन्दू हूं, तो अपने मुस्लिम दोस्त को ईद पर मुबारकबाद देना, अपने ईसाई दोस्त को क्रिसमस की शुभकामनाएं देना, सिख दोस्त को गुरु पर्व की बधाईयां देना ही सेक्युलरिज़्म की कसौटी बन जाती है।
पर इन सभी परिस्थितियों में अलगाव और दुराव का बोध तो आ ही जाता है, जब हिंदू मुसलमान को ईद की मुबारकबाद देता है, तो वह जानता है इस पर्व से उसका दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है। यही बात तब भी लागू होती है, जब मुसलमान हिन्दू को दिवाली की शुभकामनाएं देता है।
मुसलमान जब हिंदू को बधाईयां देता है, तब वह इस कट्टर मुसलमान की छवि से अपना पिंड भी छुड़ाता है, जिसे वैश्विक स्तर पर साम्राज्यवादी ताकतों के द्वारा गढ़ा और कॉरपरेट मीडिया द्वारा प्रचारित किया गया है। जब एक हिंदू मुसलानों को बधाईयां देता है, तब वह भी उसी छवि से निपटारा पाना चाहता है, जो हिंदू कट्टरपंथ की ओर उसकी स्वयं की छवि को ले जाती है।
बिना किसी तटस्थत दृष्टिकोण के धर्मनिरपेक्षता की कल्पना नहीं हो सकती है
इसके अनुसार सेक्युलरवाद की सारी कवायद समाज में एक उदारवादी छवि के निर्माण की है परंतु उदारवादी छवि इंसान के भीतर व्याप्त एक धर्म से निकटता और दूसरे से अलगाव का बोध तो नहीं मिटा सकती। जहां आप एक कुनबे से निकटता और दूजे से अलगाव महसूस करते हैं, उस परस्थिति में तटस्थता के लिए जगह रह नहीं जाती है।
बिना किसी तटस्थत दृष्टिकोण के हम धर्मनिरपेक्षता की परिकल्पना कर ही नहीं सकते हैं। निकटता और अलगाव की भावना भीतर रखकर आप किसी भी छवि का निर्माण करें, वह धर्मनिरपेक्षता के बनिस्पद धर्मसापेक्षता ही होगी।