दोपहर का समय उसके लिए बड़ा ही उलझन भरा रहता था, क्योंकि एक तो उस समय उसके गाँव के बच्चे स्कूल से आते थे जिनके चेहरे पर एक अजीब सा सुकून होता था। वह बस से उतरते और अपनी माँ का हाथ पकड़कर अपने घर की तरफ चले जाते थे।
वह काफी देर तक वहीं खड़ा रहता था, जब तक कि वह बस और सारे बच्चे घर तक चले नहीं जाते थे। वह कभी स्कूल तो नहीं जा पाया था, क्योंकि इसके लिए ना तो पर्याप्त पैसे का इंतज़ाम था और ना कोई फिक्र करने वाला था। हां, वह मदरसा कुछ दिन ज़रूर गया था।
कुछ दिन इसलिए क्योंकि जब वह कुछ समय पहले मदरसे में पहली बार पढ़ने गया था, तो ‘अलिफ’, ‘बा’, ‘ता’ (उर्दू के वर्णमाला) याद ना होने पर मौलवी साहब ने उसका तशरीफ सज़ा दिया था। उसकी दादी ने इसके लिए उस मौलवी साहब को हज़ार गालियां और ताने दिए थे, उसके बाद से ही उसने कसम खाई थी कि वह मौलवी साहब के यहां नहीं पढ़ेगा।
स्कूल जाने के लिए अनुकूल स्तिथि नहीं थी मगर उसे पढ़ने का शौक ज़रूर था और यह शौक उसकी आंखों में झलकता था, जब वह बड़ी ही ललचाई और उलझन भरी निगह से उन बच्चों को बस से उतरते हुए देखता था।
उसके यहां फाका चल रहा था
उसकी ज़िंदगी की दूसरी बड़ी उलझन थी कि जोहर की नमाज के बाद खाने का समय होता है, जिसे उसके यहां म्हनी कहते हैं। मतलब लंच मगर उसके यहां खाने के नाम पर कभी भी पूरा भोजन तैयार ही नहीं होता था। कभी चावल बनता तो कभी केवल सब्ज़ी का जुगाड़ हो पाता था लेकिन कुछ दिनों से उसके यहां कुछ ज़्यादा ही भुखमरी चल रही थी, जिसे उसकी माँ फाका कहती थी।
उसकी माँ ने उसे बताया था कि हमारे नबी ने भी काफी फाके किए थे, वह अल्लाह के नबी थे तो हम पर भी उन्हीं की उम्मत है। अगर उन्होंने पूरी ज़िंदगी फाके किए थे तो हमें भी इस पर दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
नबी की सुन्नत सिर्फ उसके घर ही क्यों?
उसके आस-पड़ोस में तो लोग तीनों टाइम भर-भर के खाते हैं मगर नबी की सुन्नत सिर्फ उसके घर ही क्यों? एकाध बार वह भी लोगों के यहां खाकर आ जाया करता था मगर उसकी माँ ने उसे मना किया है कि किसी के यहां यूं ही खाने ना जाया करे।
उसकी माँ ने उसे खुद्दारी के बारे में बताया कि खुद्दारी इंसान की अहम चीज़ होती है। उसे इसका मतलब तो नहीं पता था मगर केवल इतना पता था कि दूसरों के यह खाना खाने से उसकी माँ ने मना किया है।
गाँव के सारे पत्तों का स्वाद उसे मालूम था
उसके परिवार में लगभग 14 लोग थे। उसके अब्बू ने दो शादियां की थीं। चूंकि उसके अब्बू क्लर्क की नौकरी से रिटायर हो गए थे इसलिए अब केवल पेंशन मिलता था, जो इतना कम था कि उसके केवल दस दिन ही गुज़ारा चलता था।
बड़े भाई साब अब भी बेरोज़गार बैठे थे और वह परिवार में सबसे छोटा और पेट का बड़ा लड़का था, जिसे भूखे रहने में कोई दिक्कत तो नहीं थी मगर वह भूखा रह नहीं सकता था। उसे जब भूख लगती वह कुछ-ना-कुछ ज़रूर खा लेता था। गाँव के सारे पत्त्तों का स्वाद वह ले चुका था, जिसकी वजह से उसे कई बार पेट की बीमारी भी हो गई थी।
पहले से फूला हुआ पेट इतना फूल गया था कि हमें लगता था कम-से-कम चार बच्चे तो उसके पेट में होंगे ही। उसकी माँ ने बड़े ही झाड़-फूंक किए तब जाकर वह सही हुआ। आज कल वह अपने ही घर की मिट्टी खा लेता है और उसके अनुसार इसमें काफी स्वाद है।
दादी का इंतकाल
खैर छोड़िए, एक दिन जब दोपहर की अजान हुई तो वह अपने घर आया, बिना किसी खाने की उम्मीद के। घर पहुंचते ही उसने देखा कि घर के लोग ज़ारो-कतार रो रहे हैं। उसने पता किया तो मालूम हुआ कि उसकी दादी का इंतकाल हो गया है।
दादी उसके घर की सबसे उम्रदराज़ और ज़्यादा समय तक भूख बर्दाश्त करने वाली शख्स थीं। दादी उसे बहुत प्यार करती थीं, जब वह रात को भूख से सो नहीं पाता था तो दादी ही उसे नबी और सहाबा की भूख और उन पर हुए ज़ुल्म की कहानी सुनाया करती थी, जिसके बाद उसे अकसर नींद आ जाया करती थी।
उसकी दादी भूख की हालत में ही चल बसी। आज दादी के मरने के बाद उसे इस बात का मलाल हुआ कि अब उसे भूखे पेट सुलाएगा कौन? उसने अपनी माँ को देखा, वह रोए जा रही थीं जबकि दादी के ज़िंदा रहते दोनों झगड़ते रहते थे। वह अपनी माँ को रोता देख खुद भी रोने लगा, जिसके बाद माँ ने उसे गले से लगा लिया।
दादी का जनाज़ा और खाना
अगली सुबह उसकी दादी का जनाज़ा पढ़ा गया फिर उन्हें गाँव के कब्रिस्तान में दफना दिया गया। जब वह घर आया तो फिर दोपहर की अजान कानों में गुंजी। वह घर पहुंचा ही था कि देखता है, घर में बड़े-बड़े बर्तनों में चावल, दाल और तरकारी रखे हुए हैं। वह भी इतने सारे कि रात तक खाते रहे तब भी खत्म ना हो।
वह अपनी दादी को लेकर दुखी था मगर भूख के आगे सब बेबस हो जाते हैं। वह बड़ी ललचाई नज़रों से खाने को देखने लगा कि तभी उसकी माँ ने उसे बुलाया। उसने अपनी माँ से पूछा कि इतना सारा खाना कौन लेकर आया? उसकी माँ ने कहा कि यह खाना हमें हमारे पड़ोसी ने दिया है। भोलेमन से उनसे सवाल किया कि आज क्यों दिया है, पहले तो कभी नहीं दिया।
उसकी माँ ने खाना परोसते हुए कहा कि जब कोई मर जाता है तो उसके घर मे तीन दिन तक चूल्हा नहीं जलता है, आस-पड़ोस के लोग ही लाकर खिलाते हैं। यह सुनकर उसे बड़ा अजीब लगा कि चूल्हा तो हमारे यहां दादी के ज़िंदा रहते भी कभी नहीं जला मगर इन लोगों ने तो कभी इस तरह से हमें खाना नहीं खिलाया।
खाना मय्यत का इंतज़ार करता है
वह बड़ा चिंतित हुआ कि जब तक दादी ज़िंदा थीं, तब तक ये लोग उन्हें बीड़ी तक नहीं पिलाते थे और उनके मरने के बाद आज खाना खिला रहे हैं। वह यह सोचते हुए खाना खाने लगा कि शायद पड़ोसियों से इतना सारा तभी मिल सकता था जब तक कि उसके घर कोई मय्यत ना हो जाए।
वह अपनी माँ से लगातार इस बात के लिए हुज्जत करने लगा कि माज़रा क्या है, क्योंकि यह बात उसके लिए नई और अनोखी थी। जब वह ज़्यादा प्रश्न करने लगा तो उसकी माँ ने उसे झटककर कहा कि चुपचाप खाना खा। उलझन भरी अवस्था में खाना खाते हुए, वह अपनी उंगलियों में लगातार कुछ गिन रहा था। शायद वह अपने परिवार के कुछ और बूढ़े लोगों की मौत और उस मौत के बाद लगातार तीन दिन तक खाना मिलने का हिसाब कर रहा था।