साल 2018 में 20 से 27 सितंबर के बीच देश के विभिन्न हिस्सों में पर्यावरण प्रेमी सड़कों पर उतरे थे, जहां उन्होंने कई तरीकों से जलवायु परिवर्तन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया था। सिर्फ यही नहीं विदेश के विभिन्न कोनों से आए हुए लोग भी इस “वर्ल्ड क्लाइमेट स्ट्राइक” का हिस्सा बने थे।
इस आंदोलन की नींव रखने वाली स्वीडन की 16 वर्षीय ग्रेटा थनबर्ग हैं, जो एक पर्यावरण कार्यकर्ता हैं। उन्होंने विभिन्न देशों में पर्यावरण के मुद्दे पर चल रही बहस को तेज़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वह वैज्ञानिकों की चिंता को व्यापक स्तर पर समाज के जन-जन तक पहुंचाने के प्रयास में जुटी हैं। उनके द्वारा “फ्राइडे फॉर फ्यूचर” मुहिम चलाई जा रही है।
इसी क्रम में ग्रेटा की अपील पर दुनियाभर के युवाओं ने 20 से 27 सितंबर तक अपने-अपने देशों में सड़क पर उतर कर “वर्ल्ड क्लाइमेट स्ट्राइक” के पक्ष में आवाज़ बुलंद की। वह वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली पहली शख्सियत हैं और धरती को बचाने के लिए विश्व भर में जलवायु परिवर्तन के खिलाफ हो रहे आंदोलन का चेहरा बन चुकी हैं। हाल ही में उन्हें नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामित भी किया गया है।
ग्रेटा थनबर्ग का भाषण
संयुक्त राष्ट्र के मंच से ग्रेटा थनबर्ग ने विश्व के बड़े नेताओं के सामने अपना भाषण दिया। उन्होंने अपने भाषण से दुनियाभर के बड़े नेताओं को धरती के प्रति गंभीर ना होने का आइना दिखाया और विश्व नेताओं पर जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कार्यवाही करने में विफल होने का आरोप लगाया।
ग्रेटा ने विश्व नेताओं के सामने अपने भाषण में कहा,
यह सब गलत है। मुझे यहां नहीं होना चाहिए। मुझे तो इस समंदर के पार अपने स्कूल में होना चाहिए। आप सभी मेरे पास एक उम्मीद लेकर आए हैं। आपकी हिम्मत कैसे हुई? आपने अपने खोखले शब्दों से, मेरे सपने और बचपन को छीन लिया है। लोग परेशान हो रहे हैं, मर रहे हैं। पूरा इकोसिस्टम खराब हो रहा है और आप विकास के नाम की जादुई कहानी सुनाने में लगे हैं। आपकी हिम्मत कैसे हुई?
आज पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन के गंभीर संकट से जूझ रहा है, महाद्वीप के कई देश सूखे की चपेट में हैं। हालात सिर्फ दक्षिण अफ्रीका के खराब नहीं है, ऐसी ही स्थिति दुनिया के अन्य देशों की भी है। दक्षिण अफ्रीका का शहर केपटाउन बारिश ना होने के वजह से सूख गया है।
अफ्रीका से लेकर भारतीय उप महाद्वीप तक और यूरोप से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक मौसम में बदलाव दिख रहा है। कुएं सूखने लगे हैं और भूजल स्तर लगातार गिर रहा है। नलकूप में पानी नहीं आ रहा है और राज्य की कई नदियों का जल स्तर सामान्य से नीचे गिर गया है।
बदल रहा है भारत का मौसम
पिछले कुछ वर्षों में पूरे भारत का मौसम भी बदल रहा है। कहीं हद से ज़्यादा ठंडा तो कहीं हद से ज़्यादा बर्फबारी देखने को मिल रही है। भारत के गढ़वाल क्षेत्र में हिमालय के ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं और वैज्ञानिकों का मानना है कि अधिकांश मध्य और पूर्वी हिमालय ग्लेशियर 2035 तक गायब हो सकते हैं।
ग्लेशियर पिघलने से समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और इन सभी घटनाओं की वजह जलवायु परिवर्तन है। जनवरी 2017 के जर्नल क्लाइमेट में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार जलवायु परिवर्तन ने बाढ़ की विभीषिका को बढ़ा दिया है। इस समय यह यूपी के कुछ हिस्सों और बिहार में भारी बारिश के कहर का नमूना है।
- इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशेन ऑफ नेचर का अनुमान है कि अगर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन इसी रफ्तार से होता रहा तो 2100 तक विश्व के आधे से अधिक ग्लेशियर पिघल जाएंगे। आईआईटी गांधी नगर के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार कार्बन उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन के कारण भारत में भारी बारिश और बाढ़ सामान्य घटना बनती जा रही है।
- जर्नल वेदर एन्ड क्लाइमेट एक्स्ट्रीम में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है कि भविष्य में अधिक दिनों तक बाढ़ की घटनाओं में तेज़ी से वृद्धि होने की संभावना है।
- अंतर सरकारी पैनल (IPCC) ने 2018 में “स्पेशल रिपोर्ट ऑन 1.5 डिग्री सेल्सियस (एसआर 1.5)” प्रस्तुत किया। जिसमें साफ तौर पर चेतावनी है कि यदि वर्ष 2050 तक कुल कार्बन उत्सर्जन शून्य तक नहीं आया तो 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान बढ़ना तय है।
इस रिपोर्ट से यह स्पष्ट होता है कि वैश्विक तापमान किसी भी स्तर पर सुरक्षित नहीं है। रिपोर्ट में जलवायु प्रलय से बचने के लिए महज 12 वर्षों में तापमान बढ़ोत्तरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने की बात कही गई है। अब तक प्रकाशित होने वाली सभी वैज्ञानिक रिपोर्ट इंगित करती है कि हम एक भीषण संकट की ओर बढ़ रहे हैं।
सर्वक्षण के दावे
दुनिया के कई देश जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को महसूस करने लगे हैं, वह इसका प्रमुख कारण मनुष्य की गतिविधियों को मानते हैं। यू गव के हाल ही में सर्वक्षण और अध्ययन में ऐसा मनाने वाले सबसे ज़्यादा 71% भारतीय हैं, वही सबसे कम 35% नार्वे में हैं।
इसी सर्वेक्षण में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कठोर कदम उठाए जाने के पक्ष में 82% स्पेन के लोगों ने मत जाहिर किया। वही 80% मत के साथ कतर दूसरे स्थान और 79% मत के साथ तीसरे स्थान पर चीन मौजूद है। वही इस सूची में 19 वें स्थान पर भारत भी है, जो 61% मतों के साथ यह मानता है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ाई के लिए कठोर कदम उठाने होंगे।
जलवायु परिवर्तन और आर्थिक विकास
बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं का ज़िम्मेदार जलवायु परिवर्तन है, इसका बोझ सीधे तौर पर आर्थिक क्षेत्र पर पड़ता है। भारत में भी जलवायु परिवर्तन आर्थिक विकास को नुकसान पहुंचा रहा है। वेदर क्लाइमेट एंड केटास्ट्रोफ इनसाइट 2018 रिपोर्ट के अनुसार साल 2018 में प्राकृतिक आपदाओं ने दुनियाभर में 225 बिलियन डॉलर का नुकसान पहुंचाया है।
इन प्राकृतिक आपदाओं में चक्रवात, जंगलों में आग, गंभीर सूखा और बाढ़ शामिल है। रिपोर्ट बताती है कि साल 2018 में एशिया पैसिफिक में 89 बिलियन डॉलर का नुकसान पहुंचा है। बाढ़ से केवल भारत में 5.1 बिलियन डॉलर के बराबर नुकसान पहुंचा है।
संयुक्त राष्ट्र आपदा न्यूनीकरण कार्यालय द्वारा जारी एक अध्ययन में कहा गया है कि भारत ने प्राकृतिक आपदाओं और जलवायु परिवर्तन के चलते 1998 से 2017 की 20 साल की अवधि के दौरान लगभग 8000 करोड़ डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ। दुनिया भर में प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले आर्थिक नुकसान में भी भारत को दुनिया के शीर्ष पांच देशों में स्थान दिया गया। वैश्विक स्तर पर 300,000 करोड़ डॉलर के नुकसान का अनुमान लगाया गया है।
जलवायु परिवर्तन के वजह से सेहत, अर्थव्यवस्था, आजीविका, खाद्य सुरक्षा, सेहत और जीवन गुणवत्ता प्रभावित हुई है। करीब दस लाख पशु और वनस्पतियों की प्रजाति पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।
गैसों के उत्सर्जन में कटौती की मांग
IPBES रिपोर्ट के मुताबिक इस विलुप्ति के खतरे में ग्लोबल वार्मिंग की बड़ी भूमिका है। रिपोर्ट और वैज्ञानिकों के संदेशों ने विकासशील देश के युवाओं पर सकारात्मक असर डाला है, जिससे जलवायु परिवर्तन के खिलाफ ज़मीनी आंदोलन उभरता हुआ दिख रहा है। स्वीडन की ग्रेटा थनबर्ग के मुहिम “फ्राइडे फॉर फ्यूचर” से विश्व भर के युवा जुड़ते हुए अपने देश की सरकारों से एक आवाज़ में गैसों के उत्सर्जन में भारी कटौती की मांग कर रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय आंदोलन एक्सटेंशन रीबिलीयन ने आक्रामक तरीके से अपनी मांगों के लिए मध्य लंदन की रफ्तार को दस दिनों तक रोक रखा। इनके विरोध के कारण यूके के संसद पर दबाव आया किया कि उन्हें राष्ट्रीय जलवायु आपातकाल घोषित करना पड़ा।
जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जलवायु आपातकाल घोषित करने वाला ब्रिटेन विश्व में पहला देश बन गया है।
खासतौर से ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को पूरी तरह से खत्म किए जाने की बात हो रही है क्योंकि तपती धरती के लिए इस गैस का बहुत बड़ा प्रभाव है।
पेरिस ने भी जलवायु आपातकाल की घोषणा कर दी है। यहां 2015 में ही जलवायु परिवर्तन को लेकर ऐतिहासिक समझौता हुआ था लेकिन इन सबके बीच बड़ा सवाल उठता है कि भारत इस दिशा में क्या काम कर रहा है? क्या जलवायु आपातकाल से निपटने के लिए सरकार ने अभी तक कोई ठोस नीति बनाई है?
भारत में पर्यावरण संबंधित मुद्दे गुम हैं
भारत जैसे विकासशील देश में पर्यावरण से संबंधित मुद्दे को राजनीतिक तरजीह नहीं मिलती है। अगर हमारे राजनेता पर्यावरण के प्रति थोड़े भी गंभीर होते तो हाल ही में हुए आम चुनाव 2019 के चुनाव प्रचार में जलवायु परिवर्तन शब्द का इस्तेमाल करते मगर दुर्भाग्य रहा कि किसी शीर्ष नेता के मुख से जलवायु शब्द नहीं निकला।
आज के मौसम को देखकर मौसम विज्ञान इसे “न्यू नॉर्मल” के पीछे जलवायु परिवर्तन का हाथ माना जा रहा है। पर्यावरण को दरकिनार कर कैसा मानव विकास होगा? आज भी हम पर्यावरण के मुद्दों को ना उठाते हैं और ना ही बात करते हैं। दुखद हालात यह है कि भारत ने अंतरराष्ट्रीय पेरिस समझौते को गंभीरता से नहीं लिया और खुद को समझौते से अलग कर लिया।
वर्तमान परिस्थितियों को देखकर लगता है कि जलवायु परिवर्तन से ज़्यादा जलवायु प्रलय का संकट विश्व पर मंडरा रहा है। अगर पेरिस समझौते में आने वाले देशों ने समझौता अपना लिया होता तो आज पर्यावरण की परिस्थिति कुछ और होती।
ताकि किसी ग्रेटा को तख्ती लेकर ना बैठना पड़े
अगर अभी भी हम इन प्राकृतिक आपदाओं और जलवायु परिवर्तन के संकट से बचना है तो हम सभी को एक मंच पर आने और साथ मिलकर इस संकट से मुकाबला करने की ज़रूरत है तभी कल के लिए बेहतर और सुरक्षित भविष्य का निर्माण हो पाएगा।
पेरिस समझौता उसी क्रम में सुरक्षित भविष्य के लिए उठाया गया एक कदम है। सभी देशों को चाहिए की वह उसका सम्मान करे और मिलकर गैस उत्सर्जन में कमी लाए और विकास की अंधी दौड़ से हटकर अपने आने वाली पीढ़ियों को सुरक्षित और सुंदर पर्यावरण दें, जिससे कल किसी ग्रेटा को अपना स्कूल छोड़कर जलवायु परिवर्तन के खिलाफ सड़कों पर तख्ती लेकर ना बैठना पड़े।