फैज़ अहमद फैज़ ने लिखा था,
कफ़स उदास है, यारों सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-खुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले
यूट्यूब पर अल्फ्रेड हिचकौक की डॉक्यूमेंट्री “मेमोरीज़ ऑफ दि कैंप” होलोकॉस्ट की वीभत्स वास्तविक दृश्यों से परिचय कराती है। सब यह डॉक्यूमेंट्री देखें ज़रूरी नहीं है, पर मेरे ख्याल से हर इंसान जो अपनी निकटम पहचान(धार्मिक, नस्लीय, राष्ट्रीय) का वर्चस्व स्थापित करना चाहता है, उसे यह देखना चाहिए कि इस कुत्सित विचार की परिणीति किस तरह होती है।
होलोकॉस्ट एक भयावह नरसंहार
दुनिया में कई बार निरंकुश शासकों ने एक से बढ़कर एक नरसंहार को अंज़ाम दिया लेकिन होलोकॉस्ट में जिन हालात में लोगों को रखा गया और जिस तरह से राष्ट्रहित और राष्ट्रवाद के नाम पर आंतरिक दुश्मन तलाशने की विचारधारा ने धरती पर ही मिथकों में मौजूद दोज़ख का निर्माण किया। वह भयावह है।
शोषण के अत्याधुनिक उपकरण थे। बाकायदा पूरे यूरोप से यहूदियों को कॉसंट्रेशन कैम्प्स पहुंचने वाली होलोकास्ट ट्रेन, कांटेदार तारों के बिस्तर पर सोने को मजबूर किया जाना, पानी और खाद्य सामग्री के आभाव में तिल-तिल आती मौतें, गैस चैंबर में कपड़ों को उतरवा के सामूहिक स्नान के बहाने एकत्रित करके बंद कमरे में Zylon-B का छत पर से छिड़काव, दीवारों पर बार-बार हाथ पीटते छटपटाते हुए दुनिया से रुखसत कर जाना, ठीक कीड़ों को मारने के लिए कीटनाशक के इस्तमाल जैसा था।
यहां इंसानों की हैसियत कीड़े-मकौड़े तक मेहदूद कर दी गई थी, मृतक शरीर को गैस चैंबर से लगे मानव तंदूर में झोंक दिया जाता, जिसमें 10 हज़ार मृतकों को एक बार मे जलाने की क्षमता थी। ऐसी घटना के बारे में कल्पना करके ही मन सिहर उठता है।
आंतरिक दुश्मन मज़हबी आधार पर तलाशने की कवायद
भले ही वो अतीत था लेकिन आंतरिक दुश्मन मज़हबी आधार पर तलाशने की कवायद तो आज भी बादस्तूर जारी है। धार्मिक आधार पर घेटोकरण(किसी विशेष उत्पीडित अर्थात धार्मिक, नस्ली या रंगभेदी आधार पर शोषित आबादी को शहर के मुख्य इलाकों से अलग-थलग किसी झुग्गी-बस्ती जैसे इलाके में एकसाथ सिमटकर रहने के लिए मजबूर कर देना।) को अंजाम दिया ही जा चुका है।
ट्रेन में सफर करने के दौरान या चाय के नुक्कड़ पर लोगों की बहसों में एक मजहबी विद्वेष साफ हिटलर के फाइनल सॉल्यूशन की याद दिलाता है। कई बार लोग यही कहते मिलते हैं कि और उपाय ही क्या है, तब दिल सचमुच बैठ जाता है। जॉर्ज संतायाना ने कहा था
जो इतिहास से सबक नहीं लेते, वह इसे दोहराने को अभिशप्त हो जाते हैं
इस इतिहास के सबक को इस वक्त सीखने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।
यह डर तब और बड़ा हो जाता है जब बड़े-बड़े यातना शिविरों के निर्माण की खबरें हर रोज़ सुर्खिया बन जाती हैं। हालहीं में एक बड़े कैबिनेट मंत्री का हालिया बयान जिसमें उन्होंने हिंदू, सिख, ईसाइयों, जैन और बुद्ध शरणार्थियों के संरक्षण की घोषणा करके देश में मौजूद मुसलमान समुदाय को बड़ी चतुराई के साथ असहज महसूस होने की अप्रत्यक्ष घोषणा कर दी है।
नाज़ी विचाधारा के अनुयायियों की निरंकुशता जिस तरह हर दिन भयावह होते जा रही है। उसमें यहां रह रहे वाशिंदों को नागरिक पहचान पत्र का मोहताज बनाया जाना बाकी है।
नागरिकता प्राप्त करने की कसौटी
हमारे पड़ोसी मुल्क में रह रहे रोहिंग्या मुसलमान का नरसंहार, निष्कासन और बर्बरता को सिर्फ इसलिए अंजाम दिया जाता है क्योंकि वह ऐसे कागज़ी साक्ष्य जुटाने में असमर्थ थे, जिनसे यह सत्यापित हो कि उनके पूर्वज वर्ष 1823 से पहले बर्मा के निवासी थे। यह कल्पना से भी परे है की 200 साल पहले अपने पूर्वजों की मौजूदगी का कागज़ी साक्ष्य दुनिया के किसी देश में नागरिकता प्राप्त करने की कसौटी बन जाए।
गौरतलब है कि 2016 में प्रस्तावित नागरिक संशोधन बिल का प्रारूप भी अलगाव की ज़मीन तैयार करता है। जिसके अनुसार हिंदू, सिख, ईसाइ, जैन और बुद्ध शरणार्थियों जो अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे मुल्कों से विस्तापित हो कर भारत आए थे, उन्हें भारतीय नागरिकता के योग्य देखता है, परंतु इस बिल में उसी आधार पर मुस्लिमों के लिए भारतीय नागरिकता प्राप्त करना असंभव हो जाएगा।
यह बात भारत के धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा के बिल्कुल विपरीत है। यह तो सिर्फ बिल की बात हुई पर अभी तो NRC और नागरिक संशोधन बिल के मध्यान से सरकार को बहुत बड़े धार्मिक ध्रुवीकरण को क्रियान्वित करना है। जब यातना शिविरों का इतने बड़े पैमाने पर निर्माण हो रहा है, तो मानवता का भविष्य अंधेरे में लिपटा नज़र आता है ।