जब स्वास्थ्य और खासकर स्वास्थ्य से जुड़ी जागरूकता की बात आती है, तो मेडिकल लाइन के लोगों से उम्मीद की जाती है कि वे इस बारे में सबसे ज़्यादा जागरूक होंगे। वजह साफ है उनका इस जागरूकता से सीधे ताल्लुक होता है और इस दिशा में लोगों को जागरूक करने की ज़िम्मेदारी भी सबसे ज़्यादा उन्हीं लोगों की होती है।
मैं भी मेडिकल लाइन से ही जुड़ी हुई हूं और आरा के सदर अस्पताल में बतौर नर्स कार्यरत हूं। लेकिन मेडिकल लाइन की अपनी 4 सालों की नौकरी में मैंने एक ऐसे मुद्दे पर चर्चा को शून्य स्तर पर पाया है, जिसपर आज के वक्त में बात करना बेहद ज़रूरी है। मैं बात कर रही हूं पीरियड के समय सैनेटरी नैपकिन और कपड़े के अलावा इस्तेमाल होने वाले दूसरे विकल्पों के बारे में।
आज जिस तरह पर्यावरण एक गंभीर मुद्दा बना हुआ है उसके लिहाज़ से भी सैनेटरी नैपकिन और कपड़े के अलावा टैम्पून और मेंस्ट्रुअल कप जैसे विकल्पों का इस्तेमाल बेहद ज़रूरी है। ये विकल्प हमारी सुविधा के साथ ही पर्यावरण के लिहाज़ से भी बेहतर हैं। वजह आप जानते ही होंगे इस्तेमाल कपड़ों और सैनेटरी नैपकिन का सही डिस्पोज़ल ना होना पर्यावरण के लिए खतरनाक है। साथ ही सैनेटरी नैपकिन में प्लास्टिक की मात्रा भी होती है।
वर्जिनिटी टूटने का भ्रम
बिहार में हम आम जनता से क्या ही उम्मीद करें, अभी हमारे मेडिकल लाइन में ही इसपर बातचीत शुरू नहीं हुई है। हमारे समाज में मेंस्ट्रुअल कप को लेकर एक डर बना हुआ है, वजह कप को हमें अपनी बॉडी के अंदर डालना होता है। समाज को लगता है कि बाहरी सामान को अंदर डालने पर महिलाएं/लड़कियां अपनी वर्जिनिटी खो देंगी और हमारे समाज में लड़कियों की वर्जिनिटी तो उसकी जान से भी ज़रूरी है। जब बात कुवांरी लड़कियों की आती है तो डर और भी बढ़ जाता है, आखिर शादी कैसे होगी लड़की की?
यह धारणा मुख्य वजह है, जिसकी वजह से हमारी सोसाइटी में मेंस्ट्रुअल कप जैसी चीज़ें प्रैक्टिस में नहीं हैं। चलिए एक बार को आम महिलाओं से इस धारणा के ग्रसित होने को सही मान भी लें लेकिन हमारे मेडिकल लाइन में जो महिलाएं या लड़कियां इंसान के बॉडी स्ट्रक्चर की स्टडी करती हैं, वे भी इस वर्जिनिटी वाले कॉन्सेप्ट से ग्रसित दिखती हैं।
हमारे बीच भी इस चीज़ को लेकर कोई चर्चा नहीं होती है, ना ही मेरे साथ की कोई नर्स इसपर बात करना चाहती है। एक दो नर्स अगर मेंस्ट्रुअल कप इस्तेमाल भी कर रही हैं, तो खुलकर इसपर बात नहीं करती हैं।
हालांकि मैंने मेडिकल लाइन की अपनी नॉर्थ ईस्ट की दोस्तों को देखा है कि वे मेंस्ट्रुअल कप जैसे मुद्दे पर खुलकर बात भी करती हैं और उसका इस्तेमाल करती हैं। लेकिन कलकत्ता में नौकरी करने वाली मेरी नॉर्थ ईस्ट (दार्जिलिंग) की एक नर्स दोस्त ने बताया कि उसने कलकत्ता में भी इस मुद्दे पर आज तक कोई चर्चा नहीं देखी है। उसका भी कहना है कि अभी ना ही लोग मेंस्ट्रुअल कप को लेकर जागरूक है और ना ही मेडिकल फील्ड में इसपर चर्चा होती है।
मेंस्ट्रुअल कप के दाम को लेकर गलत धारणा
दूसरी बड़ी वजह है, मेंस्ट्रुअल कप के दाम को लेकर गलत धारणा। लोगों को लगता है कि मेंस्ट्रुअल कप काफी महंगा होता है मगर वह उसके सही कैल्कुलेशन को नहीं समझते। अगर आप सैनेटरी पैड का इस्तेमाल करती हैं, तो वह बस एक बार इस्तेमाल होता है। एक बार के इस्तेमाल के बाद आपको उसे फेंकना है मगर मेंस्ट्रुअल कप रियूज़ेबल होता है।
इस तरह अगर आप एक मेंस्ट्रुअल कप 200-500 तक के बीच भी खरीदें, तो वह साल भर भी चल जाएगा। लेकिन अगर आप सैनेटरी नैपकिन के सालभर के दाम के कैल्कुलेशन को देखें तो वह काफी महंगा पड़ेगा। मूल रूप से सबकी वजह जानकारी की कमी है, जागरूकता की कमी है।
जागरूकता की ज़िम्मेदारी किसकी?
अगर बात करें कि इसकी ज़िम्मेदारी किसकी है तो कुछ हद तक मैं अपने फील्ड के लोगों की भी इस दिशा में ज़िम्मेदारी मानती हूं, लेकिन मेरे इतने सालों की नौकरी में मैंने अपने अस्पताल में मेंस्ट्रुअल हेल्थ को लेकर भी कोई कैंप होते नहीं देखा है।
अगर हम अपने पेशेंट से भी मेंस्ट्रुअल हेल्थ पर बातचीत करते हैं तो अभी वह प्रक्रिया हाईजीन तक ही सीमित है। अभी महिलाओं को यह ही समझाना मुश्किल हो रहा है कि आप साफ सफाई रखें, अगर कपड़े का भी इस्तेमाल कर रही हैं तो उसे सही से धोएं, धूप में सुखाएं। मेंस्ट्रुअल कप पर चर्चा या उसके इस्तेमाल के लिए अभी बिहार जैसे जगहों में कई पीढ़ियां लग जाएंगी।
मैंने भी कभी इन विकल्पों का नहीं किया है इस्तेमाल
मैं अपनी पर्सनल च्वाइस की बात करूं तो मैंने खुद आज तक मेंस्ट्रुअल कप का इस्तेमाल नहीं किया है लेकिन मैं उसे एक बार ट्राई ज़रूर करना चाहूंगी। यहां भी एक बड़ी समस्या सामने आती है, हमारे शहर में मेंस्ट्रुअल कप की उपलब्धता की कमी है। मुझे तो अपने इलाके में अच्छी क्वालिटी के पैड तक लेने में मशक्कत करनी पड़ती है। सभी स्टोर में अच्छी क्वालिटी के महंगे पैड तक नहीं मिलते, तो मेंस्ट्रुअल कप की उपलब्धता की बात ही दूर की है।
एक बार को मेरे जैसे लोग ऑनलाइन उसका ऑर्डर कर भी लें लेकिन इन छोटे शहरों की महिलाओं का एक ऐसा वर्ग भी है, जिनके लिए ऑनलाइन शॉपिंग आसान नहीं होती है।
अस्पतालों में पेशेंट के लिए संभव नहीं है मेंस्ट्रुअल कप का कॉन्सेप्ट
अगर अस्पतालों में पेशेंट के लिए सैनेटरी पैड्स की जगह मेंस्ट्रुअल कप के इस्तेमाल की बात करें तो वहां यह प्रैक्टिकल नहीं दिखता है। पहली वजह है मेंस्ट्रुअल कप का दाम। कोई खुद के इस्तेमाल के लिए मेंस्ट्रुअल कप अगर खरीदे तो ऊपर बताए कैल्कुलेशन के हिसाब से वह बचत में पड़ेगा। मगर अस्पताल तो किसी पेशेंट को एक बार मेंस्ट्रुअल कप देने के बाद उसे वापस तो नहीं ले सकता है। तो सरकारी अस्पतालों के लिए तो इसका खर्चा उठाना मुश्किल है।
दूसरी बात, अकसर डिलीवरी या अबॉर्शन की स्थिति में ब्लीडिंग की स्थिति होती है। दोनों ही स्थिति की बात करें तो हारमोनल चेंजेज़ के कारण पेशेंट का इमोश्नल लेवल अलग रूप में होता है। अगर डिलीवरी वाली स्थिति होती है तो पेशेंट का पूरा ध्यान बच्चे पर लगा रहता है अगर अबॉर्शन वाली स्थिति होती है तो उसकी मानसिक स्थिति अलग तरह की होती है। दोनों ही स्थितियों में उसका खुद के शरीर पर ध्यान नहीं जाता है। ऐसे में हमने किसी महिला के शरीर में मेंस्ट्रुअल कप डाल दिया और वह उसे समय पर निकालना भूल गई, तो इन्फेक्शन का खतरा बन सकता है।