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“नफरत से उपजा राष्ट्रवाद हमें कट्टर बना रहा है”

राष्ट्रवाद

राष्ट्रवाद

राष्ट्रवाद का अर्थ सामान्यतः राष्ट्र के व्यक्तियों द्वारा राष्ट्र के साथ अपनी खुद की पहचान को जोड़ना होता हैं, राष्ट्र के प्रति लगाव एवं अपने राष्ट्र के हितों को एक राष्ट्रवादी हमेशा सर्वोपरी रखता/रखती हैं। राष्ट्रवाद अधिकतर मामलों में किसी दूसरे राज्य, उस राज्य के निवासियों का बहिष्कार या उनके तीक्ष्ण विरोध पर आधारित होता है।

यह कहा जा सकता है कि कई मामलों में राष्ट्रवाद किसी अन्य राज्य, उस राज्य के नागरिकों, नागरिक समाज एवं सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था से नफ़रत, घृणा और उन्हें कमतर आंकने या उस राज्य को छोटा साबित करने के सिद्धांतों इत्यादि पर आधारित होता है। राष्ट्रवाद का ये स्वरुप विकृत होता है। जो सामान्यतः मध्यकालीन और औपनिवेशिक काल के दौरान यूरोप के कई राज्यों में विद्यमान था।

फोटो साभार-Getty Images

राष्ट्रवाद बनाम जिन्गोइज़्म

प्रथमदृष्टया इसे राष्ट्रवाद कहा जाता है, लेकिन राष्ट्रवाद के इस  स्वरुप को जिन्गोइज़्म कहा जाना ज्यादा न्यायोचित होगा। जिन्गोइज़्म को सीधे-सादे तौर पर हम उस कट्टरता से समझ सकते हैं जो किसी भी इंसान, जाति, राष्ट्र के लिए नफरत से उपजती है। यहां हम अपने को श्रेष्ठ साबित करने के लिए दूसरों से घृणा करते हैं और ज़रूरत पड़ने पर हिंसक भी हो जाते हैं।

वहीं सच्चे अर्थों में राष्ट्रवाद अपने देश से प्रेम, नागरिकों के प्रति आपसी सम्मान, अपने देश की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था से लगाव, अन्य राज्यों एवं उसके नागरिकों के प्रति सम्मान इत्यादि भावनाओं पर आधारित होता है। इसे भारत के राष्ट्रवाद से जोड़ा जा सकता है।

उपरोक्त लिखित दोनों व्याख्याओं को एक संक्षिप्त उदहारण से समझा जा सकता है, हम अपने जीवन में अपने परिवार एवं पारिवारिक सदस्यों से कभी अलग नहीं होते, एक परिवार में प्यार, सम्मान, आत्मीयता की भावना होती है, हम सभी को अपने परिवार पर गर्व होता है, कुछ गलत हो तो गुस्सा आता है, कभी सफलता ना मिले या कोई ऐसा काम हो जाए (जैसे पड़ोसी से झगड़ा, बच्चे का किसी इम्तिहान में कम नम्बर आना या सफल ना होना इत्यादि), तो हमें ऐसी किसी भी या इससे इतर किसी भी परिस्थिति में शर्म भी आती है।

अतः गर्व और शर्म के मिश्रण से ही एक आदर्श परिवार बनता है, जहाँ गर्व आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है वहीं शर्म गलतियों से सीखने की शिक्षा।

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विविधता को सम्मान देना हमारे घर से है

एक दूसरी बात भी कही जा सकती है परिवार में माँ-पिता, भाई-बहन का रिश्ता सबसे मजबूत होता है। एक दूसरे के साथ कितना भी वैचारिक मतभेद हो, किसी बाहरी के हस्तक्षेप करने से सभी परिवार के सदस्य एक हो जातें हैं, आपसी मतभेद होना हर परिवार की एक खूबसूरती होती है, लेकिन इन मतभेदों के साथ प्यार और लगाव एक परिवार को अटूट बनाता है।

उदहारणत:,

मैं कभी-कभी कहता हूं कि मुझे अपनी मम्मी के हाथ का खाना बहुत पसंद है, या दीदी के हाथ से बनी पराठा भुजिया, खीर, मझली दीदी के हाथ की दाल, छोटी बहनों के हाथ के आलू के पराठे, छोले-राजमा, बीवी के सत्तू के पराठे वगैरह। इसका अर्थ ये बिलकुल नहीं है के मुझे किसी दूसरे पारिवारिक सदस्य के द्वारा बनाया गया कोई खाना पसंद नहीं है, या पापा के हाथ से बना पुआ, दाल-पूरी, भिन्डी की सब्जी पसंद नहीं है, ये बात हम सभी परिवारिक सदस्य अच्छे से जानते हैं।

इसलिए परिवार में एक दूसरे से नफरत की भावना विकसित नहीं हो पाती, बल्कि परिवार के सदस्य और ज्यादा एकजुट हो जाते हैं, इस प्रकार विविधता का सम्मान करना सबसे पहले हम सभी अपने परिवार से सीखते हैं।

इसी के साथ अपने इस वक्तव्य में मैं किसी दूसरे व्यक्ति से यह नहीं कह रहा कि सिर्फ मेरी मम्मी, मेरी बहनें, मेरी बीवी और मेरे पापा ही अच्छा खाना बनाते हैं, और ना ही मेरे कहने का आशय यह है कि तुम्हारी मम्मी, तुम्हारी बहनें, तुम्हारी बीवी और तुम्हारे पापा मेरे घर वालों से अच्छा खाना नहीं बना सकते।

यह एक अहिंसक वक्तव्य है, जो किसी अन्य व्यक्ति को पीड़ा नहीं पंहुचा रहा लेकिन यह अहिंसक वक्तव्य तब हिंसक हो जाता है, जब मैं किसी व्यक्ति से कहता हूं किन तुम्हारे पारिवारिक सदस्य कुछ नहीं जानते, जो कुछ है सिर्फ और सिर्फ मेरा ही परिवार है। मेरा ये वक्तव्य किसी की परिवार के प्रति उसकी भावनाओं को आहत करता है, आघात पहुंचाता है।

अपनी पहचान से प्यार एक अहिंसक विचार हो

एक दूसरी बात करते हैं, मैं बलिया का रहने वाला हूं। उत्तर प्रदेश निवासी, मुझे अपना शहर अपना राज्य बहुत पसंद है, उस शहर और राज्य के मन्दिर, भाषाएं, लोग, मार्केट, यातायात के साधन, रेलवे, विभिन्न संस्कृतियां इत्यादि पसंद हैं और गर्व करता हूं लेकिन मेरी इस पसंद में मैं ये बिल्कुल नहीं कह रहा कि दूसरे शहर या राज्य खराब हैं या मेरा शहर, राज्य, संस्कृति, भाषा इत्यादि दूसरे किसी भी राज्य से श्रेष्ठ है।

मुझे अपने शहर और राज्य से प्यार है लेकिन अगर मेरे शहर या राज्य में कुछ गलत होता है तो मुझे शर्म भी आती है, इसी गर्व और शर्म के मिश्रण से व्यक्ति अपने राज्य, अपने शहर को और बेहतर बना सकते हैं लेकिन अगर मैं ये कहना शुरू कर दूं कि जो है वो मेरा ही शहर है, जो है वो मेरा ही राज्य है और दूसरे शहरों-राज्यों की संस्कृति, भाषाएं, रहन-सहन, खान पान की आलोचना शुरू कर दूं तो ये वक्तव्य आपसी नफ़रत और घृणा को बढ़ाएगा और आपसी भाई-चारे को खत्म करेगा।

सबका सम्मान करना और अपनी हर तरह की (पारिवारिक, राज्यीय, भाषाई, सांस्कृतिक इत्यादि) पहचान से प्यार करना एक अहिंसक और किसी को आघात नहीं पहुंचाने वाला विचार है।

अतर्राष्ट्रीय पटल पर राष्ट्रवाद

अब इस विचार को अतर्राष्ट्रीय पटल पर ले जाते हैं, हम सभी को भारतीय होने पर गर्व है, हम सभी अपने देश से प्यार करते हैं, देश आगे बढ़ता है तो ख़ुशी होती है, देश के साथ कुछ गलत होता है तो दुःख होता है वगेरह, ये भाव बिल्कुल हानिरहित है, अहिंसक है।

लेकिन जिस दिन हम ये कहना शुरू करते हैं, कि जो है वो मेरा ही देश है, जितनी अच्छाईयां है वो हमारे ही देश में हैं, हमारी भाषा, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान इत्यादि बाकी सभी देशों से अच्छा और महान है, तब यह विचार उग्र हो जाता है, एकाकी हो जाता है और दूसरे राज्यों, वहां के निवासियों, उनके रहन-सहन, उनके खान पान, उनकी संस्कृति को सम्मान करने के बजाय एक तरह के नफरत के भाव से उन राज्यों को कमतर आंकना शुरू कर देता है।

किसी व्यक्ति, समुदाय या राष्ट्र-राज्य से नफ़रत के आधार पर जिस राष्ट्रवाद का उदय होता है उसे राष्ट्रवाद नहीं कहा जा सकता, इस तरह के विचार को संकीर्ण राष्ट्रवाद कहा जाता है। इस तरह का राष्ट्रवाद ‘जिन्गोइस्ट विचार’ (उग्र राष्ट्रवाद जो दूसरे देशों के साथ युद्धोन्मादी होता है और कई बार अपने खुद के देश की एक बड़ी जनसँख्या के विरुद्ध होता है) पर आधारित होता है।

जिन्गोइस्ट अपने देश को सर्वोच्च, अपनी संस्कृति को महान, भाषा को अन्य भाषाओं से सर्वश्रेष्ठ इत्यादि मानता है, लेकिन अन्य देश/देशों को, संस्कृतियों को, भाषाओं को निम्न और पिछड़ा हुआ मानता है।

यहां तक की राष्ट्रवाद की ये जिन्गोइस्ट अवधारणा अपने खुद के देश की एक बड़ी जनसंख्या के विरुद्ध होता है क्योंकि वो जनसंख्या इन जिन्गोइस्ट से धर्म, भाषा, संस्कृति, खान-पान के मामलों में अलग होती है। जिन्गोइस्ट विश्व के लगभग हर देश में मौजूद हैं।

भारत भी जिन्गोइस्ट विचारधारा से प्रभावित

भारत भी जिन्गोइस्ट विचार से प्रभावित लोगों से अछूता नहीं है। जिन्गोइस्ट विचार देश, संस्कृति, भाषा, खान पान, इत्यादि के आधार पर एक राष्ट्रीय गर्व को जन्म देता है, जिसमे ‘मैं, मेरा देश, मेरी संस्कृति, मेरी भाषा ही महान है’ का विचार सर्वोपरी बन जाता है और दूसरे देशों के लिए अपमानजनक वक्तव्यों, नफ़रत इत्यादि को बढ़ावा देता है।

यह भावना दूसरे देशों और उनकी संस्कृति एवं सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को अपने आगे नहीं रखती। जिन्गोइस्ट एक संकीर्ण राष्ट्रवाद है, जिसे भारत में पिछले पांच सालों से सत्ताधारी दल (भारतीय जनता पार्टी, जो संघ परिवार से जुड़ा एक राजनीतिक दल है, संघ परिवार में राष्ट्रीय स्वयंसेवक सेवक संघ, बजरंग दल, दुर्गा वाहिनी, राष्ट्रिय सेविका समिति इत्यादि आते हैं) द्वारा लगातार पाला पोसा जा रहा है।

जिसमें कहा जा रहा है के भारत माता की जय बोलो, भारत में यदि रहना है, वन्दे मातरम कहना है, राष्ट्रध्वज कितना लंबा होगा, ये देश सिर्फ एक ही तरह के धर्म और संस्कृति का है, हिंदुत्व की अवधारणा (कृपया इसी साईट पर पिछला लेख जो उग्र राष्ट्रवाद पर है उसे देखें), दूसरे धर्म खासतौर से मुस्लिम्स पर अभद्र टिप्पणी, अल्पसंख्यकों की संस्कृति पर हमला, भीड़ द्वारा किसी नागरिक की हत्या इत्यादि को सामान्य बनाने की चेष्टा की जा रही है और सत्ताधारी दल को कुछ सफलता भी मिली।

इसका नतीजा; जिन्गोइस्ट आक्रामक है, गर्व से भरा हुआ है, खोखला है, संकीर्ण है, लेकिन एक विजेता और परम सत्य की तरह से खड़ा है।

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दूसरे देश से आयातित राष्ट्रवाद

यहां यह बताना आवश्यक है कि भारतीय राज्य की यह जिन्गोइस्ट अवधारणा, जिसे भारतीय राष्ट्रवाद बता कर फैलाया जा रहा है, उसे भारतीय राष्ट्रवाद कहा ही नहीं जा सकता। भारतीय राष्ट्रवाद की यह अवधारणा पूरी तरह से जर्मनी से आयातित है, कम शब्दों में उधार का राष्ट्रवाद।

हिटलर के दौर में जो ‘जर्मन राष्ट्रवाद’ फैला था, जो नफरत के सिद्धांत पर आधारित था, जो देश की एक बड़ी जनसंख्या (यहूदी) के खिलाफ था, जो अन्य देशों से ‘जर्मन रेस’ को श्रेष्ठ मानता था, भारत में उस दौर के जर्मन राष्ट्रवाद की तर्ज पर आज का राष्ट्रवाद फैलाया जा रहा है।वर्तमान सत्ताधारी दल एवं इसके विभिन्न संगठन इसी उधार के आयातित राष्ट्रवाद को भारत पर थोप रहे हैं।

नहीं, यह बात मेरे दिमाग की या मेरे मन की उपज नहीं है, आरएसएस या बीजेपी वगैरह जिनके सिद्धांतों पर चलती है उन्होंने खुद अपनी कई पुस्तकों में या लेखों में इस विचार का ज़िक्र किया है, सावरकर की हिंदुत्व: हू इज़ अ हिंदू (Hindutva: Who is a Hindu), गोलवलकर की बंच ऑफ थॉट्स (Bunch of Thoughts) और वी ऑर अवर नेशनहूड डिफाइंन्ड (We or Our Nationhood Defined) इत्यादि में वही विचार लिखे हैं जिन्हें हिटलर का नाज़ी जर्मनी एक स्वीकृत राष्ट्रवाद की तरह से अपनाता था।

गोलवलकर और सावरकर कहते भी हैं कि हम भारतीयों को जर्मनी से बहुत कुछ सीखना चाहिए। जैसे, राष्ट्रीयता क्या होती है, राष्ट्रीय धर्म क्या होना चाहिए, राष्ट्रीय संस्कृति किसकी होनी चाहिए और क्यों बाकी सभी अन्य को इस राष्ट्रीय धर्म-संस्कृति एवं राष्ट्रीयता में अपने को समाहित करना चाहिए, वरना उन्हें द्वितीयक नागरिक की तरह रखा जाना चाहिए।

कुल मिलाकर जो राष्ट्रवाद 80 के दशक से लगातार परोसा जा रहा है और पिछले पांच सालों में जिसे गति मिली है, वो राष्ट्रवाद यूरोपियन है, जो यूरोप के एक राज्य जर्मनी के नाज़ी राष्ट्रवाद से प्रभावित है, कम शब्दों में ये राष्ट्रवाद उस भारतीय जमीन को नहीं देख पा रहा, जिस पर वो खड़ा है। बड़ा अजीब लगता है यह सुनना कि हां कोई आरएसएस या बीजेपी के राष्ट्रवाद से प्रभावित है, उसे असली भारतीय राष्ट्रवाद मान रहा है, और यह राष्ट्रवाद किसी दूसरे देश से आयातित उधार के राष्ट्रवाद पर टिका है।

 

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