लेखक अनुराग पांडेय दिल्ली यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। कश्मीर के इतिहास और वर्तमान स्थिति पर उनके लेखों की शृंखला की यह पांचवीं कड़ी है।
लेख के पिछले चार भागों में प्राचीन कश्मीर, मध्यकालीन कश्मीर और औपनिवेशिक कश्मीर पर चर्चा की गई। साथ में अनुच्छेद 370 के इतिहास पर भी एक नज़र डाली गई। पांचवां भाग अनुच्छेद 370 से जुड़े मिथकों पर चर्चा करता है तथा कश्मीर को लेकर कई भ्रांतियों से पर्दा उठाने को लेकर प्रयासरत है।
पिछले भाग में आपने पढ़ा कि आर्टिकल 370 सिर्फ नाम के लिए ही रह गया था और जिन प्रावधानों के साथ यह लागू किया गया था, 1970 का दशक आते-आते लगभग सभी प्रावधान अपना महत्व खो चुके थे लेकिन समय के साथ-साथ आर्टिकल 370 को लेकर लोगों के मन में तथ्यों से ज़्यादा मिथक घर करते रहे और इस तरह कई सारे मिथकों ने मिलकर हमारे सवाल पूछने की क्षमता को कम कर दिया।
मैंने पहले भी कहा था कि संसद में आर्टिकल 370 को हटाये जाने के जितने भी कारण गिनाए गए या बताए गए हैं, वे सब झूठे हैं, तथ्यविहीन हैं। चिंतित होना स्वाभाविक है, झूठ संसद तक पहुंच चुका है।
धारा 370 और कश्मीर: मिथक
सिर्फ धारा 370 के ज़रिए कश्मीर को विशिष्ट पहचान नहीं दी गई, बल्कि देश के कई राज्यों मे ऐसे प्रावधान हैं। ऊपर धारा 370 के इतिहास और तथ्य बताए गए, लेख का यह हिस्सा भारत में फैलाये गए कई मिथकों से पर्दा हटाता है।
पहला मिथक: धारा 370 कश्मीर को एक विशिष्ट दर्ज़ा देता है और कोई भी भारतीय कानून वहां लागू नहीं होते क्योंकि कश्मीर का अपना संविधान है।
सत्य यह है कि भारत के लगभग सभी कानून कश्मीर पर लागू किए जा चुके हैं, केंद्र लिस्ट के 97 में से 94 मामले कश्मीर पर लागू हो चुके हैं और समवर्ती सूची के 47 में से 26 मामले कश्मीर पर लागू किए जा चुके हैं।
दूसरा मिथक: विशिष्ट राज्य का दर्जा केवल कश्मीर को मिला है, यह मिथक है। भारत में कई राज्यों को विशिष्ट राज्य का दर्ज़ा दिया गया है। भारत में गवर्नर को नाममात्र का प्रधान माना जाता है, लेकिन धारा 371 में, जो 1956 के संवेधानिक संशोधन से अस्तित्व में आई, गवर्नर को कुछ विशिष्ट अधिकार देती है, जिसमें गुजरात के गवर्नर के पास सौराष्ट्र और कुच्छ में तथा महाराष्ट्र के गवर्नर के पास विदर्भ और मराठवाड़ा तथा बाकी कम विकसित क्षेत्रों में विकास बोर्ड बनाने का अधिकार है, ताकि इन क्षेत्रों का विकास किया जा सके।
श्री नरेंद्र मोदी कई साल गुजरात के मुख्यमंत्री रहे, उन्होने इस प्रावधान को खत्म क्यों नहीं किया? और ना ही बी जे पी शासित महाराष्ट्र ने ही इस प्रावधान को खत्म करने का कोई प्रयास किया। यह विकास भी देशवासियों द्वारा दिये जा रहे टैक्स से ही होता है, इसे अतिरिक्त भार समझ कर समाप्त करने के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाया गया? और अगर ऐसा कोई कदम उठाया जाता है तो इन दो बी जे पी शासित क्षेत्र के लोग चुप रहेंगे?
यह प्रावधान सीधे मुख्यमंत्री और कैबिनेट की शक्ति को भी इन क्षेत्रों मे सीमित करता है, इस तरह का प्रावधान भारत के किसी भी अन्य राज्य में नहीं है।
तीसरा मिथक: ज़मीन पर स्वामित्व एवं संपत्ति सुरक्षा, कश्मीर अकेला राज्य नहीं है जिसे ये अधिकार मिला है। सन 1986 में 55 वें संवेधानिक संशोधन द्वारा धारा 371 में खंड 3 जोड़ा गया जिसमें ये प्रावधान किया गया के भारतीय संसद द्वारा बनाए गए ज़मीन पर स्वामित्व अथवा हस्तांतरण का कोई भी कानून मिज़ोरम राज्य पर लागू नहीं होगा अर्थात बाहरी कोई भी व्यक्ति मिज़ोरम में ना ज़मीन खरीद सकता/सकती है ना ही मिज़ोरम का कोई व्यक्ति अपनी किसी भी अचल संपत्ति का हस्तांतरण कर सकता/सकती है।
बीजेपी इस संशोधन की भागीदार थी और इसका समर्थन किया था। फिर यही बी जे पी जम्मू कश्मीर के ज़मीन पर स्वामित्व और बाहरी द्वारा खरीदने पर रोक की विरोधी क्यों है? क्या मिजोरम से भी ये कानून हटाया जाएगा? अगर हटाया गया तो क्या जनता इसको राष्ट्रहित में उठाया गया कदम मानकर स्वीकार कर लेगी?
चौथा मिथक: धारा 370 बाहरी व्यक्ति के ज़मीन खरीदने पर रोक लगाती है। जी यह एक मिथक है, धारा 370 में ज़मीन, उस पर स्वामित्व, या हस्तांतरण पर कुछ नहीं है, ज़मीन पर स्वामित्व डोगरा राजा गुलाब सिंह और अंग्रेजों के मध्य हुई अमृतसर की संधि से लागू है। धारा 370 ज़मीन या उस पर मालिकाना हक़ की कोई बात नहीं करती है।
यह प्रावधान सन 1954 में धारा 35a के साथ आया। राजा हरी सिंह, उनके उत्तराधिकारी करण सिंह, नेशनल कॉन्फ्रेंस इत्यादि इस मसले का समाधान चाहते थे इसलिए 35a को संविधान में जोड़ा गया। जब मिज़ोरम का कानून सही है, जो बी जे पी द्वारा समर्थित था तो कश्मीर का 35a गलत किस आधार पर हुआ?
इसके अतिरिक्त धारा 371A नागालेंड; 371B असम के ट्राइबल इलाके; 371C मणिपुर; 371D, आंध्र प्रदेश; 371F, सिक्किम; 371H; अरुणाचल प्रदेश; 371I गोवा; 371J कर्नाटक को विशिष्ट अधिकार देते हैं। धारा 371 में कुल 12 राज्य हैं जिन्हें या तो राज्य के किसी क्षेत्र का विकास, ज़मीन पर स्वामित्व का अधिकार, बाहरी व्यक्ति के ज़मीन जायदाद खरीदने पर रोक या किसी अन्य विशिष्ट प्रावधान से संबन्धित है।
कुछ और भी विशिष्ट प्रावधान किए गए हैं, आपको अपने ही देश के कुछ राज्यों में घूमने के लिए या जाने के लिए लिखित रूप में आज्ञा लेनी पड़ती है, जिनमे हिमाचल प्रदेश, मिज़ोरम, नागालेंड एवं अंडमान निकोबार आइलेंड प्रमुख हैं।
अंडमान और निकोबार आइलेंड के वासियों ने तो अभी हाल ही में एक बड़ा आंदोलन चलाया था जिसमें भारत के दूसरे हिस्से से आने वाले लोगों पर नियम सख्त करने की मांग प्रमुख थी। कश्मीर के सिर्फ लेह क्षेत्र को छोड़कर किसी भी राज्य का वासी बिना आज्ञा लिए जम्मू-कश्मीर घूमने जा सकता/सकती है।
कश्मीर: कुछ अन्य मिथक
कश्मीरी लड़कियों के विवाह और संपत्ति का अधिकार
आर्टिकल 370 के हटने के बाद यह बात फैली कि कश्मीर की लड़की अगर भारत के किसी अन्य राज्य में शादी कर ले,
- तो उसका ज़मीन पर मालिकाना हक़ खत्म हो जाता है।
- उसकी नागरिकता खत्म हो जाती है और
- अगर वह पाकिस्तानी लड़के से शादी कर ले, तो उस पाकिस्तानी लड़के को कश्मीर की नागरिकता भी मिल जाती है तथा
- स्वतः जमीन पर मालिकाना हक़ भी।
यह भ्रांति आजकल मीडिया, सोश्ल मीडिया पर खूब छाई हुई है, जो पूरी तरह से झूठ है और निराधार है। सच यह है कि कश्मीरी लड़की अगर भारत के किसी अन्य राज्य में शादी करती है, तो ज़मीन पर उसका मालिकाना हक समाप्त नहीं होगा और ना ही नागरिकता।
सन 2002 में जम्मू-कश्मीर सरकार बनाम शीला साहनी मामले में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने एक निर्णय दिया था जिसमें न्यायालय ने यह साफ किया कि कश्मीर की लड़की अगर किसी बाहरी व्यक्ति से शादी करती है तो ना तो ज़मीन से उसे बेदखल किया जा सकता है और ना ही उस लड़की की कश्मीरी नागरिकता समाप्त होगी लेकिन उस लड़की के बच्चों को इन दोनों से वंचित किया जा सकता है (मतलब कि ये बाध्यकारी नहीं है)।
दूसरा कश्मीर की लड़की अगर किसी भी बाहरी लड़के से शादी कर लेती है तो आर्टिकल 35A (जिसे अब खत्म कर दिया गया है) के अनुसार लड़के को ना तो कश्मीर की नागरिकता मिलेगी ना ही ज़मीन पर स्वामित्व। वह लड़का चाहे भारत के किसी दूसरे राज्य का हो या पाकिस्तानी या अमेरिकन। उम्मीद है इस भ्रांति से पर्दा हट गया होगा।
कश्मीर पिछड़ा राज्य नहीं
कश्मीर भारत का सबसे पिछड़ा राज्य है। यह भी एक भ्रामक प्रचार है। कश्मीर कई मामलों मे देश के कई दूसरे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से बहुत आगे हैं। जैसे,
- भारत के कुल 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में कश्मीर का 15वां नंबर है।
- पोषण में 24वां।
- शिशु मृत्यु दर में 21वां।
- स्कूल जाने में 15वां।
- खाना पकाने की गैस में 21वां।
- स्वच्छता में 19वां।
- पीने की पानी में 34वां।
- बिजली के मामले में 25वां।
- घर स्वामित्व में 23वां और संपत्ति में 18वां।
कश्मीर पर मुस्लिम बहुल होने के कारण जनसंख्या में तीव्र बढ़ोतरी का बात कही जाती है, जबकि वहां प्रजनन दर केरल से भी कम है। सिर्फ 1.6 प्रतिशत। प्रति व्यक्ति राज्य का सकल घरेलू उत्पाद भी देश के कई राज्यों से काफी अच्छा है, कश्मीर देश में 11वें नंबर पर है।
किसी भी नेता ने आर्टिकल 370 की आलोचना नहीं की थी
सरदार पटेल ने, अंबेडकर ने और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने आर्टिकल 370 का विरोध किया था। नहीं, तीनों मे से किसी भी नेता ने ना कश्मीर के भारत में विलय का विरोध किया था और ना ही आर्टिकल 370 की आलोचना की थी।
हालांकि शुरू में पटेल कश्मीर का पाकिस्तान में विलय का समर्थन कर रहे थे लेकिन कुछ समय के बाद नेहरू के साथ मिलकर उन्होंने कश्मीर का भारत में विलय करवाया और आर्टिकल 370 का समर्थन भी किया।
जूनागढ़ और हैदराबाद रियासतों को भी नेहरू और पटेल ने मिलकर भारत मे शामिल किया। आर्टिकल 370 पर पटेल के दिल्ली निवास में 15 और 16 मई 1949 को बैठक हुई थी, इस बैठक का अनुमोदन नेहरू ने किया था और शेख अब्दुल्लाह भी इसमें शामिल थे। बैठक के बाद श्री एन जी अयंगर ने आर्टिकल 370 की रूपरेखा तैयार करी जिसे उन्होने नेहरू के निर्देशन पर सबसे पहले पटेल के पास भेजा था।
उन्होंने पटेल को अवगत भी किया के नेहरू इस ड्राफ्ट पर तभी आगे बढ़ेंगे जब पटेल को इस ड्राफ्ट के किसी भी भाग से कोई आपत्ति ना हो, पटेल ने आर्टिकल 370 के इस ड्राफ्ट का समर्थन किया तब नेहरू ने इसे सदन मे वाद-विवाद के लिए रखा। कुछ समय बाद नेहरू, पटेल और शेख अब्दुल्लाह की आपसी सहमति से आर्टिकल 370 कश्मीर में लागू की गई।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी आर्टिकल 370 के प्रबल समर्थक थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जो जन संघ (आज की भारतीय जनता पार्टी) के अध्यक्ष थे, ने नेहरू और शेख अब्दुल्लाह को 9 जनवरी 1953 में पत्र लिखा था जो प्रजा परिषद ने प्रकाशित भी किया था, (प्रजा परिषद एक राजनीतिक दल था जिसे आर एस एस से जुड़े बलराज मंढोक ने जम्मू में बनाया था)। इस पत्र में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कश्मीर का भारत मे विलय का स्वागत किया था और आर्टिकल 370 पर भी अपना समर्थन दिया था।
प्रजा परिषद का आंदोलन भी खत्म करवाया
सन 1963 में प्रजा परिषद का भारतीय जन संघ मे विलय हुआ। प्रजा परिषद जम्मू कश्मीर के भारत मे विलय का तो समर्थन कर रही थी लेकिन आर्टिकल 370 का विरोध। प्रजा परिषद सिर्फ कश्मीर को विशिष्ट राज्य का दर्जा दिलवाना चाहती थी लेकिन जम्मू और लेह लद्दाख को आर्टिकल 370 से अलग रखने की पक्षधर थी।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी इसी तरह के विलय समर्थन करते थे लेकिन नेहरू और शेख अब्दुल्लाह के जवाबी पत्र ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपना मत बदलने के लिए प्रेरित किया। खासतौर से शेख अब्दुल्लाह ने जो पत्र मुखर्जी को लिखा था उससे वे ज़्यादा आश्वस्त हुये और आर्टिकल 370 पर प्रजा परिषद का आंदोलन भी खत्म करवाया।
हालांकि प्रजा परिषद को नाम मात्र के लोगों का समर्थन हासिल था, जम्मू, लद्दाख की बड़ी जनसंख्या आर्टिकल 370 के समर्थन में थी लेकिन नेहरू की समाहित करने की और आलोचना का स्वागत करने की नीति की वजह से मुखर्जी और प्रजा परिषद के विरोध को सुना गया और मुखर्जी और प्रजा परिषद के संशय को दूर किया गया।
नतीजन मुखर्जी और प्रजा परिषद ने आर्टिकल 370 पर अपना समर्थन दिया लेकिन तब जब बलराज मंढोक ने जन संघ का दमन थामा और प्रजा परिषद का जन संघ मे विलय किया। तब आरएसएस ने नागपुर से दोबारा आर्टिकल 370 का विरोध शुरू किया, जो आजतक जारी है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी आर्टिकल 370 की महत्ता समझ चुके थे और अपने ही दल के लोगों को इसकी उपयोगिता बता रहे थे। तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने आर्टिकल 370 का कभी विरोध नहीं किया जैसा के प्रचार किया जा रहा है।
370 पर अंबेडकर का प्रचारित बयान भी गलत
अंबेडकर के संविधान सभा में दिये गए किसी भी भाषण में, या उनके द्वारा कश्मीर मुद्दे पर लिखे हुये किसी भी पत्र या लेख में आर्टिकल 370 का विरोध कहीं नजर नहीं आता। कुछ समय बाद जब अंबेडकर की मृत्यु हो गई थी, तब एक वक्तव्य उनके नाम पे प्रचारित होना शुरू हुआ, ये वक्तव्य था,
आप (कश्मीर) चाहते हैं के भारत आपकी सीमाओं की सुरक्षा करे, सड़कें बनाए, खाने पीने की वस्तुओं की आपूर्ति करें लेकिन भारत की सरकार बहुत सीमित शक्ति रखती है। मैं कानून मंत्री होने के नाते ऐसे किसी भी विचार का विरोध करता हूं, भारत सिर्फ रक्षा, विदेश और संचार के मामलों मे ही हस्तक्षेप करेगा।
यहां मजे़दार बात यह है के अंबेडकर ने ऐसा कुछ कभी कहा ही नहीं, आर एस एस से प्रभावित एक पत्रिका तरुण भारत में एक लेख छपा था जो बलराज मंढोक के एक साक्षात्कार पर आधारित था, बलराज मंढोक ने तरुण भारत पत्रिका को दिये इसी साक्षात्कार में अंबेडकर के नाम लेकर ऊपर लिखी बाते कहीं।
मतलब बलराज मंढोक ने साक्षात्कार में वो बातें कही जो अंबेडकर द्वारा कभी कही ही नहीं गई और मंढोक के इस वक्तव्य को इतना फैलाया गया के आज ये सत्य बन के खड़ा है। झूठ बोलने की परंपरा आज की नहीं है, 70 सालों से अनवरत चली आ रही है।
कश्मीर समस्या नेहरू की देन है
कश्मीर समस्या नेहरू की देन है। यह आरोप आरएसएस, जन संघ और बी जे पी नेहरू पर शुरू से लगाते आए हैं। कश्मीर अगर आज भारत का अंग है तो इसमे नेहरू का योगदान सबसे ज़्यादा है।
हां नेहरू की आलोचना की जा सकती है, यह कहा जा सकता है कि नेहरू ने लॉर्ड माउण्टबेटन की कश्मीर की मदद करने की बात सशर्त क्यों मानी? वे बिना कश्मीर को भारत मे मिलाए कश्मीर को सैनिक मदद दे सकते थे क्योंकि कश्मीर माउण्टबेटन प्लान के तहत अपने आप को स्वतंत्र देश बनाना चाहता था और इस आशय की कश्मीर के राजा घोषणा भी कर चुके थे।
उनकी आलोचना की जा सकती है कि बिना खुद खोजबीन करवाए करण सिंह और बक्शी गुलाम मुहम्मद के आरोपों को सही क्यों माने, जो दस्तावेज़ उन्हे दिखाये गए उसकी प्रामाणिकता नेहरू ने खुद क्यों नहीं चेक करी और शेख अब्दुल्लाह की गिरफ्तारी के आदेश पर क्यों हस्ताक्षर किए, फिर अचानक अब्दुल्लाह पर लगे सभी आरोपों को क्यों हटा लिया और उन्हे 11 साल बाद जेल से आज़ादी मिली।
कहा जाता है कि नेहरू कश्मीर का मुद्दा लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ गए और आज जो कश्मीर की समस्या है वो नेहरू की ही देन है। वैसे एक सोचने वाली बात है, या तो नेहरू राजा हरी सिंह को मदद करने से ना बोल देते या नेहरू कश्मीर को आजाद मुल्क मानकर बिना शर्त मदद दिये होते तो आज ये आरोप ही ना होते और नेहरू कभी भी भारतीय सेना को वापस बुला सकते थे। अगर मगर के इस दौर में इस मुद्दे को भी अगर मगर से दूर क्यों रखा जाए?
कश्मीर का मुद्दा नेहरु अकेले संयुक्त राष्ट्र संघ लेकर नहीं लेकर नहीं गये थे, उस समय की पूरी केबिनेट इस मसौदे का हिस्सा थी जिसमें भीमराव अम्बेडकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और बलदेव सिंह शामिल थे। इसके अतिरिक्त ये माना जाता है के लॉर्ड माउण्टबेटन, फ़्रांस, अमेरिका, रूस इत्यादि ने भारत के पक्ष का समर्थन किया था और नेहरू को आश्वस्त किया था के संयुक्त राष्ट्र संघ में वो भारत के साथ खड़े रहेंगे, भारत को उस समय तुरंत आज़ादी मिली थी, देश में सांप्रदायिक दंगे फैले हुए थे, जिनको रोकने का जिम्मा नेहरू पर ही था, और पाकिस्तान से लड़ाई।
नेहरू को धोखा मिला
भारत आज़ादी के समय बहुत गरीब था, देश के पास इतना भी अन्न नहीं था के समस्त देशवासियों की खाद्यान मांग को पूरा किया जा सके। ऐसी परिस्थिति मे युद्ध भारत पर एक बड़ा आर्थिक बोझ लेकर आया, जब भारत को लगता के पाकिस्तानी सेना या काबाइलियों को भागा दिया गया है वो वापस आ जाते थे, युद्ध में पाकिस्तान बार बार हारकर भी बार-बार हमले कर रहा था।
घरेलू समस्याओं और युद्ध की वजह से माउण्टबेटन की सलाह मानते हुए नेहरू संयुक्त राष्ट्र में गए, वहां नेहरू को धोखा मिला। उन्हें वादा किया गया था कि पाकिस्तानी सेना या काबाइलियों को कश्मीर से हटाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ कोई कदम उठाएगा। इसमें भारत का साथ अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और रूस देंगे और आर्थिक/सैन्य मदद करेंगे लेकिन इसके विपरीत संयुक्त राष्ट्र संघ ने कश्मीर में जनमत संग्रह का फरमान दे दिया। ताकि कश्मीरी जनता के मूड का पता चल सके कि वो वास्तविक रूप में चाहती क्या है।
नेहरू ने और शेख अब्दुल्लाह ने स्वीकार भी कर लिया लेकिन पाकिस्तान टालमटोल करता रहा। ये जनमत संग्रह आज तक नहीं हो पाया है। और संयुक्त राष्ट्र के यथास्थिति वाले नियम के तहत पाकिस्तान कश्मीर के हिस्से पर काबिज़ हो गया जिसे आज पाक अधिकृत कश्मीर के नाम से जाना जाता है।
आर्टिकल 370 को हटाया नहीं गया है
आर्टिकल 370 को पूरी तरह से हटा दिया गया है। नहीं आर्टिकल 370 को हटाया नहीं गया है, ना ही हटाया जा सकता है। अगर आर्टिकल 370 को हटाया जाएगा तो इसके बदले एक नए आर्टिकल को संविधान मे जोड़ना होगा ताकि कश्मीर भारत का अंग बना रहे।
आर्टिकल 370 को हटाये जाने का मतलब होगा के भारत कश्मीर को एक आज़ाद मुल्क मानता रहा है और इस आर्टिकल को हटाकर कश्मीर को आजाद मुल्क घोषित कर दिया गया है। तो आर्टिकल 370 हटा नहीं है जैसा कि प्रचार किया जा रहा है, बल्कि इसी आर्टिकल के खंड तीन का प्रयोग करके जम्मू-कश्मीर-लद्दाख को अलग कर दिया गया है।
लद्दाख बिना विधानसभा के केन्द्रशासित क्षेत्र बनाया गया है, और जम्मू-कश्मीर को विधानसभा के साथ केन्द्र्शासित प्रदेश घोषित किया गया है। भविष्य में अगर ये नियम ऐसा ही रहा तो ये विधानसभा लगभग उसी प्रजा सभा की तरह होगी जो राजा हरी सिंह ने बनाई थी और जो दंतविहीन थी। दिल्ली की विधानसभा या किसी दूसरे केन्द्रशासित क्षेत्र की विधानसभा से भी कम शक्तिशाली।
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यह लेख पूर्व में 14 अगस्त 2019 को डॉ अनुराग पांडेय द्वारा “इंडियन डेमोक्रेसी” में प्रकाशित हुआ है।