महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से 6 बहुजन स्टूडेंट्स के निष्कासन की घटना पर देशभर के कैंपसेज़ की चुप्पी बहुत निराशाजनक है।
इन स्टूडेंट्स का “गुनाह” सिर्फ इतना सा है कि इन्होंने देश के मौजूदा हालात मसलन दलितों और अल्पसंख्यकों पर प्रतिदिन होने वाली हिंसा, कश्मीर में कम्युिनिकेशन लॉकडाउन और एनआरसी के माध्यम से लाखों लोगों को अवैध नागरिक करार देने की बातों के चलते उत्पन्न हुई सिटिज़नशिप क्राइसिस पर चिंता जताते हुए प्रधानमंत्री को एक चिठ्ठी लिखी।
बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस पर चर्चा करने के लिए सभा का भी आयोजन किया गया था। सोचने वाली बात यह है कि हम कब तक इस तरह की घटनाओं को अपवाद मानकर नज़रअंदाज़ करते रहेंगे?
अगर हम क्राइसिस के समय में भी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इस तरह की घटनाएं एक बड़ी साज़िश का हिस्सा हैं, तो हमारी समझ में खोट है।
लोकतांत्रिक और न्यायिक मूल्यों के प्रति हमारी निष्ठा
यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स को अपने सामान्य संवैधानिक अधिकारों को एक्सरसाइज़ करने पर निष्कासित किया जाना लोकतांत्रिक और न्यायिक मूल्यों के प्रति हमारी निष्ठा और डेडिकेशन को कमज़ोर किए जाने की साज़िश का हिस्सा है। इसके इंप्लिकेशन्स पर विचार करने की ज़रूरत है।
नागरिक होने के नाते हम सभी को शांतिपूर्ण ढंग से अपनी बात कहने का पूरा अधिकार है। प्रो. राजीव भार्गव, कुछ ही दिनों पहले ‘द हिंदू’ में छपे अपने लेख में लिखते हैं,
लोकतंत्र में सरकार को बहुत अच्छा श्रोता होना चाहिए और जनता को पूरा अधिकार होता है कि वह सरकार को अपनी बात, अपनी शिकायतें, अपनी असहमतियां दर्ज़ करवाए। जनता का बोलना और सरकार का ध्यान से सुनना एक स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है।
नेहरू पर गहन शोध करने वाले स्कॉलर सुनील खिलनानी अपने लेख “नेहरूज़ फेथ” में लिखते हैं,
देश के पहले प्रधानमंत्री चारों ओर होने वाली तारीफों से असहज हो गए थे। यह सोचकर कि देश के प्रधानमंत्री पर लोगों की अथाह श्रद्धा से यह क्रिटिसिज़्म का स्पेस खत्म हो जाता है और क्रूर शासन की भावना पनपने लगती है।
नेहरू ने स्वयं दूसरे नाम से देश के प्रधानमंत्री को क्रिटिसाइज़ करते हुए पत्र लिखे लेकिन आज इसी देश में सरकार और प्रधानमंत्री से सवाल करने और अपनी चिंताएं जताने के लिए पत्र लिखने पर राजद्रोह के मुकदमे तक कर दिए जाते हैं।
ब्राह्मणवादी ताकतों के इरादे
निष्कासित किए गए छात्र बहुजन तबके से आते हैं जिनके लिए विश्वविद्यालय के दरवाज़े अभी तक पूरी तरह से खुले भी नहीं थे कि इन्हें ज़बरन बाहर का रास्ता दिखाया जाने लगा है।
आधुनिक एकलव्य अंगूठे की कीमत जानते हैं इसलिए द्रोणाचार्य अब अगूंठा मांगते नहीं हैं, बल्कि जबरन काट देते हैं। रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या, एस.सी -एस.टी. एट्रोसिटीज़ एक्ट को कमज़ोर करने की कोशिश, ई.डबल्यू. एस. को दस प्रतिशत आरक्षण, दौ सो प्वाइंट रोस्टर को खत्म करने का असफल प्रयास और फॉरेस्ट राइट्स एक्ट से छेड़छाड़ एक जैसी घटनाओं से हमारी साइकी में अधिकारों का हनन, सामाजिक न्याय की अवधारणा को खोखला करना और तानाशाही रवैये को नॉर्मलाइज़ किया जा रहा है।
ऐसे में हमारा चुप रहना, रिएक्ट ना करना, इन घटनाओं को अपवाद मानकर नज़रअंदाज़ करना दक्षिणपंथी ब्राह्मणवादी ताकतों के इरादों की कामयाबी को दर्शाता है।
मार्टिन लूथर किंग ने कहा है कि “Injustice Anywhere Is A Threat To Justice Everywhere”. हम कब तक दूसरों के छप्परों को जलते देखकर भी आश्वस्त रहेंगे, अंततः आग को फैलकर हमारे घर भी आना ही है, बशर्ते आग को बुझाया ना गया हो। एक महिला होने की मार्जिन्लाइज्ड आइडेंटीटी, एक स्टूडेंट, एक नागरिक और एक इंसान होने के चलते किसी भी दूसरे इंसान के साथ हुआ अन्याय मुझे बेचैन कर देता है।
मुझे मेरी लिबर्टिज़ पर लटकती हुई तलवार का आभास है। मैं बहुत हद तक अपने आप को अपने चारों ओर चल रही इन लड़ाईयों का हिस्सा मानती हूं। ज़रूरी है कि हम सभी अपने आप को एक लार्जर पॉलिटिकल कम्युनिटी के रूप में इमेजिन कर पाएं और अपने हकों की रक्षा के लिए आवाज़ उठाएं।
स्टूडेंट्स के निष्कासन का मुद्दा सिर्फ उनका निजी मुद्दा नहीं है, यह छात्र आंदोलन, बहुजन आंदोलन और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खड़े होने वाले हर मूवमेंट की ज़िम्मेदारी है, जिसे अगर नहीं निभाया गया तो पूरी बस्तियां राख हो जाएंगी।