विश्वभर में 24-30 सितम्बर क्लाइमेट वीक के रूप में मनाया जाता है। जब 120 देशों के लोग पर्यावरण के संरक्षण के लिए सामूहिक प्रदर्शन करने को मजबूर हैं, इसका मतलब है कि स्थिति वाकई में गंभीर हो गई है।
इस स्थिति को बदलने के लिए हमें ना सिर्फ अपनी दिनचर्या की आदतों को बल्कि समाज के ढांचे को भी बदलना होगा। ज़्यादातर देशों की अर्थव्यवस्था की नीतियां इन बदलावों को मुश्किल कर देती हैं। संयुक्त राष्ट्र (U.N.) ने 2008 में ग्रीन इकॉनमी इनिशिएटिव जारी किया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य नीति निर्माताओं और शोधकर्ताओं को ऐसे अर्थव्यवस्था बनाने के लिए प्रेरित करना है, जो वातावरण और तरक्की को साथ लेकर चलें। इसे सतत विकास और गरीबी के नाश के संदर्भ में देखा जा रहा है। ग्रीन इकॉनमी को अपनाने के लिए हम आदिवासियों से कुछ सीख ले सकते हैं।
कम ही है ज़्यादा
आज सबसे ज़्यादा प्रदूषण कारखानों से हो रहा है। कपड़ों के कारखाने, गाड़ियों के कारखाने और भी अनगिनत सामानों के कारखाने। हर दिन के उभरते ट्रेंड्स को फॉलो करने के लिए हम ज़्यादा-से-ज्यादा ख़रीदारी करते हैं। कुछ बदलावों से नया फोन या हाईटेक गैज़ेट हमारे अच्छे खासे फोन को आउटडेटेड कर देता है।
कंपनियां दामों और आकर्षक ऑफर्स से लोगों को कंज़्यूमरिज़्म में फंसाए रखती हैं पर सोचने की बात है कि कंपनियां इतने कम दामों में चीज़ें कैसे बेचती हैं? वह श्रम (लेबर) और वातावरण से इसकी कीमत निकालती हैं।
- कारखानों में काम करने वालों की तनख्वाह में कटौती होती है। प्र
- कृति में हर तत्व को कीमत से खरीदा जाता है।
- कंपनियां वातावरण नियमों का उल्लंघन आसानी से करती हैं।
- वे प्रदूषण को नदियों या हवा में छोड़ देती हैं।
अगर इसकी निंदा की जाए तब वे मुआवज़ा या जुर्माना भर देती हैं लेकिन क्या प्रकृति इतनी सस्ती या बिकाऊ है जिसे पैसे में तोला जा सके?
नहीं, कंपनियां तर्क देती हैं कि कारखानों को बंद करने से नौकरियां खत्म हो जाएंगी लेकिन ये कंपनियां ज़्यादा लोगों को सभ्य तनख्वाह नहीं मुहैया कराती हैं।
आदिवासियों से आत्मनिर्भरता सीखी जा सकती है
आदिवासी स्थानीय मौजूद स्रोतों का पूर्णतः इस्तेमाल करते हैं। जैसे बाँस की कारीगरी से बनाई गई चटाई और मछली पकड़ने के साधन। ऐसे कामों के लिए सारे ज़रूरी साधन उनके स्थान में मिल जाते हैं। इससे कम-से-कम प्रोसेस्ड वस्तुएं (जैसे प्लास्टिक) का इस्तेमाल होता है।
स्थानीय अर्थव्यवस्था को ज़्यादा महत्व दिया जाता है, यानी डिमांड और सप्लाई लोकल मार्केट के हिसाब से होती है। ये ज़रूरत से ज़्यादा उत्पाद को रोकता है। इससे कम साधन खर्च होते हैं और कचरा भी कम बनता है। और तो और, तंगी का खतरा भी नहीं मंडराता है। साथ ही, इससे सुनिश्चित रहता है कि समुदाय में सभी के पास काम है।
कम सामान, ज़्यादा उपयोग
आदिवासियों से हम हर चीज़ का पूरा इस्तेमाल करना सीख सकते हैं। यह चीज़ों को विभिन्न कामों के लिए उपयोगी बनाता है। आज मार्केट में किसी भी विशेष काम के लिए चीज़ें बनाई जा रही हैं। इसका एक उदाहरण है हीरे के आकार के आइस ट्रे। आपके फ्रिज में मौजूद आइस ट्रे अपना काम बखूबी कर रहा है पर कंपनियां आपको लुभाती हैं यह कहते हुए कि आपके पास जो है, वह काफी नहीं है।
हद तब हो जाती है, जब वातावरण को संरक्षित रखने वाले आंदोलन को ही कंपनियां अपने मुनाफे के लिए उल्टा कर देती हैं। कंसुमेरिस्म से बचने के लिए “मिनिमलिस्म” को भी अपनाया जा रहा है।“मिनिमलिस्म” का मतलब है कम और ईको-फ्रेंडली चीज़ों का इस्तेमाल करना और जितनी ज़रूरत हो, सिर्फ उतनी चीज़ें खरीदना। लेकिन कंपनियों ने इसको भी मुनाफा बनाने का साधन बना दिया है, जो सामान लोगों के पास पहले से था, उसे फेंककर लोग नए ईको-फ्रेंडली सामान खरीदने लगे हैं।
प्रकृति की समझ
आदिवासियों की मुख्य खूबी है उनका वातावरण के साथ संतुलन में रहना। उनके लिए वातावरण बाहरी हालात नहीं हैं, बल्कि उनका जीवन प्रकृति में ही रचा हुआ है, इसलिए उनके प्रमुख त्यौहार प्रकृति की पूजा के लिए होते हैं। सरकार के ज़्यादातर संरक्षण प्रोजेक्ट्स प्रकृति को हानि पहुंचाते हैं, क्योंकि वे इकोलॉजिकल संतुलन को बिगाड़ते हैं।
इन प्रोजेक्ट्स का मानना है कि प्रकृति को तभी बचाया जा सकता जब उसे इंसानों से अलग करें। इस धारणा के विपरीत, जंगलों में रहने वाले समुदाय प्रकृति की रक्षा करते हैं।आदिवासी जीवन सिखाता है कि प्रकृति की रक्षा उससे अलग होकर नहीं, बल्कि प्रकृति को समझकर, उसके साथ ही रहकर की जा सकती है।
कम कचरा
आज हर उत्पाद में असल चीज़ से ज़्यादा पैकेजिंग होती है। प्रति माह करीब 22,000 मेट्रिक टन प्लास्टिक का कचरा अकेले पैकेज़्ड फूड डिलीवरी से उत्पन्न होता है। आदिवासियों के भोज में जाने पर आपको प्लास्टिक के प्लेट्स नहीं, बल्कि साल के पत्तों के पातुर मिलेंगे। इसमें खाकर भोजन का स्वाद दोगुना हो जाता है। प्लास्टिक के बदले बांस का स्ट्रॉ अच्छा विकल्प है।
आदिवासी “ग्रीन इकॉनमी” के ग्रीन पहलू के साथ ही, समानता और न्याय को भी अमल करते हैं। आदिवासियों में अमीर-गरीब का विभाजन नहीं होता है, बल्कि समुदाय के सभी लोग मिल-बांटकर खाते-पीते हैं, इसलिए उनमें गरीबी और असामनता नहीं दिखती है। वह पैसे से ज़्यादा खुशहाली में विश्वास रखते हैं। ऐसी अर्थव्यवस्था ज़्यादा समय तक चल सकती है।
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(लेखिका के बारे में: दीप्ती मेरी मिंज (Deepti Mary Minj) ने जेएनयू से डेवलपमेंट एंड लेबर स्टडीज़ में ग्रैजुएशन किया है। आदिवासी, महिला, डेवलपमेंट और राज्य नीतियों जैसे विषयों पर यह शोध और काम रही हैं। अपने खाली समय में यह Apocalypto और Gods Must be Crazy जैसी फिल्मों को देखना पसंद करती हैं। फिलहाल यह जयपाल सिंह मुंडा को पढ़ रही हैं।)