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राजा हरि सिंह के स्वतंत्र कश्मीरी राज्य की चाहत और अनुच्छेद 370 का जन्म

लेखक अनुराग पांडेय दिल्ली यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। कश्मीर के इतिहास और वर्तमान स्थिति पर उनके लेखों की शृंखला की यह तीसरी कड़ी है।

लेख के पहले और दूसरे भाग में जम्मू-कश्मीर के इतिहास की व्याख्या की गई थी। यह तीसरा भाग उस चर्चा पर आधारित है जिसे हम सभी अपने अनुभव के हिसाब से जानने का दावा करते हैं।

इनमें राजा हरि सिंह, कश्मीर पर अंग्रेज़ी शासन तथा कश्मीर के उपनिवेशवादी दौर में सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक स्थिति के साथ कश्मीर में विभिन्न आन्दोलन और उनके कारण शामिल हैं।

लेख का यह तीसरा भाग उपनिवेशी शासन के अधीन कश्मीर की चर्चा करता है और ये भाग कई भ्रांतियों से पर्दा उठाने का प्रयास है।

राजा रणवीर सिंह का कश्मीर शासन

राजा गुलाब सिंह के बाद राजा रणवीर सिंह कश्मीर रियासत के शासक बने। इन्हीं के शासन में 1857 की क्रांति हुई जो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की अनैतिक विस्तारवादी नीति के विरुद्ध थी और जिसे भारत को ब्रिटिश मुक्त करने के लिए पहले स्वतंत्रता संग्राम के रूप में कई विचारकों द्वारा प्रस्तुत किया गया था।

राजा रणवीर सिंह आज़ादी की इस पहली लड़ाई में भारत के अन्य राज्यों के साथ नहीं थे और ना अंग्रज़ी सेना के साथ थे। राजा की सेना ब्रिटिश सेना के साथ, भारत के अन्य राजाओं के विरुद्ध युद्ध कर रही थी। राजा रणवीर सिंह मुस्लिम शासक नहीं थे लेकिन देश में मुगल शासक, फजल-ए-हक खैराबादी, मौलवी अहमदुल्लाह शाह फैजाबादी (जिन्होंने लखनऊ में ब्रिटिश सेना को हराया), खान बहादुर (बरेली), बेगम हजरत महल इत्यादि ऐसे कई नाम हैं जिन्होंने हिन्दू एवं सिख राजाओं के साथ मिलकर अंग्रेज़ों को टक्कर दी।

इसे हिन्दू-मुस्लिम एकता के रूप में भी प्रस्तुत किया जाता है। वहीं दूसरी ओर राजा रणवीर सिंह के अलावा कई ऐसे शासक थे जिन्होंने अंग्रेज़ों का साथ दिया। इनमें नवाब मीर फरकुन्दा अली खान, (हैदराबाद), महाराजा नरेन्द्र सिंह (पटियाला), महाराणा स्वरूप सिंह (उदयपुर), महाराजा राम सिंह 2 (जयपुर), महाराजा सरदार सिंह (बीकानेर), महाराजा जिआजी राव शिंदे (ग्वालियर) प्रमुख हैं।

आप यहां राजा का धर्म या राजा का कोई धर्म नहीं होता दोनों में से कुछ भी सोचने के लिए स्वतंत्र हैं। किस राजा को देशद्रोही, गद्दार कहा जाए और किसे देशभक्त या राष्ट्रवादी, ये आपके विवेक पर निर्भर करता है।

राजा रणवीर सिंह, फोटो साभार- सोशल मीडिया

कुल मिलाकर राजा रणवीर सिंह अंग्रेज़ी सेना के साथ खड़े थे। इनके बाद राजा प्रताप सिंह कश्मीर के शासक घोषित हुए, जिन्होंने 1885 से 1925 तक कश्मीर पर शासन किया। इनके बाद हरि सिंह गद्दी पर बैठे।

मुस्लिम शाल व्यापारियों और कर्मकारों को कश्मीर से भगाया

राजा प्रताप सिंह और हरि सिंह का शासन अंग्रेज़ी रियासत के रूप में किसी बड़े आन्दोलन में कभी हिस्सेदार नहीं रहा। देश की बाकी रियासतों की तरह कश्मीरी शासक भी स्वतंत्रता आन्दोलन से अपने आप को अलग रखे हुए थे लेकिन कश्मीर में कई तरह के आन्दोलन हुए।

कश्मीर में कश्मीरी पंडितों का ज़मीन पर मालिकाना हक था(जैसा पहले भाग में लिखा गया है ) और मुस्लिम इनकी ज़मीन पर मज़दूर या बंधुआ मज़दूर थे। कश्मीरी पंडितों का कश्मीर की 30 प्रतिशत जमीन पर मालिकाना हक था जो महाराजा रणवीर सिंह के सन 1862 में चकदारी कानून लागू होने के बाद और बढ़ गया।

दूसरी ओर कश्मीर में डोगरा शासक रणवीर सिंह ने टैक्स को और ज़्यादा बढ़ा दिया। इस कदम का सबसे ज़्यादा नकारात्मक प्रभाव कश्मीर के शाल व्यवसाय में लगे छोटे बड़े मुस्लिम व्यापारियों पर पड़ा।

कश्मीर में अनैतिक टैक्स और इस वजह से बढ़ते हुए घाटे की वजह से शाल व्यापारियों ने घाटी में सन 1865 में राजा की नीतियों के खिलाफ पहला आन्दोलन किया। शाल व्यापारियों ने, जिनमें बड़ी संख्या मुस्लिम्स की थी, शाल विभाग के अधिकारी श्री राज काक धर के घर पर धरना दिया और अपनी जायज़ मांगे रखते हुए विरोध प्रदर्शन किया।

राज काक धर एक कश्मीरी पंडित थे। यह आन्दोलन एक प्रजातान्त्रिक आन्दोलन था। विरोध प्रदर्शन निहत्थे व्यापारियों द्वारा शांति पूर्ण धरने से शुरू हुआ लेकिन कश्मीर के गवर्नर कृपा राम ने इस आन्दोलन को कुचलने के लिए कोलोनेल बिजोय सिंह के नेतृत्व में डोगरा राजा की सेना भेजी।

डोगरा सेना ने धरने पर बैठे व्यापारियों को तितर-बितर करने के लिए और आन्दोलन को कुचलने के लिए कई राउंड गोलियां चलाई, जिससे सरकारी आकड़ें के मुताबिक 28 प्रदर्शनकारी मारे गए और 100 से ज़्यादा घायल हुए।

इस घटना के बाद हज़ारों मुस्लिम शाल व्यापारियों और कर्मकारों को कश्मीर से भगा दिया गया और उन्होंने पंजाब (इस पंजाब में फैसलाबाद, गुजरावाला, गुजरात, झेलम, लाहौर, मुल्तान, ननकाना साहिब, रावलपिंडी इत्यादि क्षेत्र शामिल थे जो अब पाकिस्तान में हैं) में शरण ली।

इन कश्मीरियों को भगाने के दौरान उस मसौदे का भी ध्यान नहीं रखा गया, जिसमें कश्मीर की जनता किसी दूसरे राज्य में शरण नहीं ले सकती थी और ना ही बाहर से आए व्यक्ति कश्मीर में ज़मीन खरीद सकता था। जो गुलाब सिंह ने अंग्रेज़ों के साथ हुई संधि में लागू करवाया था।

कश्मीर, फोटो साभार- Flicker

1877 से 1879 का अकाल और कश्मीरियों का पलायन

सन 1920 में यह आन्दोलन दोबारा हुआ। सिल्क फैक्ट्री के कामगारों ने राजा के खिलाफ आन्दोलन किया। जिसका उद्देश वेतन में बढ़ोतरी था लेकिन राजा ने कोई ध्यान नहीं दिया और इन कामगारों की स्थिति बद से बदतर होती चली गई। चार साल बाद सन 1924 में यही आन्दोलन एक बड़े स्तर पर हुआ लेकिन डोगरा राजा ने कोई रियायत नहीं दी ना ही वेतन बढ़ाया।

अब आप ये सोचने के लिए स्वतंत्र हैं कि व्यापारियों द्वारा किए जा रहे शांति पूर्ण प्रदर्शन पर गोलियां चलवा कर डोगरा राजा ने सहिष्णुता का परिचय दिया या नृशंसता का। आप खुश भी हो सकते हैं कि एक हिन्दू राजा, अधिकारी और गवर्नर ने मुस्लिम व्यापारियों की जायज़ मांग को बंदूक के दम पर कुचल दिया और उनमें से कई हज़ार को कश्मीर छोड़ने पर विवश किया। यहां तक की कई आन्दोलन होने के बाद भी उस जनसंख्या की भलाई के लिए, उनकी जायज़ मांगों को पूरा करने के लिए कोई सार्थक कदम कभी नहीं उठाया गया।

सन 1877 से 1879 के मध्य कश्मीर में भयंकर अकाल पड़ा। कश्मीर के राजा द्वारा प्रकाशित अधिकारिक दस्तावेज़, 60 प्रतिशत के लगभग लोगों के इस अकाल की वजह से मारे जाने की पुष्टि करता है। इस दौरान कश्मीर राज्य से बाहर बसने की संधि में ढील दी गई और लाखों कश्मीरी (अधिकतर मुस्लिम्स) कश्मीर छोड़कर पंजाब (आज का पकिस्तान) में शरण लेने को विवश हुए।

इस अकाल का सबसे कम असर कश्मीरी पंडितों पर पड़ा और जब गरीब मुस्लिम जनसंख्या कश्मीर छोड़ने पर विवश हुई, तब इन्हीं कश्मीरी पंडितों ने उन मुस्लिम कश्मीरियों के घर, ज़मीन पर नाजायज़ कब्जा किया। राजा रणवीर सिंह द्वारा लागू किए चकदारी कानून का खुलेआम दुरुपयोग किया गया। सब खामोश रहे और मुस्लिम्स के वापस घाटी में आने के सभी दरवाज़े बंद हो गए।

इन सब परिस्थितियों में ब्रिटिश सरकार ने सन 1895 में डोगरा राजा को कश्मीरी मुस्लिम्स की समस्याओं को सुलझाने का फरमान दिया लेकिन कुछ नहीं किया गया। राजा हरि सिंह सन 1925 में ब्रिटिश रियासत जम्मू-कश्मीर के राजा घोषित किए गए। इनके शासन काल में भी मुस्लिम जनसंख्या के लिए कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया गया, ना ही टैक्स में ढील दी गई और ना ही कश्मीरी मुस्लिम्स जो पंजाब में विस्थापित हुए या किए गए, उन्हें वापस घाटी में लाने के लिए कोई सार्थक पहल ही की गई।

राजा हरि सिंह, फोटो साभार – YouTube

1931 में घाटी में पहला साम्प्रदायिक दंगा

1931 में कई आन्दोलन हुए जो राजा हरि सिंह के कुशासन के खिलाफ थे। ये आन्दोलन व्यापारी वर्ग, छात्रों द्वारा किए गऐ। मांग वही पुरानी थी, जिनमें वेतन और टैक्स का मुद्दा प्रमुख था और इसी के साथ कश्मीरी छात्रों ने एक नये आन्दोलन की शुरुआत की। जिसमें मुस्लिम्स को शिक्षण संस्थानों में प्रवेश, बेहतर शिक्षण माहौल और प्रशासन में मुस्लिम भागीदारी सुनिश्चित करने की मांग रखी गई। राजा ने हर बार की तरह इस बार भी कुछ नहीं किया।

सन 1931 में इन सभी घटनाओं के कारण और अपनी स्थिति बद से बदतर होते रहने के कारण मुसलमानों ने एक बड़ा आन्दोलन डोगरा राजा हरि सिंह के खिलाफ किया। इस आन्दोलन को शुरू करने के लिए पहली बार मुस्लिम उलेमा ने योजना बनाई और डोगरा शासन को मुस्लिम विरोधी घोषित किया।

जुलाई 1931 में अब्दुल कय्याम, जो एक नॉन-कश्मीरी थे, उन्हें आन्दोलन करने के लिए प्रेरित करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। बाद में पता चला के उन्हें गोली मार दी गई है। इससे मुस्लिम जनता के मध्य रोष और ज्यादा बढ़ गया एवं घाटी में पहला साम्प्रदायिक दंगा हुआ जिसमें तीन हिन्दू मारे गये।

मुस्लिम उलेमाओं ने इस आन्दोलन को एक धर्म युद्ध की संज्ञा दी जो हिन्दू डोगरा राजा के विरुद्ध था (हिन्दू जनसंख्या के खिलाफ नहीं)। यहां ब्रिटिशर्स ने हस्तक्षेप किया और राजा हरि सिंह को कश्मीरी मुस्लिम्स की मांगों पर ध्यान देने का आदेश दिया। इस आदेश के बाद हरि सिंह ने गेलेन्सी आयोग की स्थापना की ताकि मुस्लिम्स की मांगों को पूरा किया जा सके। इस आयोग का पुरज़ोर विरोध कश्मीरी पंडितों ने किया क्योंकि इससे उनका ज़मीन पर वर्चस्व खत्म या कम होने का खतरा था।

इस आयोग की सिफारिशें मानते हुए राजा हरि सिंह ने कश्मीर में प्रजातान्त्रिक प्रणाली को लागू किया और जनता के लिए एक ‘प्रजा सभा’ (विधान सभा की तरह लेकिन शक्ति विहीन) की स्थापना की।

इस योजना के तहत राजा हरि सिंह ने सभी कश्मीरियों को अपना राजनैतिक समूह या दल बनाने का भी अधिकार दिया। हालांकि यह योजना सिर्फ नाम की साबित हुई क्योंकि इस दंतविहीन प्रजा सभा में अपना प्रतिनिधि चुनने के लिए सिर्फ 5 प्रतिशत कश्मीरी जनसंख्या को ही वोट देने का अधिकार दिया गया।

इस 5 प्रतिशत जनसंख्या में मुस्लिम, हिन्दू, सिख, बौद्ध सभी शामिल थे। इस 5 प्रतिशत जनसंख्या जिसको वोटिंग का अधिकार दिया गया वह भी एक समान नहीं थी। इस प्रावधान के हिसाब से सिर्फ 6 प्रतिशत मुस्लिम्स ही चुनाव में वोट कर सकते थे लेकिन 25 प्रतिशत हिंदुओं (सिर्फ कश्मीरी पंडित, जो संख्या में अल्पसंख्यक थे लेकिन मजबूत स्थिति में थे) सिखों और बुद्धिस्ट को वोटिंग अधिकार दिया गया।

इसको एक उदाहरण से समझा जा सकता है, मान लीजिए कश्मीर की आबादी 2000 है, तो इसका 5 प्रतिशत 100 होगा, ये वही जनसंख्या हुई जिसे वोट देने का अधिकार दिया गया। इस नये नियम के हिसाब से 100 में से सिर्फ 6 मुल्सिम्स ही वोट दे सकते थे (100 का 6 प्रतिशत) और हिन्दू-सिख-बौद्ध को 25 वोट मिले (100 का 25 प्रतिशत, प्रत्येक समुदाय को 8 से थोडा ज्यादा वोट)।

आप तय करिये और सोचिये के क्या ये प्रजातान्त्रिक व्यवस्था थी? लेकिन मुस्लिम्स ने इस फरमान का कोई विरोध नहीं किया और अपनी समस्यायों को सुलझाने के लिए विभिन्न राजनैतिक समूह बनाये। इन समूहों में अखिल जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कॉन्फरेंस (All Jammu and Kashmir Muslim Conference) प्रमुख थी। इसकी स्थापना सन 1932 में हुई।

अखिल जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कॉन्फरेंस, फोटो साभार- सोशल मीडिया

अखिल जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कॉन्फरेंस के आंदोलन

कॉन्फरेंस ने मुस्लिम्स की जायज़ मांगों को उठाया जिनमें ज़मीन पर अधिकार, प्रशासनिक सेवा में मुस्लिम्स को अवसर, मज़दूरों की स्थिति में सुधार एवं उनका वेतन बढ़ाना, टैक्स को न्यायोचित बनाना इत्यादि शामिल थे। कॉन्फरेंस की स्थापना में शेख अब्दुल्लाह का बड़ा हाथ था। शेख अब्दुल्लाह कांग्रेस समर्थक माने जाते थे और कश्मीर में भी ब्रिटिश शासन के खिलाफ आज़ादी की लड़ाई का समर्थन करते थे।

इनमें मौलाना सईद मसूदी, गुलाम मुहम्मद बक्शी और शेख अब्दुल्लाह प्रमुख थे जो इस कॉन्फरेंस को एक धर्मनिरपेक्ष आन्दोलन बनाना चाहते थे ताकि सिर्फ मुस्लिम्स का नहीं, हर उस व्यक्ति की आवाज़ बन सके जो डोगरा राजा के शासन और नीतियों की वजह से शोषण में जी रहे थे।

कॉन्फरेंस ने अमृतसर की संधि जो अग्रेज़ों और राजा गुलाब सिंह के मध्य मार्च 1846 को हुई थी। उसको खत्म करने के लिए भी आवाज़ उठाई। हालांकि इसमें एक तबका सिर्फ मुस्लिम्स की बात करता था और उन्हीं की आवाज़ बनना चाहता था लेकिन घाटी में कॉन्फरेंस के धर्मनिरपेक्ष विचार ही ज़्यादा लोकप्रिय हुए और सभी शोषित व्यक्ति कॉन्फरेंस के साथ जुड़ें।

द्वितीय विश्व युद्ध में राजा हरि सिंह की भूमिका

सन 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ था। महाराजा हरि सिंह ने इस युद्ध में ब्रिटिश सेना का साथ दिया और लगभग 72000 कश्मीरी सैनिकों (जो ब्रिटिश सेना के अंग थे) को द्वितीय विश्व युद्ध में भाग लेना पड़ा। इन 72000 सैनिकों में 60,000 के आस-पास सैनिक सिर्फ मुस्लिम्स थे।

इसी युद्ध काल के समय सन 1941 में कॉन्फरेंस दो भागों में बंट गई। एक तबका कॉन्फरेंस के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर अड़ा रहा जबकि दूसरा तबका कॉन्फरेंस को सिर्फ मुस्लिम्स पहचान की राजनीति के लिए प्रयोग करना चाहता था।

दूसरा तबका मुख्यतः मुज्ज़फराबाद, पूंछ,और मीरपुर इलाके से सम्बद्ध था, जो पंजाबी मुस्लिम्स की नीतियों से आकर्षित था (अविभाजित पंजाब)। इस तबके के लीडर चौधरी गुलाम अब्बास ने सन 1941 में कॉन्फरेंस से अपने को अलग किया और मुस्लिम कॉन्फरेंस को पुनः स्थापित किया।

इस दूसरे तबके ने मुस्लिम राज्य और इस्लामिक कानून की वकालत की और जिन्नाह के पाकिस्तान मसौदे का समर्थन सन 1941 में ही कर दिया लेकिन इस मुस्लिम कॉन्फरेंस को कश्मीर की बड़ी आबादी ने कभी समर्थन नहीं दिया। उनका राजनैतिक दायरा बहुत सीमित था। इनको कुछ समर्थन भद्रेवाह, पूंछ, राजौरी, जम्मू और मीरपुर में ही मिला, जहां हिन्दू-मुस्लिम-सिख की मिली जुली आबादी थी। जबकि नेशनल कॉन्फरेंस को हिन्दू, मुस्लिम्स, सिख, बौद्ध सबका समर्थन हासिल था।

नेशनल कॉन्फरेंस ने कश्मीर की आज़ादी के लिए काँग्रेस की नीतियों का समर्थन किया और अंग्रेज़ों के खिलाफ, राजा हरि सिंह के खिलाफ कई आन्दोलन चलाए। सन 1944 में नेशनल कॉन्फरेंस ने अपने मेनिफेस्टो में कश्मीर के सामाजिक, आर्थिक पुनर्निर्माण की मांग रखी और सन 1945 में भारत की एकता, अखंडता, आज़ादी और सांस्कृतिक भावना का सम्मान करते हुए, आज़ादी की लड़ाई का पूर्ण समर्थन किया और अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी चाही।

द्वितीय विश्व युद्ध में जम्मू कश्मीर के सैनिक, फोटो साभार- सोशल मीडिया

सनद रहे, इस दौर में भारत की अन्य कई हिन्दू रियासतें कांग्रेस के स्वतंत्रता आन्दोलन से अपने आप को अलग रखे हुए थीं और ब्रिटिश राज्य के लिए वहां के राजा पूर्ण निष्ठावान बने रहे, हरि सिंह की तरह। हालांकि इन देशी रियासतों में कई प्रजातान्त्रिक आन्दोलन हुए लेकिन किसी भी आन्दोलन में स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़ाव नज़र नहीं आया। हालांकि अन्दोलानकर्ता अपने निजी मुद्दों के लिए कांग्रेस का समर्थन और हस्तक्षेप खोजते थे।

वहीं दूसरी ओर मुस्लिम कॉन्फरेंस और चौधरी गुलाम अब्बास मुस्लिम लीग की अलग मुस्लिम राष्ट्र की मांग का समर्थन करना, राजा हरि सिंह के लिए खतरे की घंटी थी। सन 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध खत्म हुआ और जो कश्मीरी सैनिक राजा की तरफ से ब्रिटिश सेना के साथ लड़े, उनमें से मुस्लिम सैनिकों को राजा हरि सिंह ने सेना में वापस लेने पर प्रतिबंध लगा दिया।

इस फैसले के पीछे कारण यह था कि राजा हरि सिंह को नेशनल कॉन्फरेंस की आज़ादी की लड़ाई को समर्थन देने और मुस्लिम कॉन्फरेंस का मुस्लिम राज्य की मांग का समर्थन करने से, ये भय हुआ कि कहीं मुस्लिम उनको सत्ता से हटा ना दें। हालांकि ये सिर्फ परिस्थितियों से उत्पन्न एक डर था और ऐसा कदम किसी मुस्लिम ने कभी नहीं उठाया, जिसमें राजा के खिलाफ मुस्लिम्स द्वारा सशस्त्र विद्रोह हुआ हो।

कश्मीर छोड़ो आन्दोलन

सन 1946 में कश्मीर छोड़ो आन्दोलन नेशनल कॉन्फरेंस ने शुरू किया, जो भारत छोड़ो आन्दोलन से प्रभावित था। इसी समय नेशनल कॉन्फरेंस ने राजा को टैक्स ना देने का एलान किया ताकि कश्मीर भारत की आज़ादी से जुड़ सके, रियासत खत्म हो, अमृतसर की संधि रद्द की जाए और कश्मीर आज़ाद भारत का हिस्सा बने। इनमें से सिर्फ एक मांग कि कश्मीर भारत का हिस्सा बने को छोडकर बाकी मांगों को मुस्लिम कॉन्फरेंस ने भी समर्थन दिया और पूंछ में No Tax Campaign शुरू हुआ।

राजा हरि सिंह ने अपने मुस्लिम सैनिकों को हथियार जमा कराने का आदेश दिया और आम मुस्लिम जनता को भी हथियार ना रखने का फरमान जारी किया। परिणामस्वरूप आम मुस्लिम जनता के पास जो भी हथियार थे, वे राजा के पास जमा हो गए। राजा ने इन हथियारों को हिन्दू और सिख जनता में बांट दिया और राज्य के कई इलाकों में मुस्लिम्स के खिलाफ दंगे हुए। जिनमें हजारों मुस्लिम्स को मारा गया।

इन दंगो की आड़ में राजा की सेना ने जम्मू के कई मुस्लिम गाँवों में नरसंहार किया। ये माना जाता है कि सिर्फ राजा की सेना द्वारा दो लाख से ज़्यादा मुस्लिम्स हताहत हुए, जिनका कभी कोई पता नहीं चला, उनके साथ क्या हुआ। इयान स्टीफेंस जो The Statesman के एडिटर थे वे इस घटना का जिक्र करते हैं, उनकी बात माने तो इन दो लाख मुस्लिम्स का कत्ले आम किया गया था। कुछ शायद जान बचाकर पंजाब (आज का पाकिस्तान) भाग गये।

कुल मिलाकर मुस्लिम्स की एक बड़ी जनसंख्या ने या तो जब अपनी मांगों को लेकर आन्दोलन किया, तब मारी गई, जब अकाल पड़ा तब भगाई गई और अकाल की वजह से राजकीय सहायता ना मिलने से मारी गई। यहां तक की उनकी ज़मीनों पर नाजायज़ कब्ज़ा किया गया।

दंगो में भी ये आबादी मारी गई तो वहीं डोगरा राजा के सैनिकों ने लाखों मुस्लिमानों को मारा और उन्हें क्षेत्र से भगाया। इनको वापस अपने घरों में लाने के लिए कभी किसी ने कोई आवाज़ नहीं उठाई। कोई ये भी नहीं जानता कि इतनी बड़ी आबादी के साथ घाटी छोड़ने के बाद या पंजाब में भगाए जाने के बाद इनका हुआ क्या?

सन 1946 में नेशनल कॉन्फरेंस और मुस्लिम कॉन्फरेंस के मेम्बर्स को जेल में डाला गया और इसी वर्ष कश्मीर की विधान सभा कही जाने वाली “प्रजा सभा’ के लिए चुनाव घोषित किए  गए।

शेख अब्दुल्लाह, फोटो साभार- सोशल मीडिया

स्वतंत्र कश्मीरी राज्य का पक्षधर था राजा

इन चुनावों का नेशनल कॉन्फरेंस ने पूर्ण बहिष्कार किया लेकिन मुस्लिम कॉन्फरेंस ने चुनाव में हिस्सा लिया। उनका वोट प्रतिशत ना के बराबर था और क्योंकि सिर्फ मुस्लिम कॉन्फरेंस ही चुनाव लड़ रही थी इसलिए उन्होंने 21 में से 16 सीटों पर जीत हासिल की। इस चुनाव के अगले साल सन 1947 में भारत की आज़ादी का मसौदा तैयार हुआ।

नेशनल कॉन्फरेंस ने पूरे जम्मू, कश्मीर, लद्दाख क्षेत्र का भारत में विलय, राजा के शासन का अंत, अमृतसर की संधि का खात्मा और राजा हरि सिंह के नये फरमान जिसमे कश्मीर की लड़की को बाहरी व्यक्ति से शादी करने पर प्रतिबंध लगाया गया था, उसका पूरी तरह से खात्मा चाहती थी और इसके लिए नेशनल कॉन्फरेंस के लीडर शेख अब्दुल्लाह ने कांग्रेस और नेहरु से सम्पर्क साधा।

इसी समय राजा हरि सिंह ने मुस्लिम कॉन्फरेंस (मुस्लिम अलगाववादी समर्थक) और जम्मू एंड कश्मीर राज्य हिन्दू सभा (हिन्दू साम्प्रदायिक संगठन) की बात मानते हुए कश्मीर को माउंट बेटन योजना के तहत आज़ाद मुल्क घोषित किया।

राजा खुद एक अलग स्वतंत्र कश्मीरी राज्य का पक्षधर था और दोनों साम्प्रदायिक संगठनों का समर्थन मिलने से उत्साहित हुआ लेकिन कश्मीर में शेख अब्दुल्लाह और उनकी नेशनल कॉन्फरेंस उम्मीद से ज़्यादा लोकप्रिय निकली और घाटी के हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध ने नेशनल कॉन्फरेंस का समर्थन किया और भारत में विलय की मांग उठाई।

शेख अब्दुल्लाह का धर्मनिरपेक्ष होना और भारत से लगाव ने कई कश्मीरियों को उनके सिद्धांतों के साथ जोड़ा। राजा हरि सिंह, मुस्लिम कॉन्फरेंस और जम्मू एंड कश्मीर हिन्दू सभा कश्मीर की राजनीति में सन 1947 के दौर में अलग थलग पड़ गये।

कुछ समय बाद, इससे पहले की नेशनल कॉन्फरेंस कश्मीर की जनता के साथ भारत में विलय के लिए कोई योजना तैयार करती, उससे पहले पाकिस्तान की सेना ने कबाइलियों के भेष में कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। राजा हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी और भारत सशर्त मदद करने को तैयार हुआ। इसमें कश्मीर का भारत में विलय सुनिश्चित हुआ और शेख अब्दुल्लाह को नेहरु और हरि सिंह ने कश्मीर का प्रधानमंत्री घोषित किया।

राजा हरि सिंह और तत्काल प्रधानंमत्री नेहरू, फोटो साभार- सोशल मीडिया

शेख अब्दुल्लाह ने ही अनुच्छेद 370 को अमली जामा पहनाया और कश्मीर की स्वायत्ता पर ज़ोर दिया। राजा हरि सिंह अमृतसर की संधि (ज़मीन ना खरीदने वाला मसौदा) और कश्मीरी लड़की का किसी दूसरे राज्य के व्यक्ति से विवाह पर प्रतिबंध को नहीं हटाना चाहते थे।

ये दोनों ही मुद्दे सिर्फ ज़मीन पर मालिकाना हक से जुड़े थे। अतः नेहरु, पटेल और शेख अब्दुल्लाह के प्रयासों से कश्मीर का भारत में विलय हुआ जिसमें भारत के पास सिर्फ रक्षा, विदेश मामले, वित्त और संचार जैसे ही मुद्दे आये, कश्मीर के निजी मामलों में भारत को अहस्तक्षेप की नीति अपनानी थी।

इसके साथ ही शेख अब्दुल्लाह और नेहरु की ही वजह से अनुच्छेद 370 में ये प्रावधान भी रखा गया कि भारत के राष्ट्रपति द्वारा कश्मीर की संविधान सभा से परामर्श करके कश्मीर के मामलों में हस्तक्षेप किया जा सकता है।

लेख का अगला भाग अनुच्छेद 370 और 35A पर चर्चा करेगा।

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यह लेख पूर्व में 14 अगस्त 2019 को डॉ अनुराग पांडेय द्वारा “इंडियन डेमोक्रेसी” में  प्रकाशित हुआ है।

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