छत्तीसगढ़ और ओडिशा में बड़े पैमाने पर पेड़ काटे जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में करीब 1,70,000 हेक्टेयर में फैले हसदेव अरण्य के वन क्षेत्र में कुल 20 कोल ब्लॉक चिह्नित किए गए हैं। कोल ब्लॉकों के लिए यहां लाखों पेड़ काटे जाने हैं। इतनी बड़ी संख्या में पेड़ों की कटाई से यहां के आदिवासियों के एक अनमोल रत्न को खोने का खतरा सामने आया है। ये कोई सोना, चांदी या कोयला खनिज नहीं है, बल्कि आदिवासियों का भोजन करूं कंदा है।
आदिवासियों की जीवनशैली और आदिवासी खुद हर प्रकार से जंगल पर ही निर्भर रहते हैं। खाना, पीना, रहना सब जंगल से ही जुड़ा हुआ है। आप सोचेंगे कि आखिर जंगल पर निर्भर होकर कोई कैसे पेट भर सकता है? पर जंगल में जीवित रहने के लिए अनेक रत्न हैं, इनमें से एक है करूं कंदा। करूं कंदा एक बहुत महत्वपूर्ण चीज़ है, जिसे आदिवासी खाकर जीवन यापन करते हैं। इसे भुजियां जनजाति के लोग बातोड़ी कांदा भी बोलते हैं।
इसे कब और कैसे पाएं?
करूं कंदा को लोग बहुत प्रेम से खाते हैं। अगर आप इसका लाभ उठाना चाहते हैं तो आप करूं कंदा को सिर्फ दो मौसम में ही पा सकते हैं। यह साल में दो ही बार निकलता है। पहला- जून-जुलाई महीने की शुरुआत में और दूसरा अक्टूबर नवंबर महीने में।
कंरू कंदा ज़मीन से लगभग 4 से 5 इंच नीचे मिलता है। इसका वज़न 100 से 300 ग्राम तक हो सकता है। करूं कंदा सिर्फ जंगलों में ही मिलता है। अगर आप इसे खोजना चाहें तो आप इसका पेड़ या पौधा नहीं पाएंगे। करूं कंदा का पेड़ नहीं होता है, इसके लता होते हैं, जिसे हम आदिवासी लाहा या नार बोलते हैं। इस करू कांदा को ज़मीन से निकालने के लिए आदिवासी लोग लकड़ी का औज़ार बनाकर निकालते हैं। इसे लोहे के झड़ से भी निकाला जा सकता है।
इसे कैसे खाएं?
जंगल से करूं कंदा को निकालने के बाद उसे अच्छे से साफ किया जाता है। ज़मीन के नीचे मिट्टी में उगने के कारण इसे बहुत अच्छी तरह धोना ज़रूरी है। पानी में डालकर इसे दोबारा साफ किया जाता है। इससे मिट्टी और धूल निकल जाती है। साफ करने के बाद उसे एक बड़े बर्तन में रख लेते हैं।
रखने के बाद जितनी मात्रा में इसे पकाना है, उतनी ही मात्रा में पानी डालेंगे। इसे पकने के लिए बहुत समय लगता है। इसलिए इसे रात में एक बर्तन में पकाया जाता है और रातभर उठ-उठकर बर्तन में पानी डालना पड़ता है।
इसे सिर्फ आग में ही पकाते हैं। लोग यह मानते हैं कि करूं कंदा को दिन में नहीं पकाया जाता, क्योंकि इससे उसे कड़वाहट लगती है। इस आग को कभी भी मुंह से हवा नहीं देनी चाहिए। मुंह से हवा देने पर भी कड़वाहट लगती है। चूल्हे में लकड़ी डालकर, जब वह सिर्फ अपने से ही जलेगा, तब जाकर अच्छे से मिठास आती है।
करूं कंदा पकाते वक्त इसमें एक और चीज़ मिलाते हैं, जिससे इसका स्वाद और इसकी पौष्टिकता और बढ़ जाती है। ये चीज़ है धान। आदिवासी धान की फसल काटने के बाद धान की मिसाई करते हैं। मिसाई करने के बाद उसका जो अवशेष बचता है, उसे इसमें मिलाया जाता है। इसे हर पैरा बोलते हैं। इसे करूं कंदा में मिक्स करते हैं, ताकि कड़वाहट ना लगे।
करूं कंदा के इस व्यंजन को खाने के बाद आदिवासी या कोई भी व्यक्ति भूख महसूस नहीं करता है। इसे खाने के बाद आप आराम से दिनभर काम कर सकते हैं। इस करू कंदा को खाने का तरीका यह होता है, ऊपर का भाग, यानी छिलका को हटाया जाता है और फिर करूं कंदे को खाया जाता है, इस छिलके को स्थानीय आदिवासी भाषा में छाल्टी या छोलाका बोलते हैं।
क्यों है करूं कंदा आदिवासियों की पसंद
आदिवासी भाई-बहने बहुत कठिन परिश्रम करते हैं। किसान आदिवासी खेतों में हल चलाते हैं, खेत बनाते हैं, मिट्टी खुदाई करते हैं, मीलों तक लकड़ी और पानी के लिए चलते हैं और इस प्रकार के बहुत परिश्रम करते हैं। ऐसे में करूं कंदा का सरल और पौष्टिक भोजन उन्हें ताकत देता है। जब फसल अच्छी नहीं होती तो भुखमरी से बचने के लिए करूं कंदा आदिवासियों का जीवन दान देता है।
कई रिपोर्ट्स के मुताबिक छत्तीसगढ़ में गरीबी और कुपोषण दर भारत के आंकड़ों से बहुत ज़्यादा है। ऐसे में करूं कंदा आदिवासियों की उम्मीद है।
करूं कंदा को पकाने के बाद जो बच जाता है, उसे आदिवासी बाज़ार भी लेकर जाते हैं और बेचते हैं। इसे बेचने के बाद घर चलाने के कुछ पैसे मिल जाते हैं।
ज़मीन के नीचे होने के कारण हम इस जीवन देयी भोजन के बारे में शायद ही जान पाते हैं लेकिन छत्तीसगढ़ के आदिवासी अपने जंगल के जानकारी के द्वारा इसका पूरा उपयोग करते हैं। वर्षों से वे भुखमरी से इसी के बदौलत जीवित हैं। जब छत्तीसगढ़ के जंगलों पर खतरा मंडराता है, तब आदिवासियों के अस्तिव पर भी खतरा होता है, इन्हें बचाने की ज़रूरत है।
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लेखक के बारे में: खाम सिंह मांझी छत्तीसगढ़ के रहने वाले हैं। उन्होंने नर्सिंग की पढ़ाई की है और वह अभी अपने गाँव में काम करते हैं। वह आगे जाकर समाज सेवा करना चाहते हैं।