मनुष्य की मानसिक शक्ति के विस्तार हेतु शिक्षा एक अनिवार्य प्रक्रिया है। स्त्री हो या पुरुष, किसी को भी शिक्षा से वंचित रखना उसकी मानसिक क्षमता विकसित होने से रोक देना है। पूर्ण व सुचारू शिक्षा ना मिलने से महिला या पुरुष बाहर के उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यों का भार उठाने में असमर्थ होते हैं।
शिक्षा के माध्यम से अर्जित किए गए ज्ञान, कौशल और जीवन के मूल्यों के बल पर लोग समाज में परिवर्तन ला सकते हैं। इससे आने वाली पीढ़ियों का पथ प्रदर्शन प्रभावशाली ढंग से किया जा सकता है, क्योंकि बच्चे किसी भी राष्ट्र के भावी जीवन की आधारशिला होते हैं मगर ध्यान रहे, विवेकहीन शिक्षा और ज्ञान मनुष्य को पतन की ओर अग्रसर करती है।
अतः जब हम विवेकपूर्ण व मानवीय मूल्यों से युक्त शिक्षा की बात करके अपने समाज में अवलोकन करते हैं, तो केवल साक्षर ही असहायों के दुःख-दर्द को महसूस कर यथा सामर्थ्य उनका निदान करते हैं। वहीं, समाज के संभ्रांत लोग उच्च शिक्षित डिग्री से उपाधित होकर भी अपनी आंखें मूंदकर चलते हैं। परमार्थ तो दूर की बात, वे अपने व्यंगपूर्ण तिरस्कृत शब्दों से आर्तजनों की पीड़ा को बढ़ाने का काम करते हैं।
इलाहाबाद हाई कोर्ट की ऐतिहासिक टिप्पणी
अगस्त 2015 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपनी ऐतिहासिक टिप्पणी में कहा था कि अधिकारियों, नेताओं और जजों के बच्चों को अनिवार्य रूप से सरकारी स्कूलों में पढ़ाया जाना चाहिए ताकि सरकारी शिक्षा पद्धति में सुधार लाया जा सके।इसे अदालत ने सरकार को लागू करने का निर्देश दिया था, जिसमें शर्तों को ना मानने वाले पर सज़ा के प्रावधान की भी बात थी।
शिक्षा की बुनियाद को मज़बूत बनाने और समाज में बेहतर संबंध स्थापित करने की दिशा में वह टिप्पणी काबिल-ए-तारीफ थी लेकिन इसे आज तक लागू नहीं किया गया। हालांकि इस बात को ज़रूर उठाया गया कि क्या सबको समान शिक्षा के बिना हम अपने समाज को समरस साम्यवादी बना सकते हैं?
आज़ादी के बाद शिक्षा का हाल
वास्तविकता तो यह है कि आज़ादी के 71 वर्षों के बाद भी शिक्षा की बुनियाद को मज़बूत करने की दिशा में ठोस कदम नहीं उठाए गए। कोठारी कमीशन द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में जीडीपी का 6% खर्च किए जाने का परामर्श आज तक लागू नहीं हुआ। आज सरकारी स्कूलों की स्थिति भी आम लोगों जैसी है।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में करीब पांच करोड़ बच्चे बाल मज़दूरी करते हैं। वहीं, राष्ट्रीय सैंपल सर्वे संगठन के अनुसार हमारे देश में हर चौथा बच्चा स्कूल से बाहर है।
दूसरी ओर गाँवों में बच्चे सातवीं-आठवीं के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं मगर लोकतांत्रिक सरकार व नौकरशाही व्यवस्था शिक्षा की इस दुर्गति के लिए अभिभावकों को दोषी मानती है, जबकि हम सामाजिक शिक्षाविद इस अप्रत्याशित विषमता के लिए सरकार को ज़िम्मेदार मानते हैं, क्योंकि इनकी अदूरदर्शी और दुराग्रही सोच के परिणामस्वरूप ही बच्चे स्कूल छोड़ने को मजबूर होते हैं।
हमारा मानना है कि हमारे स्कूल में ही इतनी खामियां हैं कि बच्चे मनोवैज्ञानिक रुप से स्कूल में टिक ही नहीं पाते। खासतौर पर ग्रामीण भारत के सुदूर अंचल विशेष रूप से प्रभावित होते हैं, जहां एक तो अच्छे स्कूल नहीं हैं और अगर हैं भी तो गुणवत्तापूर्ण शिक्षक नहीं हैं। इन स्कूलों में शिक्षकों की संख्या इतनी कम है कि स्कूल तो 1-2 शिक्षकों के भरोसे हैं, ऐसे में अब वह स्कूल व्यवस्था को देखे या पठन-पाठन को।
बचपन की कहानी
मुझे बचपन की कहानी याद आती है कि हमारे गाँव में एक प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय था। दिलचस्प यह भी है कि पूरे गाँव में स्कूलों की संख्या भी मात्र 1-2 ही थी। उसमें एक चपरासी था, जो स्कूल की देख-रेख किया करता था। वह सरकार के विभिन्न योजनाओं जैसे- पोलियो उन्मूलन, जनसंख्या गणना और चुनाव इत्यादि में ड्यूटी किया करता था। सब मिलाकर स्थिति चौपट ही थी। इन सबके बावजूद बच्चों को बड़े होकर शहरी व सुविधाओं से युक्त अभ्यर्थियों के साथ प्रतियोगिता परीक्षाओं में उतरना पड़ता था, जिससे इनके सफलता का प्रतिशत बिल्कुल कम था।
सरकारी स्कूलों के जीर्णोद्धार में समय
हाल ही में विद्युतीकरण का काम पूरा हुआ है, जिससे बच्चों को डिबिया-लालटेन में पढ़ने से मुक्ति मिली है। अब वह बल्ब में पढ़ने लगे हैं मगर सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधारों की गति इतनी धीमी है कि इनके जीर्णोद्धार में अभी भी 25-30 वर्षों का समय लग जाएगा।
आज उदारीकरण ने शिक्षा का बहुत बड़ा बाज़ार खड़ा कर दिया है। कहा जा रहा है कि जिसके पास जितना पैसा, उसे उतनी शिक्षा मिलेगी। कोई भी निम्न आय वर्ग का परिवार किसी निजी स्कूल में अपने बच्चे की पढ़ाई का खर्च वहन नहीं कर सकता।
जब 10वीं या 12वीं के बाद कोचिंग ही जाना है फिर गुणवत्ता कैसी? शिक्षा का व्यवसायीकरण आम नागरिकों को शिक्षा से बाहर कर रहा है। ऐसे में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सन् 2015 में जो टिप्पणी की थी, आज की तारीख में उस पर गौर फरमाने की ज़रूरत है। वह टिप्पणी एक उम्मीद है कि इसे ना सिर्फ प्राथमिक और माध्यमिक, बल्कि उच्च शिक्षा में भी पूरे देश में लागू किया जाना चाहिए।
राष्ट्रकवि दिनकर लिखते हैं-
नहीं एक अवलम्ब जगत का लाभ पुण्यव्रती की
तिमिर व्यूह में फंसी किरण भी आशा है धरती की।