महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं। महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों में बीजेपी को 105 और शिवसेना को 56 सीटें मिली हैं। वहीं काँग्रेस को 44 और एनसीपी को 54 सीटें हासिल हुई हैं।
हरियाणा की बात की जाए तो बीजेपी के खाते में 40 सीट और काँग्रेस के खाते में 31 सीटें आई हैं। यानी महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना की सरकार बनना बिल्कुल तय है लेकिन हरियाणा में अभी सस्पेंस बरकरार है। पर मीडिया, सूत्रों का नाम ले-लेकर बता रही है कि बीजेपी यहां निर्दलियों के समर्थन से सरकार बना सकती है और मनोहर लाल खट्टर ही मुख्यमंत्री रहेंगे।
चुनावों का देश
मीडिया के सूत्र तो आप समझते ही होंगे। ये सूत्र कौन है इस पर एक बड़ा शोध ज़रूरी है क्योंकि इन सूत्रों के नाम पर कई बार निराकार झूठ टीवी से बाहर आते दिखाई देते हैं। खैर, हमारा देश उत्सवों और चुनावों का देश है किसी ना किसी राज्य में चुनाव चलते रहते हैं। अब हरियाणा और महाराष्ट्र में यह उत्सव संपन्न हुआ और दोनों राज्यों में जनता ने अपना जनादेश दे दिया है।
हालांकि थोडा बिखरा हुआ जनादेश है, पर सब जानते हैं कि जनादेश की बन्दरबांट का जुगाड़ नेता देशहित, क्षेत्र हित, राष्ट्रवाद और विकास के नाम पर बड़ी आसानी से कर लेते हैं।
हमारे ग्रामीण आंचलो में एक कहावत है,
बिल्ली बच्चें देने के बाद सात घर बदलती है यानी कि बिल्ली अपने बच्चों को बचाने के लिए स्थान बदलती रहती है। ठीक अब यही हाल राजनीतिक दलों का भी हो गया है। वह भी चुनाव के नतीजे आते ही अपने विधायकों को लेकर स्थान परिवर्तन करते रहते हैं। हालांकि राजनीति में जनता के जनादेश यानी विधायकों को बिल्ली नहीं घोड़े कहा जाता है।
जब कहीं चुनाव या सरकार अल्पमत हो तो हॉर्स ट्रेडिंग शब्द सुनने को मिलता है। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कर्नाटक में जारी सियासी गतिरोध को लेकर भाजपा पर निशाना साधते हुए कहा था कि बागी काँग्रेस विधायकों को मुंबई में बंद करके रखा गया है।
विधायकों की खरीद फरोख्त से संविधान खतरे में है। जन प्रतिनिधि घोड़ों की तरह बिक रहे हैं, उनकी बोलियां लग रही हैं। यह काम बस खुलेआम नहीं हो रहा है, बस जु़बानी बातें चल रही हैं।
राजनीति में हॉर्स ट्रेडिंग
जनता के द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों की बिक्री के मामले में यह थोडा अलग शब्द है। जब एक विधायक धन या अन्य किसी लालच में एक पार्टी से दूसरी में कूद जाता है तो इसे इसे हॉर्स ट्रेडिंग यानि घोड़ों की बिक्री कहा जाता है। अपने विधायकों को विरोधी दलों से बचाने के लिए होटलों गेस्ट हाउसेज़ में रखा जाता है।
हालांकि ऐसा कई दशकों से ऐसा होता आया है। विधायक भी बाद में कह देते हैं कि ऐसा हमने क्षेत्र और देश हित के लिए किया है। जैसे कल हरियाणा के रुझान आते-आते ही गिरिराज किशोर कह रहे थे कि देशहित में निर्दलीय विधायक भाजपा को समर्थन करें।
देशहित में जनादेश का घोडा हमेशा से बिकता रहा है, वर्ष 1982 में हरियाणा में देवीलाल की पार्टी का एक विधायक फिल्मी स्टाइल में पानी के पाइप के ज़रिये होटल से भाग गया था और राज्य में काँग्रेस की सरकार बन गई थी।
साल 1983 से 1984 के बीच बहुमत हासिल कर चुकी एनटी रामाराव की सरकार को राज्यपाल रहे ठाकुर रामलाल बर्खास्त कर दिया था तब उन्हें भी दोबारा विश्वासमत हासिल करने के लिए विधायकों से सांठ-गांठ करनी पड़ी थी। गुजरात में वर्ष 1995 में शंकरसिंह वाघेला ने 47 विधायकों को अपने पाले में लेकर भाजपा से बगावत कर दी थी।
सदियों से चल रही है हॉर्स ट्रेडिंग
बताया जाता है कि सन 1820 के आस-पास घोड़ों के व्यापारी अच्छी नस्ल के घोड़ों को खरीदने के लिए बहुत जुगाड़ और चालाकी का प्रयोग करते थे। व्यापार का यह तरीका कुछ इस तरह का था कि इसमें चालाकी, पैसा और आपसी फायदों के साथ घोड़ों को किसी के अस्तबल से खोलकर कहीं और बांध दिया जाता था। जब सौदा पट जाता था, तभी घोड़े सामने लाए जाते थे।
इसे समझने के लिए उत्तर प्रदेश 1998 का राजनितिक चमत्कार तो सभी को याद होगा जब राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर तत्कालीन कांग्रेस नेता जगदम्बिका पाल को मुख्यमंत्री बना दिया था और कल्याण सिंह अपने विधायकों को किसी गुप्त स्थान पर ले गए थे।
बिहार में वर्ष 2000 में तो महाराष्ट्र 2002 में 2017 में तमिलनाडु समेत देश कई और राज्यों में भी यह विधायकों की खरीद फरोख्त का कार्य वर्षो से चल रहा है शायद ही कोई पार्टी इससे बची हो।
कहा जाता है कि यह एक तल्ख किस्म की सौदेबाज़ी होती है क्योंकि दोनों ही पार्टियां इस कोशिश में रहती हैं कि ज़्यादा से ज़्यादा फायदा उन्हें हो जाए। इन सौदेबाज़ियों में कई बार कई तरह के धूर्त सौदे पेश किए जाते हैं और आखिरकार एक नतीजे पर ये दोनों पार्टियां पहुंच पाती हैं और आम मतदाता खुश होकर कहता है कि चलो सरकार बन गई।
संविधान गिरता है, उठता है, चलता है। कभी-कभी मर जाता है। फिर दो दिन बाद पता चलता है कि कल परसों जिस लोकतंत्र की हत्या हुई थी आज वह जीवित है। ऐसा होते-होते हमारा लोकतंत्र करीब 70 साल का हो गया। इसे बुज़ुर्ग कहिये। अब इसे कम सुनने और कम दिखने लगा है। बस उसी की सुनता है जिसके हाथ में सत्ता होती है।
ऐसे में सिर्फ इतना कहूंगा कि संविधान असहाय है। नई सरकारों को शुभकामनाएं राष्ट्रवाद के नाम की लौ जलती रहे, भय और अंधविश्वास बना रहे, सत्ताएं शासन करती रहे।