अर्थशास्त्री अभिजीत विनायक बनर्जी को इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिलने की घोषणा के बाद भारतीय मीडिया में उनकी काफी चर्चा हो रही है। इसके पीछे की एक वजह यह भी है कि वह भारतीय मूल के हैं।
अभिजीत के साथ उनकी पार्टनर इश्तर डूफलो को भी अर्थशास्त्र के इस वर्ष के नोबेल सम्मान में साझीदार बनाया गया है, जो नोबेल जीतने वाली सबसे कम उम्र की महिला और अर्थशास्त्र में नोबेल जीतने वाली दूसरी महिला है। इसके अलावा भारतीय मूल के अमेरिकी अर्थशास्त्री मिषाएल क्रेमर को भी इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा की गई है।
उनकी कामयाबी पूरी दुनिया की आधी आबादी के लिए एक प्रेरणा का काम करेगी। साथ ही साथ अर्थशास्त्र के क्षेत्र में अभिजीत और इश्तर दंपत्ति हमेशा याद किए जाएंगे, जिन्होंने उदारीकरण के दौर के बाद गरीबी को दूर करके की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
अभिजीत को नोबेल पुरस्कार मिलना जेएनयू के लिए गर्व की बात
इस खबर की जानकारी मिलने पर पहले थोड़ा रश्क बंगाली मिट्टी पर हुआ। मैं सोचा पता नहीं क्या है बंगाल की मिट्टी में कि एक नहीं, बल्कि तीन व्यक्ति को इतने बड़े सम्मान से नवाज़ा गया।
फिर जैसे-जैसे जानकारी मिलती गई, रश्क गर्व में बदलने लगा। एक भारतीय होने के कारण भी और दूसरा यह जानकर कि उन्होंने भी जेएनयू की लाल दीवारों के दायरे में रोध-प्रतिरोध और सहमति-असमति की उस संस्कृति में अपना श्वेत रक्त बहाया है जिसका हिस्सा मैं भी रहा हूं।
यह गर्व महत्वपूर्ण इसलिए भी है, क्योंकि पिछले चार-पांच सालों में जेएनयू की लाल दीवारों के दायरे में समृद्ध हुई परंपरा को टुकड़े-टुकड़े गैंग, देशद्रोही और पता नहीं क्या-क्या कहा गया है। इन गतिविधियों ने जेएनयू के हौसले को कभी कमज़ोर तो नहीं किया मगर जेएनयू की संस्कृति को नश्तर की तरह नुकीला ज़रूर बना दिया है।
भारतीय मूल के अमरीकी अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी को मिला नोबेल का यह सम्मान जेएनयू के अकादमिक माहौल और स्टूडेंट्स के साथ-साथ शोधार्थियों के हौसले को बुंलद ज़रूर करेगा। जेएनयू को टुकड़े-टुकड़े गैंग और देशद्रोहियों का अड्डा बताने वालों के लिए अभिजीत बनर्जी को मिला यह नोबेल पुरस्कार सिद्ध करता है कि सत्ता जिसे विध्वंस कहती है, दरअसल वह रचना की प्रक्रिया का एक अहम हिस्सा है।
यह गर्व इसलिए भी और अधिक महत्वपूर्ण है कि अभिजीत उस पब्लिक फंडेड एजुकेशन सिस्टम के स्टूडेंट रहे हैं, जिसे लगातार कमज़ोर ही नहीं किया जा रहा है, बल्कि बंद करने की पुरज़ोर मुखालफत हो रही है। शायद इसलिए दुनिया भर में जब अभिजीत के नाम की चर्चा हो रही है, तब जेएनयू का भी नाम लिया जा रहा है। एक तरह से वह हताशा के दौर में आत्मविश्वास को लबरेज़ करने का काम करेगा।
मोदी सरकार की अर्थनीति के आलोचक रहे हैं अभिजीत बनर्जी
अभिजीत समृद्ध अर्थशास्त्री परिवार के अकादमिक महौल में मुबंई में पैदा हुए। कोलकता शहर में पढ़ाई-लिखाई करके उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली में रहे। प्रेसीडेंसी कॉलेज से बैचलर की पढ़ाई करके जेएनयू से उन्होंने अर्थशास्त्र में एमए किया। यह जानकारी मेरे लिए आश्चर्य में डालने वाली थी, क्योंकि अर्थशास्त्र से स्नातक किया हुआ कोई भी स्टूडेंट जेएनयू नहीं, बल्कि दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में दाखिला लेना चाहता है।
इसका जवाब उन्होंने खुद ही हिंदुस्तान टाइम्स के एक लेख में लिखा है,
हमें सोचने-विचारने वाली जगह की ज़रूरत है और सरकार को निश्चित तौर पर वहां से दूर रहना चाहिए।
अभिजीत बनर्जी नोबेल सम्मान पाने, शिक्षा प्राप्त करने के अपने बैकग्राउंड, अर्थशास्त्र और समाज में बदलाव लाने के अपने अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के साथ-साथ इसलिए भी अधिक खबरों में है, क्योंकि वह मोदी सरकार की अर्थनीति के आलोचक रहे हैं। बीते लोकसभा चुनाव में काँग्रेस घोषणा पत्र, जिसे उस समय संकल्प पत्र कहा गया था उसकी मुख्य योजना “न्याय योजना” के सूत्र धारकों में से रहे हैं।
मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले की आलोचना करते हुए उन्होंने न्यूज़ 18 से बातचीत के दौरान कहा, “मैं इस फैसले के पीछे के लॉजिक को नहीं समझ पाया हूं। जैसे कि दो हज़ार के नोट क्यों जारी किए गए हैं। मेरे ख्याल से इस फैसले के चलते जितना संकट बताया जा रहा है, उससे यह संकट कहीं ज़्यादा बड़ा है।”
अभिजीत के तर्कों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता
जब देश की जीडीपी के आंकड़ों में हेर-फेर पर बहस ज़ोरों पर थी, तब अभिजीत भी उन अर्थशास्त्रियों के समूह में शामिल थे, जिसका हिस्सा ज्यां द्रेज और जयोति घोष जैसे कई अर्थशास्त्री भी थे।
मुझे यह लगता है कि जब अपने देश में वाद-संवाद की परंपरा को केवल विपक्ष की आवाज़ बोलकर खारिज़ करने का दौर है, अधिनायकवाद पूरी तरह से हावी है और भारतीय अर्थव्यवस्था अपने इतने बुरे दौर में है, तब भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए जो तर्क अभिजीत दे रहे हैं उस पर विचार किया जाना चाहिए।
उनके तर्क से सहमति-असमति ज़रूर रखनी चाहिए मगर उसे सीधे तौर पर खारिज़ नहीं किया जाना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए है कि भारतीय लोकतंत्र सहमति-असमति और रोध-प्रतिरोध की धुरी पर ही टिका हुआ है। इस धुरी की कसौटी पर ही हमारा लोकतंत्र मज़बूत बनकर पूरे विश्व के सामने उभरा है।